रायचरण जब सर्वप्रथम नौकरी पर लगा था, तब
उसकी आयु सिर्फ बारह वर्ष थी। जैसोर जिले में उसका घर था। लम्बे-लम्बे बाल,
बङी-बङी आँखें तथा काली चिकनी छरहरी उसकी काया थी। वह जाति का कायस्थ था तथा उसके
मालिक भी कायस्थ थे। मालिक के घर बारह साल का एक बच्चा था, उसे खिलाना,
नहलाना-धुलाना और घुमाना-फिराना, यही उसकी सर्विस थी।
उसे
बच्चे ने धीरे-धीरे रायचरण की गोद छोङकर कॉलेज में और अन्त में कॉलेज छोङकर
यूनिवर्सिटी में पांव रखा। रायचरण अब भी उसके यहाँ नौकर है। अब उसका एक मालिक और
बढ गया है, घर में बहूजी आ गई हैं। इसलिए अनुकूल बाबू पर रायचरण का पहले जितना हक
था, उसका ज्यादातर नई बहू के हाथ लग गया है।
लेकिन
मालकिन ने जैसे रायचरण का पहले का हक कुछ घटा दिया है, वैसे ही एक नया अधिकार देकर
उसकी बहुत कुछ भरपाई भ्ज्ञी कर दी है।ै थोङे ही दिन हुए, अनुकूल के एक लङका उत्पन्न
हुआ है; और रायचरण ने उसे सिर्फ अपनी कोशिश और मेहनत से अधिक अपना लिया है।
बच्चे
को वह ऐसी उमंग के साथ्ज्ञ झूला झुलाता है, ऐसी चालाकी से उसके दोनों हाथ पकङकर
ऊपर को उछालता है, उत्तर की कोई आशा न रखकर उससे ऐसे-ऐसे बिना उद्देश्य के सवाल
पूछात रहता है और उसके मुख के पास अपना सिर ले जाकर ऐसा हिलाया करता है कि वह नन्हा-सा
आनुकौलव रायचरण को देखते ही मारे प्रसन्नता के मग्न होकर झूमने-सा लगता है।
वह
नन्हा–सा बच्चा जब पेट तथा घ्ज्ञुटनों के बल चलकर चौखट पार होता और कोई पकङने
को आता तो खिलखिलाकर हँसता हुआ शीघ्रता से बिना छुपने की जगह में दुबकने की चेष्टा
करता, तब रायचरण उसकी असाधारण होशियारी और अक्ल को देखकर आश्चर्य में पङ जाता।
उसकी माँ के निकट जाकर वह बङे गर्व और अचरज के साथ कहता-“बहूजी, तुम्हारा यह लङका बङा होने पर जज
बनेगा, पाँच हजार रूपये पाया करेगा।”
संसार
में और भी कोई मानव की सन्तान इस आयु में चौखट पार करने आदि ऐसी-ऐसी होशियारी का
परिचय दे सकती है, यह बात रायचरण के समझ के बाहर थी। उसका ध्यान था कि सिर्फ भावी
जजों के लिए ही ऐसी बातें हैं, दूसरों के लिए नहीं।
आखिरकार
बच्चे ने जब डगमगाते हुए चलना शुरू किया, तो वह भी बङे अचम्भे की बात हो गई, और
जब वह माँ को ‘म्माँ‘, बुआ को ‘उआ’ और रायचरण को ‘चन्ना’ कहकर पुकारने लगा, तब
तो रायचरण इस अजीब संवाद को बङे उत्साह से चारों ओर चर्चित करने लगा।
सबसे
बङी हैरानी की बात तो यह है कि माँ को ‘म्माँ’ कहता है, बुआ को ‘उआ’ कहता है, पर
उसे कहता है ‘चन्ना’। वास्तव में बच्चे के दिमाग में यह अक्ल आई कहाँ से,
बतलाना कठिन है। अवश्य ही कोई ज्यादा आयु का आदमी ऐसी तेज अक्ल का परिचय न दे
सकता था, और देने पर भी उसके ‘जज’ होने की सम्भावना में सबको पूरा-पूरा शक रह
जाता।
कुछ
रोज से रायचरण को अपने मुख में रस्सी दबाकर घोङा बनना पङता है। पहलवान बनकर बच्चे
के साथ्ज्ञ कुश्ती लङनी पङती है तथा उसमें अगर वह हारकर धरती पर नही ंगिर पङता
तो बेचारे की आफत आ जाती है।
इसी
वक्त अनुकूल बाबू का पद्मा नदी के किनारे के किसी जिले में तबादला हो गया। वहाँ
जाते वक्त वे अपने बच्चे के लिए कलकत्ता से एक छोटी-सी ठेलागाङी लेते गए थे।
रायचरण सुबह-शाम दोनों वक्त नवकुमार को साटन का कुर्ता, सिर पर जरीदार टोपी, हाथ
में सोने के कङे और पांवों में लच्छे पहनाकर, उस गाङी में बिठाकर हवा खिलाने ले
जाता।
वर्षा
ॠतु का मौसम आया। भूखी पद्मा नदी, खेत, बाग-बगीचे, गाँव सबको एक-एक निवाले में
निगलने लगी। चर की रेती के पेङ-पौधे सब जल में डूब गये। नदी के तट के धसकने की
डरावनी आवाज और पानी की गरज से दसों दिशाएँ मुखरित हो उठीं। तेजी से दौङती हुई फेनराशि
ने नदी के तेज बहाव को और भी ज्यादा भयानक कर दिया।
तीसरे
पहर उस रोज बादल फिर घिर आये थे, पर बरसने की कोई आशा न थी। आज रायचरण का खामखयाली
नन्हा-सा मालिक किसी भी तरह घर में नही रहना चाहता। वह गाङी पर सवार घूमने को
जाने के लिये हठ पकङ गया। रायचरण धीरे-धीरे गाङी को ठेलता हुआ खेतों के निकट नदी
के किनारे जा पहुँचा। नदी में एक भी नौका न थी और खेत में भी कोई आदमी न था।
बादलों की संधों में से दिखाई दिया कि उस पार सुनसान बालू रेत वाले नदी के तट सूने
समारोह के साथ सूर्य छिपने को तैयार था। उस सन्नाटे में बच्चा अचानक ही पेङ की
तरफ उंगली उठाकर बोल पङा-“चन्ना, फूं:!”
पास ही दलदली जमीन पर एक कदम का वृक्ष था,
ऊँची शाखा पर कुछ फूल खिले हुए थे, उन्हीं पर बच्चे की लोभी दृष्टि खिंची हुई
थी। तीन-चार दिन हुए, रायचरण ने दो-तीन सींकों में गूंथ-गूंथकर उसे एक कदम के
फूलों की गाङी बना दी थी-उसमें रस्सी बाँधकर खीचने में बच्चे को ऐसा आनन्द आया
कि उस रोज रायचरण को मुँह मे लगाम नहीं लगानी पङी, घोङे से वह अचानक साईस के पद पर
पहुँचा दिया गया।
दलदल
मे ंसे जाकर फूल लाने की रायचरण की इच्छा न हुई। उसने चटू से दूसरी तरफ उंगली
दिखाकर कहा-“देखो, देखो, वोओ देखो, चिरैया! देखो तो उङ गई, आहा! आइयो री चिरैया,
लल्ला बाबू को लड्डू दे जाइयो।” इस तरह लगातार बातें कर-कर के बालक केा
बहलाता हुआ वह जोर से गाङी चलाने लगा।
पर
जो लङका बङा होकर जज बनेगा उसे इस तरह फुसलाने की कोशिश बेकार की बात थी, खासकर उस
वक्त जबकि चारों तरफ उसका ध्यान आकर्षित करने वाली और कोई वस्तु ही न हो।
लिहाजा रायचरण का काल्पनिक चिरैया का बहाना ज्यादा देर न टिक सका। तब फिर रायचरण
ने बताया-“तो तुम गाङी में बैठे रहना, अच्छा। मैं चट् से फूल लिए आता हूँ। खबरदार,
पानी के किनारे मत जाना।” यह कहता हुआ वह धोती ऊपर चढाकर कदम के पेङ
की तरफ चल दिया।
लेकिन
वह तो पानी के किनारे जाने को मना कर गया था, उससे बच्चे का मन कदम के फूल से
हटकर उसी पल पानी की ओर दौङ गया। उसने देखा कि पानी कल-कल, छल-छल करता हुआ दौङा जा
रहा है। उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे शरारत करके किसी एक बङे रायचरण के हाथ से
निकलकर एक लाख नन्हा बहाव हँसता तथा कल-कल गीत गाता हुआ मना किए हुए जगह की तरफ
तेजी से भागा जा रहा हो।
उसके
इस बुरे उदाहरण के मानव-शिशु का दिल खिल उठा। वह गाङी से उतरकर धीरे-धीरे पानी के
निकट पहुँचा और एक लम्बे तिनके को उठाकर उसे मछली पकङने की बंसी बनाकर पानी में
झुककर उससे मछली पकङने लगा और नदी का नटखट पानी फुसफुसाहट-भरी कल-कल भाषा में
बार-बार उसे अपने खेल में सम्मिलित होने के लिए बुलाने लगा।
सहसा
पानी में किसी वस्तु के गिरने की आवाज हुई। पर, बरसात में पद्मा नदी के किनारे
ऐसे कितने ही शब्द होते हैं। रायचरण ने झोली भरकर कदम के फूल तोङे और वृक्ष से
उतरकर मुस्कुराता हुआ वह गाङी के पास पहुँचा। वहाँ जाकर देखता है तो बच्चा गायब
था। चारों तरफ अच्छी तरह दृष्टि दौङाकर देखा, पर कही भी बच्चे का चिन्ह तक न
दिखाई दिया। पल भर में रायचरण का खून सूख गया। सारी दुनिया से सूनी उदास और
धुआंकार दिखने लगी। वह अपने टूटे हुए ह्रदय से चीख उठा-“लल्ला बाबू, लल्ला बाबू!”
किन्तु ‘चनना’ कहकर किसी ने जवाब नहीं
दियाशसरारत करके किसी बच्चे का कंठ खिलखिला नहीं उठा। सिर्फ पद्मा की पहले की
प्रकार कल-कल छल-छल करे दौङती रही। मानो वह कुछ जानती ही नहीं। मानो उसे दुनिया की
इन सब छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देने की आवश्यकता ही नहीं।
जब
संध्या हुई तो बच्चे की बेचैन माँ ने चारों तरफ आदमी दौङाए। लालटेन हाथ में लिए
लोग नदी के तट पर पहुँचे। वहाँ देखा तो, रायचरण आंधी की हवा की तरह खेतों के चारों
तरफ ‘लल्ला बाबू, लल्ला बाबू’ चिखता हुआ भटक रहा है, उसका गला बैठ गया है।
आखिर
में घर लौटकर रायचरण धङाम से अपनी बहूजी के पैरों में गिर पङा।
उससे
बार-बार पूछा गया, पर वह रो-रो कर यही बताता रहा-“कहाँ गया, कुछ भी पता नहीं लगा, माँ!”
यद्यपि सब जान गए कि यह काम मद्मा नदी का
ही है, फिर भी गाँव के बाहर जो बनजारे ठहरे हुए थे उन पर शक हो ही गया। माँ के मन
में तो यह शक पैदा हुआ कि कहीं बालक को रायचरण ने ही चुरा लिया हो। यहाँ तक कि वह
उसे बुलाकर कहने लगी-“तू मेरे लल्ला को लौटा दे, तुझे जितने
पैसे चाहिएं, मैं दूगी।”
सुनकर
रायचरण ने केवल माथे पर हाथ दे मारा।
आखिर
में मालकिन ने उसे निकाल बाहर कर दिया।
अनुकूल
बाबू ने अपनी स्त्री के मन में रायचरण के प्रति इस अन्यायपर्ण सन्देह को दूर
करने की चेष्टा की थी। उन्होंने अपनी पत्नी से पूछा था-“रायचरण ऐसा जघन्य काम आखिर किसलिए करेगा?”
पत्नी
ने कहा-“क्यों! सोने के आभूषण नहीं पहने था वो!”
रायचरण अपने देश को चला गया था। अब तक
उसके कोई भी बाल-बच्चा नहीं हुआ था और न ही होने की कोई आशा थी। पर होनहार की बात
कि उसी वर्ष, इतनी ज्यादा आयु में उसकी पत्नी के एक बच्चा हुआ तथा उसी में पत्नी
की मृत्यु हो गई। अपने उस बच्चे पर रायचरण केा बङा क्रोध आया। उसे वह बैरी-सा दिखने
लगा। उसने सोचा, यह छल करके लल्ला की जगह अपना पुत्र-अधिकार जमाने आया हैं। सोचने
लगा, मालिक के इकलौते पुत्र केा पानी में बहाकर खुद पुत्र के सुख को व्यतीत करना
उसके लिए महापाप के अतिरिक्त और कुछ नहीं। यहाँ तक कि रायचरण की विधवा बहन अगर न
होती, तो शायद वह बच्चा संसार की हवा में अधिक दिन सांस भी न ले सकता था।
हैरत की बात है कि उस लङके ने कुछ दिन के
बाद लल्ला की तरह की चौखट पार करना शुरू कर दिया, और सब तरह की मनाहियों को न
मानने में ठीक वैसी ही चालाकी दिखाने लगा! और तो क्या, उसके गले का स्वर, हँसने
और रोने की आवाज बहुत कुछ उससे मिलती-जुलती है। किसी-किसी रोज रायचरण उसकारोना
सुनता तो उसकी छाती अचानक धङक उठती, उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि मानो उसका वह लल्ला
भटक-भटक कर रो रहा है।
फुलना भी, रायचरण की बहन ने अपने भतीजे का
नाम रखा फुलना, बुआ को ‘उआ’ कहकर पुकारने लगा। इस परिचति सम्बोधन केा सुनकर एक
बार अचानक रायचरण को ध्यान आया कि अवश्य लल्ला ही मेरे मोह को न छोङ सकने की
वजह से, मेरे घर आकर पैदा हुआ है।
इस विश्वास के अनुकूल कुछ न काटी जा सकने
वाली युक्तियाँ भी थीं।
पहले तो, उसके चले जाने के पश्चात् इतनी
जल्दी उसका जन्म होना, दूसरे, इतने सालों बाद सहसा उसकी पत्नी के गर्भ में लङका
उत्पन्न होना, यह उसकी स्त्री के गुण से हरगिज नहीं हो सकता। तीसरे, यह भी उसी
तरह घुटनो के बल चलता है, डगमगाता हुआ घूमता-फिरता हैं और बुआ को ‘उआ’ कहता है।
जिल लक्षणों के होने से आने वाले दिनों में जज होने की सम्भावना है, उनमें से ज्यादातर
गुण इसमें मौजुद हैं।
तब
‘बहूजी’ के ह्रदय तोङ देने वाले शक की बात उसे सहसा याद आ गई, और बङे आश्चर्य में
आकर वह मन-ही-मन कहने लगा, “हाँ, हाँ माँ के मन ने सही जान लिया था कि
किसी ने उसके बच्चे को चोरी कर लिया है। सही तो है, तभी तो वह मेरे घर आकर उत्पन्न
हुआ है।” फिर इतने दिन जो उसने बच्चे के प्रति लापरवाही रखी, उसके लिए उसे बङा
पछतावा हुआ। बच्चे को अब वह बहुत ज्यादा चाहने लगा और प्यार करने लगा।
अब
से फुलना को वह इस प्रकार पालने लगा जैसे वह किसी बङे घराने का बच्चा हो। उसके
लिए वह साटन का कोट खरीद लाया, जरीदार टोपी भी ले आया, तथा पत्नी के गहने गलवाकर
उसके लिए कङें और लच्छे भी बनवा दिए। मुहल्ले के किसी भी लङके के साथ वह उसे
खेलने नहीं देता। रात-दिन स्वयं ही उसका साथी बनकर उससे खेलता रहता है। मुहल्ले
के लङके अवसर पाते ही फुलना को नवाब की नाती कहकर चिढाया करते हैं-और गाँव के लोग
भी रायचरण के ऐसे पगलाए बर्ताव पर आश्चर्य प्रकट करने लगे।
फुलना
जब पढने योग्य हुआ तब रायचरण अपनी जमीन वगैरह सब बेच-बाचकर उसे कलकत्ता ले गया।
वहाँ बङी कठिनता से एक नौकरी तलाश करके फुलना केा उसने स्कूल में भर्ती करा दिया।
खुद जैसे-तैसे गुजर कर लेता, किन्तु लङके को अच्छा खाना, बढिया पोशाक और अच्छी
शिक्षा देने में कोई कसर नहीं छोङता। मन-ही-मन कहता, “लल्ला बाबू, तुम मेरे प्रेम से मेरे घर
आए हो, इसलिए तुम्हारा मैं अपमान नहीं कर सकता।”
इसी
तरह बारह साल बीत गए। लङका पढने-लिखने में तेज और देखने में भी अच्छा तगङा सांवले
रंग का है, केश-वेश की सजावट की ओर पूरा ध्यान रखता है। कुछ आरामतलबी और शौकीन
मिजाज का है। बाप को ठीक बाप जैसा नहीं समझता। कारण, रायचरण स्नेह करने में बाप
और सेवा करने में नौकर जैसा व्यवहार करता है। इसके अलावा इसमें क कमी भी थी, यह
कि वह फुलना का पिता है, यह बात उसने सबसे छिपा रखी थी। जिस छात्रावास में फुलना
रहता है, वहाँ के बाकी सब लङके गंवार रायचरण की मजाक उङाया करते हैं, और कभी-कभी
बाप की गैरहाजिरी में फुलना भी उसमें शामिल हो जाया करता है। फिर भी ममताभरे
बर्ताव वाले भोले-भाले रायचरण को सभी लङके बहुत प्यार करते हैं, फुलना भी प्यार
करता है, लेकिन उसमें पिता के प्यार की जगह अनुग्रह ही ज्यादा रहता है।
अब
रायचरण वृद्ध हो चला। उसका मालिक अब हर वक्त उसके काम-काज में दोष पकङता रहता है।
वास्तव में उसका शरीर भी कमजोर हो चला है, काम में वह उतना ध्यान नहीं रख सकता,
बार-बार भूल जाता है। पर जो पूरा वेतन देता है, वह बुढापे की शिकायत नहीं सुन
सकता। इधर वह जो खेत-जोत बेच-बचाकर रूपये लाया था, वे भी खत्म हो गये, जिससे
फुलना भी आजकल अपने को वस्त्रों की कुछ तंगी महसूस करने लगा है।
सहसा
एक रोज रायचरण ने काम से छूट्टी ले ली और फुलना को कुछ रूपये देकर बोला-“लल्ला बाबू, जरूरी कार्य है मुझे, कुछ
दिन के लिए मैं देश जा रहा हूँ।” बस इतना कहकर वह बारासात चल दिया। अनुकूल
बाबू उस वक्त बारासात में ऑफिसर थे।
अनुकूल
बाबू के और कोई बाल-बच्चा नहीं हुआ। उनकी पत्नी अब भी उस बच्चे के दु:ख में
आँसू बहाया करती है।
एक
दिन, संध्या के समय अनुकूल बाबू कचहरी से लौटकर आराम कर रहे थे और उनकी पत्नी
किसी साधु-महात्मा से औलाद की कामना से काफी कीमत देकर कोई जङी और आर्शीवाद खरीद
रही थीं।
इतने
में आँगन से आवाज उभरी-“जय हो बहूजी की!”
बाबू
साहब बोले-“कौन है?”
रायचरण
ने आकर प्रणाम किया, बोला-“मैं हूँ, रायचरण।”
बूढे
को देखकर अनुकूल का ह्रदय पसीज गया। उसकी मौजूदा हालत के बारे में उन्होंने
सैकङों प्रश्न पूछ डाले। और फिर उन्होंने रामचरण को फिर से काम पर बहाल करने की
ख्वाहिश प्रकट की।
रामचरण
ने सूखी हँसी हँसकर कहा-“मैं तो सिर्फ बहूजी का आर्शीवाद लेने आया
हूँ।”
अनुकूल बाबू उसे अपने साथ अन्दर ले गए,
परन्तु उसकी ‘बहूजी’ ने खुशी से उसका स्वागत नहीं किया।
लेकिन रायचरण ने कुछ ध्यान न देते हुए
हाथ जोङकर कहा-“बहूजी, मैंने ही तुम्हारा लङका चुराया था। पद्मा ने नहीं, और किसी ने
भी नहीं, उसका चुराने वाला मैं ही हूँ, किरतघ्नी हूँ, मैं दुष्ट हूँ।”
अनुकूल बाबू कहने लगे-“क्या कह रहा है तू! कहाँ है वह?”
“जी वह मेरे ही पास है। मैं परसों यहाँ
पहुँचा दूँगा।”
इतना कहकर रायचरण वहाँ से चला गया।
वह रविवार का दिन था। कचहरी की छुट्टी थी।
प्रात:काल से पति-पत्नी दोनों जने बङी उत्सुकता से रायचरण के आने का रास्ता देख
रहे थे।
करीब दस बजे फुलना को साथ लेकर रायचरण
उपस्थित हुआ।
अनुकूल बाबू की पत्नी ने लङके से कुछ
पूछताछ नहीं की, और न कुछ सोचा-विचारा ही, वे चट् से उसे गोद में बिठाकर, सिने से
चिपटाकर, मुँह चूमकर तरसे हुए नयनों से उसका चेहरा देखकर कभी रोती और कभी हँसती
हुई व्याकुल हो उठी। दरअसल लङका देखने में बहुत अच्छा था। उसके पहनावे में,
रहन-सहन में निर्धनता का कोई लक्षण ही नहीं था। मुँह पर बेहद भला दिखने वाला,
विनम्र, शर्मीला भाव देखकर अनुकूल के ह्रदय में भी अचानक प्रेम उमङ आया। फिर भी
उन्होंने मजबूती के साथ पूछा-“कोई सबूत है?”
रायचरण ने कहा-“ऐसे कार्य का सबूत क्या होगा, बाबू साहब?
मैंने जो आपका लङका चुराया था, इस बात को केवल मैं ही जानता हूँ या भगवान जानते
हैं, दुनिया में तीसरा कोई व्यक्ति नहीं जानता।”
अनुकूल बाबू ने सोच-समझकर निश्चित किया कि
लङके को पाते ही उनकीं पत्नीं ने जिस व्याकुलता के साथ उसे अपना लिया हैं, उसे
देखते हुए अब सबूत माँगना कुछ अर्थ नहीं रखता। जिस तरह भी बने विश्वास करना ही
अच्छा है। इसके अलावा और भी एक बात है, रायचरण को ऐसा बच्चा मिल भी कहाँ से सकता
है? दूसरे, इतना पुराना बूढा नौकर बिना वजह उन्हें धोखा देगा ही क्यों?
लङके से भी वार्तालाप करने पर यही मालूम
हुआ कि बचपन से ही वह रायचरण के साथ है तथा अब तक उसी को वह पिता समझता आया है,
किन्तु रायचरण ने कभी उसके साथ पिता के समान व्यवहार नहीं किया, बल्कि वह नौकर
जैसा बर्ताव करता रहा। आखिर में अनुकूल बाबू के मन से शक दूर करके कहा-“लेकिन रायचरण, अब तू हम लोगों को परछाई भी
न छू सकेगा।”
रायचरण ने अपने हाथ जोङकर गदगद् कंठ से
कहा-“मालिक साहब, अब इस बुढापे में कहाँ जाऊँगा?”
मालकिन बोली-नहीं-नहीं, रहने दो। लल्ला
काफी खुश रहे। इसे मैं क्षमा करती हूँ।
लेकिन न्यायपरायण जज अनुकूल चन्द्र ने
कहा-“इसने मेरा भयानक कसूर किया है कि इसे क्षमा नहीं किया जा सकता।”
रायचरण ने अनुकूल बाबू के पांव पकङकर कहा-“मैंने कुछ नहीं किया, बाबू साहब, ईश्वर
ने किया है।”
अपना पाप ईश्वर के सिर मढने की चेष्टा
करते देख जज साहब और भी ज्यादा क्रोधित हो उठे। बोले-“जिसने ऐसा धोखे का कार्य किया है, उस पर
अब फिर यकीन करना सही नहीं।”
रायचरण ने चरण छोङकर कहा-“ऐसा मैं नहीं हूँ मालिक!”
“तो कौन है ऐसा?”
“मेरा भाग्य।”
लेकिन इस तरह की कैफियत से किसी उच्च
शिक्षित और खासकर न्यायकर्ता दंडदाता जज को भला किस प्रकार तसल्ली मिल सकती थी।
रायचरण ने कहा-“दुनिया में मेरा और कोई भी नहीं है,
मालिक!”
फुलना ने जब देखा कि वह जज का बेटा है,
रायचरण ने अब तक उसे चुरा रखा था तथा अपना बच्चा बताकर वह उसकी बेइज्जती करता
रहा है, तब उसे भी मन-ही-मन कुछ क्रोध आया, किन्तु फिर भी उसने सहनशीलता के साथ
पिता से कहा-“पिताजी इसे क्षमा कर दो। घर में अगर नहीं रखना चाहते, तो इसके लिए कुछ
तनख्वाह बाँध दो।”
इसके बाद रायचरण ने मुख से कुछ भी न कहा।
बस, एक बार अपने इकलौते बेटे का अच्छी प्रकार मुँह देखा, सबको नमस्ते किया, और
फिर दरवाजे से बाहर निकलकर दुनिया के अनगिनत लोगों में जाकर मिल गया।
महीने के अन्त में अनुकूल बाबू ने जब उसके देश के
पते पर कुछ रूपये भेजे तो मनीऑर्डर वापस आ गया। वहाँ मनीऑर्डर लेने वाला अब कोई भी
नहीं था।
लल्ला बाबू की वापसी
Reviewed by Kahaniduniya.com
on
अक्तूबर 12, 2019
Rating:
कोई टिप्पणी नहीं: