सूना है, आजकल बहुत-सी बंगाली लङकियों केा
अपने आप ही कोशिश करके पति ढूंढना पङता है। मैंने भी यही किया है, लेकिन देवता की
सहायता से। मैंने बचपन से ही बहुत-से व्रत और काफी शिव पूजा की थी।
आठ
साल की आयु पूरी होने के पहले ही मेरा विवाह हो गया था, मगर पूर्वजन्म के पापों
के कारण मैं पति को पाकर भी पूरी तरह न पा सकी। माँ दुर्गा ने मेरी आँखें ले लीं।
जीवन के आखिरी क्षण तक पति को देखने का आनन्द प्राप्त नहीं किया।
बचपन से ही मेरी अग्नि-परीक्षा आरम्भ हो
गई थी। चौदह साल पूरे होने के पूर्व ही मैंने एक मृत शिशु को जन्म दिया, स्वयं
भी मृत्यु के निकट पहुँच गई थी, किंतु जिसके भाग्य में दु:ख बंदा होता है वह मर
कैसे सकता है, जो दीपक जलने के लिए होता है उसमें तेल की कमी नहीं पङती, वह सारी
रात जलकर ही बुझता है।
बच
तो गई, मगर शरीर की दुर्बलता, मन के दु:ख अथवा जिस वजह से भी हो, मुझे नेत्र रोग
हो गया।
मेरे
पति उस वक्त डॉक्टरी पढ रहे थे। नई विद्या सीखने के उत्साह में चिकित्सा करने
का सुयोग पाते ही वे प्रसन्न हो उठते। उन्होंने खुद मेरी चिकित्सा आरम्भ की
है।
उस
साल भैया बी. एल. देने के विचार से कॉलेज में पढ रहे थे। उन्होंने एक रोज आकर
मेरे पति से कहा, “कर क्या रहे हो! कुमू के
नेत्र नष्ट करने चले हो। किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाओं।”
मेरे पति बोले, “अच्छा डॉक्टर आकर और क्या नई चिकित्सा
करेगा? दवाईयाँ तो सब जानी हुई हैं।”
भैया
ने कुछ गुस्सा होकर कहा, “तो फिर क्या तुममें और कॉलेज के बङे साहब
में कोई फर्क नहीं?”
पति
ने कहा, “कानून पढते हो, डॉक्टरी तुम क्या जानो। तुम जब शादी करोगे, तब पत्नी
की सम्पति को लेकर यदि कभी मुकदमा छिङ जाए तो या तुम मेरी सलाह के अनुसार चलोगे?”
मैं
दिल-ही-दिल सोच रही थी, राजा-महाराजाओं के युद्ध हो, मारे जाएँ गरीब बेचारे। पति
के साथ विवाद छ्ङिा भैया का, लेकिन दोनों पक्षों का आघात मुझे ही सहना पङा। फिर
सोचा भाइयों ने जब मेरा दान कर ही दिया है, तब मेरे प्रति फर्ज को लेकर यह
खींच-तान क्यों? मेरा सुख-दुख, मेरा रोग तथा स्वास्थ्य, अब तो सभी-कुछ मेरे
पति का है।
उस
रोज मेरे नेत्रों की चिकित्सा–जैसी साधारण बात को लेकर भैया के साथ मेरे पति का
मानो कुछ मन मुटाव-सा हो गया। मेरी आँखों से पानी गिरता था, पानी गिरना और भी बढ
गया, उसकी असली वजह उस वक्त मेरे पति अथवा भैया कोई भी न समझ सके।
मेरे
पति के कॉलेज चले जाने पर अपराह्र में भैया अचानक एक डॉक्टर को लेकर हाजिर हुए।
डॉक्टर ने परीक्षा करके कहा, “सावधानी न बरती गई तो रोग के गुरूतर हो
जाने की आशा है।” यह कहकर उन्होंने न जाने क्या–क्या दवाइयाँ लिख दीं, भैया ने फौरन
मँगा भेजीं।
डॉक्टर
के चले जाने पर मैंने भैया से कहा, “भैया आपके पाँव पङती हूँ, मेरी जो चिकित्सा
चल रही है उसमें किसी तरह की बाधा न डालें।”
मैं
बचपन से ही भैया से बहुत डरती थी, उनके सामने मुँह खोलकर इस प्रकार की बात करना
मेरे लिए एक आश्चर्यजनक घटना थीं, लेकिन मैं अच्छी तरह समझ गई थी कि मेरे पति से
छिपाकर भैया मेरी जिस चिकित्सा का प्रबन्ध कर रहे है उसमें मेरा अशुभ छोङकर शुभ
नहीं है।
भैया
को भी मेरी इस धृष्टात पर शायद कुछ हैरत हुई। कुछ देर खामोश रहकर सोचते-सोचते अंत
में बोले, “अच्छा, अब फिर डॉक्टर नहीं लाऊँगा, मगर जो दवाइयाँ आएँगी उनका
विधिपूर्वक सेवन करके देखना।” दवाइयाँ आने पर मुझे उनकी सेवन-विधि बताकर
भैया चले गए। पति के कॉलेज से लौटने से पहले ही मैंने वह डिब्बा, शीशी, औषधि
लगाने की सलाई और पूरी सेवन-विधि उठाकर यत्नपूर्वक अपने आँगन के कुएँ में फेंक
दीं। भैया से कुछ अप्रसन्न होकर ही मानों मेरे पति और भी दुगुने आनन्द से मेरी
आँखों की चिकित्सा में लग गए। दोनों वक्त दवाई बदली जाने लगी। आँखों मे पट्टी
बाँधी, चश्मा लगाया, आँख में बूँद-बूँद करके दवाई डाली, चूर्ण लगाया, बदबूदार
मछली का तेल खाने से भीतर की आँतें तक बाहर निकलने लगीं, उन्हें भी रोके रही। पति
पूछते, “कैसा लग रहा है?” मैं कहती, “काफी अच्छा।”
मैं यह सोचने की भी
चेष्ट करती कि अच्छी हो रही हूँ। जब बहुत अधिक पानी निकलने लगता तो सोचती, “पानी निकलना ही अच्छा लक्षण है।”
जब पानी गिरना बंद
हो जाता तो सोचती, “बस अब अच्छे होने के मार्ग पर हूँ।”
किंतु
कुछ समय पश्चात् यंत्रणा असह्म हो गई। आँखों से धुँधला दिखाई पङने लगा और सिदर्द
ने मुझे व्याकुल कर दिया। मैंने देखा, मानो मेरे पति भी कुछ अप्रतिभ-से हो गए
हैं। इतने दिन पश्चात् क्या बहाना करके डॉक्टर को बुलाएँ, समझ नहीं पा रहे थे।
मैंने
उनसे कहा, “भैया का दिल रखने के लिए एक बार किसी डॉक्टर को बुलाने में कष्ट क्या
है? इसी बात पर वे बेकार गुस्सा हो रहे हैं, इससे मेरे ह्रदय को कष्ट होता है।
चिकित्सा तो तुम्ही करोगे, किसी एक डॉक्टर का साथ रहा अच्छा होगा।”
पति
बोला, “सही कहती हो!” यह कहकर उसी दिन अंग्रेज डॉक्टर को ला
उपस्थित किया। क्या बात हुई नहीं जानती; किंतु लगा, जैसे साहब ने मेरे पति को कुछ
फटकारा हो। वे शीश झुकाए निरूत्तर खङे रहे।
डॉक्टर
के चले जाने के बाद मैं अपने पति का हाथ पकङकर बोली, “कहाँ से गँवार गोरे गर्दभ को पकङ लाए, कोई
देशी डॉक्टर ही काफी था। मेरी आँख की बीमारी को क्या वह तुमसे ज्यादा अच्छा
समझ सकेगा।”
पति
कुछ कुंठित होकर कहने लगे, “आँख का ऑपरेशन कराना जरूरी है।”
मैंने
कुछ ऊपरी आवेश दिखाकर कहा, “आँख का ऑपरेशन कराना होगा। यह तो तुम
जानते थे, लेकिन शुरू से ही यह बात छिपाते रहे हो। तुम क्या यह सोचते हो कि मैं
भयभीत हूँ?”
पति
की शर्म दूर हो गई। वे बोले, “आँख के ऑपरेशन की बात सुनकर न डरें,
आदमियों में ऐसे कितने बहादुर हैं!”
मैंने
मजाक करते हुए कहा, “पुरूष की वीरता सिर्फ स्त्री के सामने
प्रकट होती है।”
तत्क्षण
पति ने उदास तथा गम्भीर होकर कहा, “यह बात उचित है। पुरूष का तो अंहकार ही सब
कुछ होता है।”
उनके
गाम्भीर्य को उङाकर मैं बोली, “अहंकार में भी क्या तुम लोग औरतों से पार
पाओगे? उसमें भी हमारी ही जीत है।”
इस
मध्य भैया के आ जाने पर मैंने उनको अकेले में बुलाकर कहा, “भैया, आपके उस डॉक्टर की व्यवस्था के
मुताबिक चलने से मेरी आँखें इस बीच खूब अच्छी हो रही थीं, एक रोज भ्रम से खाने की
दवा का आँखों का लेप कर लिया जब से आँखे जैसे फूटी जा रही हैं। मेरे पति कह रहे
हैं, आँखों का ऑपरेशन कराना ही होगा।”
भैया
ने कहा, “मैं समझ रहा था, तुम्हारे पति की ही चिकित्सा चल रही है, इसी से और
भी नाराज होकर मैं इतने रोज से नहीं आया।”
मैंने
कहा, “नहीं, मैं बिना किसी से कहे उसी डॉक्टर की विधि के मुताबिक चल रही
थी, पति को बताया ही नहीं कि कहीं वे नाराज न हो।”
औरत
का जन्म लेने पर इतना झूठ भी बोलना पङता है। भैया के दिल को भी नहीं दुखाना
चाहती, पत के यश को भी कम करते नहीं बनता। माँ होकर गोद के बच्चे को बहलाना पङता
है, स्त्री होकर बच्चे के पिता को बहलाना पङता है- ओरतों के लिए इतनी छलना जरूरी
है।
छलना
का फल यह होता है कि अंधी होने के पहले अपने भैया और पति का मिलन देख सकी। भैया ने
समझा “गोपनीय चिकित्सा करने से ही यह घटना घटी।”
पति ने सोचा, “शुरू मे ही मेरे भैया की सलाह मान लेता तो
अच्छा होता।” यह सोचकर दो अनुतप्त ह्रदय अन्दर ही अन्दर क्षमाप्रार्थी होकर
एक-दूसरे के अत्यंत निकट आ गए। पति भैया की सलाह देने लगे, भैया भी विनीत भाव से
सब बातों में मेरे पति के मत का ही समर्थन करने लगे। आखिर मे दोनों के परामर्श के
अनुसार एक अंग्रेज डॉक्टर ने मेरी बाई आँख पर अस्त्राघात किया। दर्बल नयन यह
आघात न सह सका, उसकी झीण दीप्ति हठात बुझ गई। उसके पश्चात् बची हुई आँख भी
धीरे-धीरे अंधकार से आवृत हो गई। बचपन में शुभ दृष्टि के दिन तो चंदन चर्चित
तरूणमूर्ति मेरे सम्मुख पहले प्रकाशित हुई थी उसके ऊपर हमेशा के लिए जैसे पर्दा
पङ गया। एक दिन मेरी चारपाई के समीप आकर पति बोले, “तुम्हारे सामने अब और झुठी बङाई नहीं
करूँगा, तुम्हारी दोनों आँखें मैंने ही समाप्त की हैं।”
मुझे
लगा, उनकी आवाज अश्रु-जल से भर आई हैं अपने हाथ में उनका दाहिना हाथ लेकर मैंने
पूछा, “अच्छा किया, अपनी चीज तुमने ले ली। सोचकर तो देखे, अगर किसी डॉक्टर
की चिकित्सा से मेरी आँख खत्म हुई होती तो उससे मुझे क्या सांत्वना मिलती।
भवितव्यता यदि मिटती नहीं तो फिर मेरी आँख को तो कोई बचा ही नही सकता था, वह आँख
तुम्हारे हाथों गई हैं यही मेरे अंधे होने का एकमात्र आनन्द है। जब पूजा के फूल
कम पङ गए थे तब रामचन्द्र अपने दोनों नेत्र निकालकर देवता पर चढाने गए थे। अपने
देवता को मैंने अपनी नजर दे दी। अपनी पूर्णिमा की ज्योत्सना, अपने सुबह का
प्रकाश, अपने आकाश की नीलिमा, अपनी पृथ्वी की हरियाली, सब तुमको दे दी; तुम्हारी
आँखों को जब जो अच्छा लगे मुझे मुख से बताना, उसे मैं तुम्हारे नेत्रों से देखने
का प्रसाद मानकर ग्रहण करूँगी।”
मैं
उतनी बातें कह नहीं सकीं ऐसी बातें मुख से कही भी नही जा सकतीं; ये सब बातें तो
मैं काफी दिनों से सोच रही थी। बीच-बीच में जब अवसाद महसूस करती, निष्ठा का तेज
म्लान हो आता, अपने को वंचित दु:खित दुर्भाग्य-दग्ध महसूस करती, जब मैं अपने मन
से यह सब कहलवा लेती; इस शांति, इस भक्ति का अवलम्बन करके अपने कष्ट से भी अपने
को ऊँचा उठाने की चेष्टा करती, उस दिन कुछ कहकर कुछ खामोश रहकर कदाचित् अपने मन
को भाव किसी तरह उन्हें समझा सकी थी। वे बोले, “कुमू, मूढता से तुम्हारा जो खत्म किया
है, उसे अब लौटा तो नहीं सकूंगा, मगर जहाँ तक मुझसे हो सकेगा तुम्हारे नेत्रों की
कमी पूरी करने के लिए तुम्हारे साथ-साथ रहूँगा।”
मैंने
कहा, “यह व्यर्थ की बात हैं तुम अपनी गृहस्थी को एक अंधे का अस्पताल
बनाकर रखोगे, यह मैं किसी भी तरह नहीं होने दूंगी। तुमको दूसरी शादी करनी ही होगी।”
किसलिए
दूसरी शादी करनी नितांत आवश्यक है यह विस्तारपूर्वक बताने के पहले ही मेरा गला
जैसे कुछ भर गया। कुछ खाँसकर, कुछ संभलकर बोलने ही वाली थी कि इसी मध्य मेरे पति
उच्छवसित आवेग से बोल पङे, “मैं मूढ हूँ, अहंकारी हूँ, मगर ऐसा होते
हुए भी मैं पाखंडी नहीं हूँ। अपने हाथों से तुम्हे अंधा कर दिया है, आखिर में उसी
कमी के कारण तुम्हें छोङकर अगर अन्य स्त्री ग्रहण करूँ, तो अपने इष्टदेव
गोपीनाथ की कसम खाकर कहता हूँ, मैं ब्रह्म-हत्या, पितृ-हत्या के समान पाप का
भागी होऊँ।”
इतनी
बङी कसम नहीं देने देती बाधा डालती, किंतु उस समय ह्रदय फोङकर गला दबाकर दोनों
नेत्रों से आँसू उमङ पङने कोशिश में थे, उन्हें रोककर बात नहीं बता सकती थी। उन्होंने
जो कहा उसे सुनकर अपार सुख के उद्वेग से तकिए में मुँह गाङकर रो पङी। मैं अंधी हूँ,
तो भी वे मुझे नहीं छोङेगे। दु:खी के दु:ख के समान मुझे दिल से लगाकर रखेंगे। इतना
सौभाग्य मैं नहीं चाहती थी, मगर मन तो स्वार्थी होता है।
आखिर
में आँसुओं की पहली बौछार चुक जाने के पश्चात् उनके मुँह को अपने ह्रदय के पास
खींचकर कहा, “ऐसी भीषण शपथ क्यों ली? मैंने क्या तुमसे अपने सुख के लिए शादी करने
के लिए कहा था? सौ से मैं अपना स्वार्थ साधती। आँखों के मन होने से तुम्हारा जो
काम मैं खुद नहीं कर पाती वह उससे करवाती।”
पति
बोले, “काम तो सेविका से भी चल सकता है। काम की सुविधा के लिए दासी से शादी
करके उसे क्या मैं अपनी इस देवी के साथ एक आसन पर बैठा सकता हूँ?” यह कहकर मेरा मुख उठाकर उन्होंने मेरे
माथे पर एक निर्मल चुम्बन लिया, उस चुम्बन द्वारा मानो मेरा तीसरा नेत्र खुल गया
हो। उसी पल देवीत्व पद पर मेरा अभिषेक हो गया। मैंने मन-ही-मन कहा, “यही अच्छा है। अब मैं अंधी हो गई हूँ तो
मैं इस बर्हिसंसार की गृहिणी नही हो सकती, अब मैं दुनिया से ऊपर उठकर देवी होकर
पति का मंगल करूँगी। अब मिथ्या नहीं, छलना नहीं। गृहिणी रमणी की जो कुछ क्षुद्रता
तथा कपटता होती है सब दूर कर दी।
उस
रोज दिन-भर अपने साथ एक विरोध चलता रहा। गुरूतर शपथ से बाध्य होकर पति किसी भी
तरह दूसरा विवाह नहीं कर सकेंगे, यह आनंद जैसे मन को एकदम जकङे रहा, किसी तरह भी
उसे छुङा नहीं सकी। आज मेरे अन्दर जिन देवी का आविर्भाव हुआ था, उन्होंने कहा, “शायद ऐसा दिन आ सकता है जब इस कसम का पालन
करने की अपेक्षा विवाह करने से तुम्हारे पति का मंगल होगा, मगर मेरे भीतर जो
पुरातन नारी थी, उसने कहा, वह भले हो, लेकिन उन्होंने जब शपथ ली है तब दूसरी शादी
तो नही कर सकेंगे। देवी ने कहा, सब समझती हूँ, किंतु जब उन्होंने कसम ली है तब” इत्यादि। बार-बार वही एक बात। देवी ने
जब निरूतर होकर सिर्फ भौंहें तानीं ओर एक भयंकर आशंका के अंधकार से मेरा अंत:करण
आच्छन्न हो गया।
मेरे
अनुतप्त पति नौकर-चाकर-दासियों को इंकार करके स्वयं मेरा सब कार्य करने को तैयार
हुए। पति के ऊपर तुच्छ बातों के लिए भी इस तरह पूर्ण रूप से निर्भर रहना पहले तो
अच्छा ही लगता, क्योंकि इस प्रकार सब वक्त उनको अपने पास पाती । आँखों से उनको
देख नहीं पाती थी इसलिए उनके हमेशा पास बने रहने की आकांक्षा अत्यंत उग्र हो उठी।
पति के सुख का जो अंश मेरे नेत्रों के भाग में पङा था उसको अब अन्य इंद्रियों ने
बाँटकर अपना-अपना भाग बढा लेने की चेष्टा की। अब अपने पति के अधिक वक्त काम पर
बाहर रहने से लगता, जैसे मैं शून्य में हो गई, जैसे मैं कहीं भी कुछ पकङ न पा रही
हूँ, जैसे मेरा सब कुछ खो गया हो। पहले जब पति कॉलेज जाते तब दूर होने पर जंगले को
थोङा-सा खुला रखकर रास्ता देखती रहती। जिस संसार में वे घूमते उस संसार को
नेत्रों द्वारा मैंने अपने साथ बाँध रखा था। आज दृष्टिहीन मेरा सारा शरीर ढूंढने
की चेष्टा करता है। उनकी और मेरी दुनिया में मध्य एक दुस्तर अंधता थी, अब मुझे
निरूपाय होकर व्यग्र भाव में बैठे रहना पङता था, कब वे अपने किनारे से मेरे तट पर
स्वयं आकर उपस्थित होंगे। इसी कारण अब जब पल-भर के लिए भी वे मुझे छोङकर चले जाते
तब मेरी सारी अंधी देह लपककर उन्हें पकङने को दौङती, हाहाकार करके उन्हें पुकारती।
लेकिन
इतनी आकांक्षा, इतना निर्भर रहना तो अच्छा नहीं। पहले तो पति के ऊपर औरत का भार
ही पर्याप्त है, उसके ऊपर अंधेपन का भारी बोझ और नहीं लाद सकती। अपने इस विश्वव्यापी
अंधकार को मैं खुद ही वहन करूँगी। एकाग्र मन से मैंने प्रतिज्ञा की-अपनी इस अनंत
अधंता के द्वारा मैं पति को अपने साथ बाँधे नहीं रखूँगी।
थोङे
ही समय में सिर्फ शब्द-गंध-स्पर्श के द्वारा मैंने अपना सारा नित्य कार्य करना
सीख लिया। यहाँ तक की मैं अपना बहुत-सा घर का काम-काज पहले की अपेक्षा ज्यादा
निपुणतापूर्वक निर्वाह करने लगी। अब लगने लगा कि आँखें हमारे कार्य में जितनी
देखने से काम अच्छा होता है आँखें उससे कहीं अधिक देखती हैं-और आँखें जब पहरेदारी
करती हैं तो कान आलसी बन जाते हैं, उनको जितना सुनना चाहिए वे उससे कम ही सुनते
हैं। अब चंचल नेत्रों की अनुपस्थिति में मेरी अन्य् सभी इंद्रियाँ अपना कर्त्तव्य
शांत और सम्पूर्ण भाव से करने लगीं।
अब
मैं अपने पति को अपना कोई कार्य न करने देती, और उनका पूरा काम फिर पहले की ही
भाँति मैं करने लगी।
पति
ने मुझसे कहा, “प्रायश्चित से मुझे महरूम कर रही हो।”
मैंने
कहा, “तुम्हारा प्रायश्चित मैं नहीं जानती, मगर अपने पाप का बोझ मैं क्यों
बढाऊँ।”
जो
भी कहें, मैंने जब उन्हें छुट्टी दी तो उन्होंने राहत की सांस ली। अंधी औरत की
सेवा का आजीवन व्रत लेना पुरूषों का काम नही है।
डॉक्टरी
पास करके मेरे पति मुझे लेकर मुफस्सिल क्षेत्र में चले गए। गाँव में आकर ऐसा लगा,
जैसे माता की गोद में आ गई हूँ। आठ वर्ष की आयु में मैं गाँव छोङकर शहर आई थी। न
दस वर्षो में जन्मभूमि मेरे दिल में छाया के समान धुँधली हो चली थी। जब तक आँखें
थीं कलकत्ता शहर अन्य सारी यादों को ओट में किए मेरे चारों तरफ खङा था। आँखों के
जाते ही समझ में आया कि कलकत्ता केवल आँखें लुभाने वाला शहर है, उससे ह्रदय नहीं
भरता। दृष्टि खोते ही अपनी बाल्यावस्था का वह गाँव दिवसावसान के नक्षत्र-लोक की
तरह मेरे मन में उज्ज्वल हो उठा।
अगहन
के आखिरी दिनों में हम हाशिमपुर गए। नया स्थान था, चारों तरफ का दृश्य कैसा था
यह तो मैं न जान सकी; किंतु बाल्यकाल की उस महक और सुख की अनुभूति ने मुझे चारों
ओर से घेर लिया। ओस के भीगे नए जूते, खेतों से सुबह की वायु सुनहरे अरहर और सरसों
के खेतों की आकाश-व्यापी कोमल सुमिष्ट महक, चरवाहों के गीत, यही नहीं कच्ची डगर
में चले वाली बैलगाङी की ध्वनि तक ने मुझे पुलकित कर दिया। अपने जीवनारम्भ की अतीत यादों ने अपनी अनिर्वचनीय ध्वनि
और सुर्गध ने मुझे प्रत्यक्ष वर्तमान की तरह घेर लिया, अंधे नन उसका कोई
प्रतिवादन न कर सके। मैं अपने उसी बचपन में पहुँच गई, बस माँ नही मिली। मन-ही-मन
देखने लगी कि नानी अपने विरल केश-गुच्छों को बिखेरकर धूप की तरफ पीठ किए आँगन में
बङियाँ तोङ रही है, लेकिन उनके कोमल कंपित पुराने क्षीण स्वर में अपने गाँव के
साधु भजनदास के देह-तत्वपूर्ण गीतों को गुंजन-स्वर नहीं सुनाई पङा; नवान्न का
वह उत्सव सर्दियों की ओस से भीगे हुए आकाश के नीचे जागकर सजीव हो उठा, मगर
ढेंकीघर में नया धान कूटने वाले लोगों के मध्य अपनी छोटी-छोटी ग्रामीण संगिनियों
का मिलन कहाँ गया! संध्या समय कहीं निकट से ही गायों के रम्भाने की ध्वनि सुनाई
देती, तब याद आता कि माँ हाथ में शाम का दीप लेकर गोशाला में दीया दिखाने जा रही
हैं; उसी के साथ भीगी घास के चारे तथा पुआल जलाने की गंध मानो दिल में प्रवेश करती
और मैं सुन पाती मानो तालाब के तट विद्यालंकार जी के मंदिर से काँसे के घंटे
की ध्वनि आ रही हो। न जाने किसने मेरे
बचपन के आठ सालों में से उनका पूरा स्थूल भाग छानकर केवल उनका रस गंध-मात्र मेरे
चारों ओर एकत्र कर दिया था।
इसके
साथ ही मुझे अपने उस बचपन के व्रत और भोर-वेला में फूल चुनने और शिव-पूजा करने की
बात याद आई-यह मंजूर करना ही पङेगा कि कलकत्ता की वार्तालाप, चर्चा, चलने-फिरने के
शोर-गुल की वजह से बुद्धि में कुछ विकार आ ही जाता है। धर्म-कर्म भक्ति-श्रद्धा
में निर्मल सरला नहीं रहती। मुझे उस रोज की बात याद आ रही है जब अंधी होने के पश्चात्
कलकत्ता में मेरे गाँव की एक सखी ने आकर मुझसे कहा था, “कुमू, तुझे गुस्सा नहीं आता? मैं होती तो
ऐसे पति का मुख न देखती। मैंने कहा, बहन, मुँह देखन तो बंद ही है, उसके लिए तो इन
बेचारी अभागी आँखों पर आवेश आता है किंतु पति पर क्यों क्रोध करूँ। सही समय पर
डॉक्टर को न बुलाने के कारण लावण्य मेरे पति पर बहुत गुस्सा हुई थी। और मुझे
क्रोधित करने की कोशिश की थी। मैंने उसे समझाया, गृहस्थी में रहते इच्छा से,
अनिच्छा से ज्ञान-अज्ञान से, भूल-भ्रांति से, अनेक तरह के दु:ख में भी एक शांति
मिलती है। नहीं तो सिर्फ क्रोध रोष ईर्ष्या-द्वेष, बक-झक में ही जीवन कटता है। अंधी
हो गई हूँ यही बङा दु:ख है, जिस पर अब पति से विद्वेष करके दु:ख का भार क्यों
बढाऊँ।” मेरी जैसी बच्ची के मुँह से पुराने जमाने की-सी बातें सुनकर लावण्य
क्रोधित होकर अवज्ञापूर्वक सिर हिलाकर चली गई। किंतु जो भी हो, बात में जहर रहता
है, बातें एकदम व्यर्थ नहीं होतीं। लावण्य के मुँह से निकली रोष की बातें मेरे
ह्रदय में दो-एक स्फुलिंग छोङ गई थीं। मैंने उनके पैरों से कुचलकर बुझा दिया था;
मगर फिर भी दो-एक चिंगारी रह गई थीं। इसी से कह रही थी, कलकत्ता में अनेक झगङे
अनेक बातें हैं; वहाँ बुद्धि
देखते-देखते जल्दी ही पककर सख्त हो जाती है।
गाँव में आकर अपनी उसी शिव-आराधना के शीतल
शेफालिका-फूल की सुगंध से ह्रदय की सारी उम्मीद और विश्वास मेरी उस शैशवावस्था
की भॉति ही नवीन और उज्जवल हो उठे। भक्ति से मेरा मन और मेरी गृहस्थी परिपूर्ण
हो गई। मैं शीश झुकाकर भूमि पर लेट गई। बोली, “हे देव! मेरी आँखें गई, सही हुआ, तुम तो
मेरे हो।”
हाय! मैंने अनुचित कहा था। तुम मेरे हो,
यह कहना भी गुस्ताखी है। मैं तुम्हारी हूँ, सिर्फ इतना ही कहने का अधिकार है।
ओह! एक दिन गला भींचकर मेरा देवता मुझसे यही बात कहलवा लेगा। भले ही कुछ भी न रहे,
मगर मुझे रहना ही होगा। किसी के ऊपर कोई जोर नहीं; सिर्फ अपने ही ऊपर है।
कुछ दिन खूब सुख में बीते। डॉक्टरी से
मेरे पति की आय भी बढने लगी। हाथ में काफी रूपया भी आ गया।
लेकिन रूपया अच्छी चीज नहीं है। उससे मन
दब जाता है। जब मन शासन करता है तब वह अपना सुख खुद तैयार कर सकता है, किंतु धन जब
सुख-संचय का भार लेता है तब ह्रदय का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। तब पहले जहाँ दिल
का सुख था उस जगह को माल-असबाब को घटाटोप घेर लेता है। फिर सुख के बदले सिर्फ
सामग्री हाथ लगती है।
किसी खास बात या विशेष घटना का उल्लेख तो
नहीं कर सकती, लेकिन अंधे में अनुभव करने की शक्ति अधिक होती है इसलिए न जाने किस
कारण से समृद्धिपूर्ण स्थिति के साथ-साथ अपने पति के बदलाव को भी मैं अच्छी
प्रकार समझ रही थी। यौवनारम्भ में मेरे पति में न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म के
विषय में जो एक विवेक था वह मानो प्रतिदिन जङ होता जा रहा था। मुझे याद है, एक दिन
वे कहते थे, सिर्फ जीविका के लिए डॉक्टरी सीख रहा होऊँ ऐसा नहीं है, इसके द्वारा
अनेक गरीबों की मदद कर सकूंगा। जो डॉक्टर दरिद्र मुमूषु के द्वार पर जाकर अग्रिम
शुल्क लिए बिना नाङी नहीं देखना चाहते, उनकी बात करते समय घृणा से उनकी आवाज रूधं
जाती थी। मैं समझ रही थी कि अब वे दिन नहीं रहे। एकमात्र बेटे की प्राण-रक्षा के
लिए एक दरिद्र औरत ने उनके पांव पकङे, उन्होंने उनकी उपेक्षा की; अंत में मैंने
शीश की सौगंध दिलाकर उनको चिकित्सा करने के लिए भेजा, मगर उन्होंने मनोयोग से
काम नहीं किया। जब हमारे पास रूपया कम था तब जुल्म द्वारा कमाने को मेरे पति किन
आँखों से देखते थे यह में जानती हूँ। मगर अब बैंक में ढेरों रूपया जमा हो गया, इधर
एक धनी आदमी का कारिंदा आकर उनसे अकेले में दो दिन बहुत-सी बातें कह गया। क्या
बात की मैं कुछ भी नही जानती; लेकिन उसके बाद जब वे मेरे निक्ट आए, अत्यन्त
प्रफुलित होकर नाना विषयों पर नाना बातें कहीं, तब अपने अंत:करण की स्पर्श-शक्ति
से में जान गई कि वे आज कलकित होकर आए है।
अंधी होने के पहले मैंने आखिरी बार जिनको
देखा था वे पति के कहाँ है? जिन्होंने मेरे दृष्टिहीन नयनों को चूमकर मुझे एक दिन
देवी के पद पर अभिषिक्त किया था, मैं उनके किस काम आ सकी? अभी किसी दुश्मन की
आंधी से जिनका अकस्मात् पतन होता है वे किसी दूसरे ह्रदयावेग से फिर उठ सकते हैं,
लेकिन इस प्रकार प्रतिदिन, प्रतिपल हड्डियों के अन्दर तक कठिन होते जाना बाहर से
बढते हुए ह्रदय को तिल-तिल करके दबा डालना इसका प्रतिकार सोचने बैठती तो कोई मार्ग
न मिलता।
पति को साक्षात् देखने में जो विच्छेद हो
गया था वह तो कुछ न था, लेकिन जब ख्याल आता कि मैं जहाँ हूँ वे वहाँ नहीं हैं तो
मेरी छाती फटने लगती, मैं अंधी थी, जगत के आलोक के शून्य अपने अंतर-प्रदेश में
मैं अपनी यौवनवस्था का नया प्रेम, अक्षुण्ण भक्ति अखण्ड यकीन लिए बैठी थी-जीवन
के आरम्भ में मैंने अपने देव-मंदिर में अपने बच्चे के हाथों की अंजलि से जिन
शेफालिका-पुष्पों का अर्ध्यदान किया था उनके ओस-बिंदु अभी तक सूखे नहीं थे। और मेरे
पति इस छाया-शीतल चिरनवीन देश को छोङकर रूपया कमाने के पिछे जगत की मरूभूमि में न
जाने कहाँ गायब होते चले जा रहे हैं! मैं जिसमें यकीन करती हूँ, जिसको धर्म कहती
हूँ, जिसको सब सुख-सम्पति से ज्यादा समझती हूँ, उस पर वे हँसकर बङी दूर से
कटाक्ष करते हैं। मगर एक दिन था जब वह विच्छेद नहीं था। यौवन के आरम्भ में हमने
एक ही पथ यात्रा आरम्भ की थी; उसके बाद कब पथ भिन्न होने लग गए यह न तो वे जान
सके, न मैं जान सकी; आखिर में आज मैं उन्हें पुकारने पर जवाब भी नहीं दे पाती।
कभी-कभी सोचती हूँ, शायद अंधी होने की वजह
से साधारण बात को मैं बढा-चढाकर देखती हूँ। आँखें रहतीं तो शायद मुझे जगत बिल्कुल
जगत जैसा ही लगता।
मेरे पति ने भी मुझे एक रोज यही समझाकर
कहा। उस दिन एक वृद्ध मुसलमान अपनी पौत्री के हैजे की चिकित्सा के लिए उनको
बुलाने आया था। मैंने सुना-उसने कहा, “मैं गरीब हूँ, लेकिन अल्लाह तुम्हारा
भला करेंगे।” मेरे पति ने कहा, “अल्लाह जो करेंगे केवल उसी से तो मेरा
कार्य नहीं चलेगा, तुम क्या करोगे पहले वह सुनूं।”
सुनते ही सोचा, “ईश्वर ने मुझे अंधा किया, मगर बधिर क्यों
नहीं किया।” बूढा गहरे दीर्घ नि:श्वास के साथ ‘हे अल्लाह’ कहकर चला गया। तत्क्षण
मैंने नौकरानी द्वारा उसे अंत:पुर की खिङकी के द्वार पर बुलवाया और कहा, “बाबा, तुम्हारी निवासी के लिए डॉक्टर का
कुछ खर्च दे रही हूँ, तुम मेरे पति के लिए मंगल-कामना करते हुए मुहल्ले से हरीश
डॉक्टर को बुला ले जाओ।”
लेकिन दिन-भर मुझे भोजन अच्छा नहीं लगा।
अपराह्र में नींद से जगकर पति ने कहा, “तुम पीङित क्यों दिख रही हो?” पहले का अभ्यस्त जवाब मुँह में आ रहा
था-“नहीं कुछ नहीं हुआ;” किंतु कपट करने का वक्त बीत गया, मैंने
स्पष्ट रूप से कहा, “कितने दिन से तुमसे कहने की सोच रही थी,
लेकिन कहने को तैयार होने पर समझ नहीं पाती, कि क्या कहना हैं। मैं नहीं जानती
अपने दिल की बात समझाकर कह सकूंगी या नहीं, लेकिन तुम मन-ही-मन अवश्य समझ सकते हो
कि हम दोनों ने जिस तरह एक होकर जीवन आरम्भ किया था आज वह पृथक हो गया है।
रूपया-पैसा रूप-यौवन सभी में परिवर्तन होता है, किंतु क्या नित्य वस्तु कुछ भी
नहीं है। तब उन्होंने कुछ गम्भीर होकर कहा, देखो, अन्य औरतें वास्तविक अभाव को
लेकर दु:खी होती हैं-किसी का पति कमाता नहीं है, किसी का पति प्यार नहीं करता है,
तुम काल्पनिक दु:ख की सृष्टि कर रही हो।” मैं तभी जान गई, “अंधेपन ने मेरे नेत्रों में एक अंजन लगाकर
मुझे इस परिवर्तनशील जगत के बाहर कर दिया है; मैं दूसरी औरतों के समान नहीं हूँ,
मेरे पति मुझे नहीं समझ पाएँगे।”
इसी मध्य मेरी एक फुफेरी सास गाँव से
अपने भतीजे का समाचार जानने आईं। हम दोनों ने उनको नमस्कार करके उठते ही उन्होंने
पहले वाक्य में ही कहा, “सुनो, बहूरानी, तुम तो बदकिस्मती से
आँखें खो बैठी हो, अब अपना अविनाश अंधी स्त्री के सहारे घर-गृहस्थी कैसे चलाएगा।
इसकी दूसरी शादी करा दो!” पति यदि मजाक करके कहते, “ठीक तो है बुआ, तुम देखकर-सुनकर एक सम्बंध
सही कर दो न” – तो सब साफ हो जाता। लेकिन उन्होंने बुझे स्वर में कहा, “वाह बुआ, यह क्या कह रही हो!” बुआ ने जवाब दिया, “क्यों, कुछ अनुचित कह रही हूँ क्या? अच्छा
बहूरानी, तुम्हीं बताओ तो पुत्र।” मैंने हँसकर कहा, “वाह बुआ तुम भी किससे सलाह माँग रही हो।
भला किसकी गांठ काटनी होती है क्या उससे कोई सम्मति लेता है।”
बुआ ने जवाब दिया,
हाँ बात तो ठीक है, तो फिर तेरे साथ मैं अकेले में करूँगी, क्या राय है अविनाश!
यह तो बता दूं बहूरानी, कुलीन घर की कन्या की जितनी ज्यादा सौतें होती हैं, उसके
पति का गौरव उतना ही बढता है। मेरा लङका डॉक्टरी न करके अगर विवाह करता, तो इसको
रोजगार की क्या चिंता थी? मरीज तो डॉक्टर के हाथों पङते ही मर जाता है, मर जानो
पर तो फिर और विजिट-फी नहीं देता, किंतु विधाता के शाप के कुलीन की स्त्री कभी
नहींमरती तथा जब तक जीती है तब तक पति को लाभ-ही-लाभ है।”
दो दिन पश्चात् मेरे पति ने मेरे ही
सामने बुआ से पूछा, “बुआ, आत्मीय के समान बहू की मदद कर सके
ऐसी किसी भले घर की लङकी ढूंढ दे सकती हो? ये तो आँखों से देख नहीं पाती, यदि एक
कोई ऐसी होती जो हमेशा इनके साथ रह सकती तो मैं निश्चित हो जाता।”
जब में अंधी हुई थी,
अगर तब यह बात कहते तो खप जाती, लेकिन अब आँखों के अभाव में मुझे या घर-गृहस्थी
में क्या खास असुविधा होती है नहीं जानती; किंतु प्रतिवाद न करके मैं खामोश रह
गई। बुआ ने कहा, “कमी क्या है। मेरे जेठ की ही बेटी है, जैसी सुन्दर है वैसी ही लक्ष्मी
हें लङकी की उम्र भी हो गई हे, बस सही वर की आशा मैं प्रतीक्षाकर रहे हैं; तुम्हारे
जैसे कुलीन मिलं तो अभी शादी कर दें।” पति ने चकित होकर कहा, “शादी की बात कोन कर रहा है?” बुआ बोलीं, “मैया री, शादी किए बिना भले घर की लङकी क्या
तुम्हारे घर में यों ही पङी रहेगी!” बात संगत जरूर थी और पति उसका कोई सही
उत्तर न दे सके।
अपनी बंद आँखों के अनंत अंधकार में मैं
अकेली खङी होकर ऊपर को मुख करके पुकारने लगी, “भगवान! मेरे पति की रक्षा करो।”
उसके कुछ दिन पश्चात् एक दिन सवेरे मेरे
नियमित पूजा करके बाहर आते ही बुआ ने बताया, “बहुरानी, मैंने अपने जेठ की जिस लङकी की
बात कही थी वह हेमांगिनी आज घर में आ गई है। हिमू, ये तुम्हारी दीदी हैं, इनको
नमस्कार करो।”
इसी वक्त सहसा मेरे पति आकर मानो अपरिचित
स्त्री को देखकर लौट पङने को उद्यत हुए। बुआ ने बताया, “कहाँ चले अविनाश?” पति ने सवाल किया, “ये कौन हैं?” बुआ ने कहा, “यह मेरे जेठ की वही लङकी हेमांगिनी है।”
इसको कब बुलाया? कौन
लाया? क्या खबर है? आदि को लेकर मेरे पति बारम्बार काफी गैरजरूरी विस्मय प्रकट
करने लगे।
मैंने मन-ही-मन कहा, “जो हो रहा है वह सब समझ रही हूँ, लेकिन
इसके ऊपर छलना भी शुरू हो गई। चोरी-चोरी, आँख-मिचौरी, मिथ्या बातें! अधर्म करना
हो तो करो, अपनी अशांत प्रवृति के लिए, मगर मेरे लिए क्यों नीचता की जाए। मुझे
बहकाने के लिए मिथ्याचरण क्यों हो।”
हेमांगिनी का हाथ पकङकर मैं इसको अपने
बेडरूम में ले गई। उसकी देह-मुँह पर हाथ फेरकर लगा, चेहरा सुंदर होगा, अवस्था भी
चौदह-पंद्रह साल से कम न होगी।
बच्ची अकस्मात् मधुर उच्च स्वर में
हँस पङी। कहा, “यह क्या कर रही हो? मेरा भूत उतार रही हो क्या?”
उस उन्मुक्त सरल हास्य-ध्वनि से मेरे
दिल के काले बादल जैसे पल-भर में हट गए। मैंने अपना दाहिना हाथ उसके गले में डालकर
कहा, “मैं तुमको देख रही हूँ, बहन,” यह कहते हुए वह फिर हँसने लगी। और बोली, “मैं क्या तुम्हारे बगीचे कीसेम अथवा
बैंगन हूँ, जो हाथ फेरकर देख रही हो कि कितनी बङी हो गई हूँ?”
उस वक्त मुझे सहसा लगा, मैं अंधी हूँ।”
;यह सुनकर वह कुछ
देर तक हैरत में पङी गम्भीर बनी रही। मैं अच्छी तरह समझ रही थी कि अपने उत्सुक
तरूण विशाल नयनों से उसने मेरे दृष्टिही चक्षु और मुँह के भाव को ध्यान से देखा;
उसके पश्चात् कहा, “ओह! इसी से काकी को यहाँ बुलवाया है?”
मैंने बताया, “नहीं, मैंने नहीं बुलाया। तुम्हारी काकी
अपने आप आई हैं।” बच्ची फिर हँस पङी बोली, “मेहरबानी करके, तब तो दयामयी शीघ्र हिलने
वाली नहीं! मगर पिता ने मुझे यहाँ क्यों भेजा?”
इसी समय बुआ ने कमरे में प्रवेश किया।
इतनी देर से मेरे पति के साथ उनकी वार्तालाप चल रही थी। कमरे में आते ही हेमांगिनी
ने कहा, “काकी बोलो, हम घर कब तक लौटेंगे?”
बुआ ने कहा, “मैया री आते ही जाऊँ-जाऊँ करने लगी। ऐसी
चंचल
लङकी मैंने कभी नहीं देखी।”
हेमांगिनी
ने कहा, “काकी, यहाँ से जल्दी हिलने का तो कोई लक्षण दिखाई नहीं देता। खैर,
तुम्हारा तो यह अपना ही घर ठहरा, तुम जितने दिन चाहो रहो, लेकिन मैं चली जाऊँगी,
यह तुमसे कहे देती हूँ। कहकर मेरा हाथ पकङकर बोली, “क्या कहती हो बहन, तुम तो मेरी बिल्कुल
सगी नहीं हो!” उनके इस सरल सवाल का कोई उत्तर न देकर उसे छाती से चिपका लिया। देखा,
बुआ कितनी भी प्रबल क्यों न हो, इस कन्या को सम्भालना उनके वश की की बात न थी।
बुआ ने प्रकट रूप से गुस्सा न दिखाकर हेमांगिनी को तनिक दुलार करने की कोशिश की,
पर उसने मानो उसे शरीर से झाङकर फेंक दिया। बुआ ने समस्त प्रसंग को लाङली के
परिहास की तरह उङा दिया और हँसकर चली जाने को उद्यत हुई। फिर न जाने क्या सोचकर
लौटकर हेमांगिनी से कहा, “हिमू, चल तेरे स्नान का वक्त हो गया।”
उसने मेरे समीप आकर
कहा, “हम दोनों घाट पर चलें। क्या कहती हो बहन!” अनिच्छा होते हुए भी बुआ ने छूट दे दी;
वे ये जानती थीं, खींच-तान करने पर हेमांगिनी की ही जीत होगी तथा बीच का विरोध मेरे
सामने अशोभन तरीके से प्रकट हो जाएगा।
पिछवाङे
के घाट पर जो हुए हेमांगिनी ने मुझसे पूछा, “तुम्हारे बाल-बच्चे क्यों नहीं हैं?” मैंन कुछ हँसकर बताया, “क्यों, क्या जानूं, भगवान ने दिए ही
नहीं।” हेमांगिनी ने कहा, “अवश्य तुम्हारे भीतर कुछ पाप था।”
मैंने कहा, “देखो न, काकी में इतनी कुटिलता है कि उनके
गर्भ से औलाद का जन्म नहीं हो सकता। मैं पाप-पुण्य, सुख-दु:ख, दंड-पुरस्कार का
रहस्य खुद भी नही समझती, बालिका को भी नहीं समझाया; केवल एक दीर्घ सांस लेकर
दिल-ही-दिल में उसने कहा, ‘तुम्हीं जानो!’ हेमांगिनी लत्क्षण मुझसे लिपटकर हँसते
हुए बोली, “मेंरा री, मेरी बात पर भी तुम ठंडी सांस भरती हो! भला मेरी बात सुनता
ही कौन है!”
देखा,
पति की डॉक्टरी में विध्न पङने लगी। दूर का बुलावा आने पर तो जाते ही न थे, कहीं
निकट जाने पर भी चट-चट काम पूरा करके चले आते। पहले जब कार्य के समय घर पर रहते थे
तो बस दोपहर के भोजन और सोने के वक्त के भीतर आते। अब बुआ भी जब-जब बुलवा लेतीं,
वे भी गैरजरूरी रूप से बुआ की खबर लेने आते। बुआ अब अक्सर देखती, कहतीं, “हिमू, मेरा पानदान तो लाओ।”
मैं समझ जाती कि बुआ
के कमरे में मेरे पति आए हुए हैं। पहले-पहल दो-तीन दिन तो हेमांगिनी पानदान, तेल
की कटोरी, सिंदूर का डब्बा वगैरह आदेशानुसार ले गई। मगर उसके बाद पुकारे जाने पर
वह किसी भी तरह न हिलती। मंगाई गई वस्तुएँ नौकरानी के हाथों भिजवा देती। बुआ
बुलाती, “हेमांगिनी, हिमू, हिमि-!” बालिका जैसे मेरे प्रति करूणा के आवेश की
वजह से मुझसे लिपटी रहती; एक आशंका तथा विषाद उसको ढके रहते। इसके पश्चात् वह
भूलकर भी मुझसे मेरे पति की बात न छेङती।
इसी
मय मेरे भैया मुझे देखने आए। मैं जानती थी कि भैया की दृष्टि तीक्ष्ण है। मामला
कैसा चल रहा है, यह उनसे छिपाना मुश्किल ही होगा। मेरे भैया बङे कठोर विचारक थे।
वे लेशमात्र जुल्म को भी क्षमा करना नहीं जानते थे। मेरे पति उन्हीं की आँखों के
समुख कहीं अपराधी बनकर न खङे हो जाएँ, मुझे इसी का सबसे ज्यादा भय था। मैंने अस्वाभाविक
खुशी दिखाकर सारी स्थिति छिपा ली। मैंने बातें कहकर, अत्यंत व्यस्तता दिखाकर,
बङी धूम-धाम से मानो चारों ओरधूल उङाने की कोशिश की, किंतु वह मेरे लिए इतना अस्वाभाविक
था कि वही और भी ज्यादा पकङे जाने का कारण सिद्ध हुआ; किंतु भैया बहुत दिन तक नही
रह सके, मेरे पति ऐसी अस्थिरता दिखाने लगे कि उसने प्रत्यक्ष रूखेपन का रूप धारण
कर लिया। भैया चले गए विदा लेने के पहले पूर्ण स्नेह के साथ मेरे सिर पर काफी देर
तक कौंपता हुआ हाथ रखे, दिल-ही-दिल में एकाग्रचित से क्या आर्शीवाद दिया यह मैं
जान गई; उनके आँसू मेरे आँसूओं से भीगे कपोलों पर आ पङे।
मुझे याद है, उस दिन चैत के महीने में संध्या-समय हाट के दिन लोग घर
लौट रहे थे। दूर से बारिश लिए एक आंधी आ रही थी उसी की भीगी मिट्टी की सुगंध और
वायु की आर्द्रता में व्याप्त हो गई थी। बिछुङे हुए साथी अंधकारपूर्ण मैदान में
बेचैन होकर ऊँची आवाज में एक-दूसरे को पुकर रहे थे। जब तक मैं अकेली ही रहती तब तक
मुझे अंधी के शयन-गृह में चिराग नही जलाया जाता था कि कहीं लौ से धरती में आग न लग
जाए या कोई दुर्घटना न हो जाए। मैं उसी निर्जन अंधेरे कमरे में धरती पर बैठ हाथ
जोङे अपने अनंत अंधकारपूर्ण संसार के जगदीश्वर को टेर रही थी; कह रही थी; “प्रभु, जब मैं तुम्हारी दया का अनुभव नही
कर पाती तुम्हारा मतलब जब मैं नहीं समझ पाती, तब इस अनाथ भग्न-मन की नौक के हाल
को मैं प्राणपण के हाथों से पकङकर सीने से चिपटाए रखती हूँ, ह्रदय से खून निकलने
लग जाता है पर फिर भी तूफान सम्भाल नही पाती; अब मेरी और कितनी परीक्षा लोगे; मेरी
ताकत है ही कितनी!” यह कहते-कहते आँसू उमङ पङे, चारपाई पर सिर रखकर रोने लगी। दिन-भर घर
का काम करना पङता है। हेमांगिनी छाया के समान साथ-साथ रहती, मन मे जो आंसू उमङते
उन्हें बहाने का मौका न मिलता; बहुत दिन पश्चात् आज नेत्रों से पानी निकला था,
तभी देखा, खाट कुछ हिली, किसी के चलने की आहट हुई और पल-भर में हेमांगिनी आकर मेरे
गले से लिपटकर अपने अंचल से खामोशी से मेरी आँखों पोंछने लगी। वह न जाने क्या
सोचकर कब शाम होते ही खाट पर आकर सो गई थी, न तो उसने कोई सवाल किया, न मैंने ही
उससे कोई बात की। वह धीरे-धीरे अपना शीतल हाथ मेरे माथे पर फेरने लगी। इसी मध्य कब
मेघगर्जन और मूसलाधार बारिश के साथ-साथ आंधी आ गई मैं जान भी न पार्इ्र; बहुत
दिनों के पश्चात् एक सुस्निग्ध शांति ने आकर मेरा ज्वर-दाह-दग्ध दिल ठंड कर
दिया।
दूसरे
दिन हेमांगिनी ने कहा, “काकी, अगर तुम नहीं चलतीं तो मैं अपने
कैवर्त दादा के साथ चली जाऊँगी, यह बोल देती हूँ।”
बुआ ने कहा, “इसकी क्या आवश्यकता है, कल मैं भी चलूंगी;
एक साथ चलेंगे। यह देख, हिमू, मेरे अविनाश ने तेरे लिए कैसी मोती-जङी हुई अंगूठी
खरीदी है।” यह कहकर गर्वपूर्वक बुआ ने हेमांगिनी के हाथ में अंगूठी पहना दी।
हेमांगिनी बोली, “यह देखो काकी, मैं कितना अच्छा निशाना लगा सकती हूँ।”
और यह कहते हुए उसने
जंगले में से निशाना लगाकर अंगूठी पिछवाङे के तालाब में फेंक दी। बुआ क्रोध, दु:ख,
विस्मय से रोमांचित हो उठीं। मेरा हाथ पकङकर बार-बार मुझसे कहा,” बहूरानी, खबरदार, यह नादानी अविनाश को मत
बताना, मेरे लङके को इससे दिल में दु:ख होगा। तुम्हें मेरे सिर की सौगंध है, बहू!” मैंने कहा, “बुआजी, ज्यादा कहने की आवश्यकता नहीं,
मैं बात नहीं कहूँगी।”
दूसरे
रोज चलने से पहले हेमांगिनी ने मुझसे लिपटकर कहा, “दीदी, मुझे याद रखना!” मैंने दोनों हाथ बार-बार उसके मुख पर
फेरते हुए कहा, “अंधा कुछ भी नहीं भूलता, बहन; मेरे लिए तो संसार है ही नहीं, मैं तो
बस दिल के सहारे ही रहती हूँ।” यह कहकर मैंने उसका सिर थामकर एक बार
सूंघकर चुंबन लिया। टप-टप करके उसकी केश-राशि में मेरे आँसू टपक पङे।
हेमांगिनी
के विदा होने पर मेरी दुनिया नीरस हो गयी-उसने मेरे प्राणों में जो महक, सौंदर्य,
संगीत जो उज्जवल प्रकाश और जो कोमल तरूणता ला दी थी, उनके चले जाने पर एक बार
अपने सारे जगत को अपने चारों तरफ हाथ फैलाकर देखा, मेरा कहाँ क्या है! मेरे पति
ने आकर विशेष खुशी दिखाते हुये कहा, “ये लोग चली गई, अब छुट्टी मिली, कुछ
काम-काम करने का मौका मिलेगा।” मुझे धिक्कार है। मेरे लिए इतनी चतुराई
क्यों? मैं क्या सच्चार्इ से डरती हूँ? मैं क्या आघात से कभी डरती हूँ? मेरे
पति क्या नहीं जानते कि जब मैंने दोनों नेत्र दिए थे तब मैंने शांत ह्रदय से अपने
लिए चिरांधकार मंजूर किया था!
इतने
दिन मेरे और मेरे पति के बीच सिर्फ अंधेपन का व्यवधान था, आज से एक व्यवधान और
उत्पन्न हो गया। मेरे पति भूलकर भी कभी मेरे सामने हेमांगिनी का नाम न लेते,
जैसे उनसे सम्बन्धित जगत से हेमांगिनी बिल्कुल गायब हो गई हो, जैसे वहाँ उसने
कभी कोई लेशमात्र भी न छोङा हो। किंतु पत्र द्वारा वे सदैव उसकी खबर पाते थे, यह
मैं अनायास ही अनुभव करती थी। जिस तरह तालाब में बाढ का जल जिस रोज थोङा-सा भी आता
है, उसी रोज कमल के डंठल में तनाव आ जाता है, उसी तरह उनके अन्दर जिस दिन जरा भी
प्रफुल्लता का संचार होता उस दिन मैं अपने ह्रदय के मूल से खुद अनुभव कर लेती थी।
कब वे खबर पाते और कब न पाते यह मेरे लिए कुछ भी अगोचर न था। लेकिन मैं भी उनसे
उसका हाल पूछ सकती थी। पल-भर के लिए उदय हुआ था उसकी कोई खबर पाने और उसकी
वार्तालाप करने के लिए मेरे प्राण तृषित रहते थे, किंतु पति के सामने मुझे एक क्षण
को भी उसका नाम लेने का हक न था। हम दोनों के बीच बोली और वेदना से पूर्ण यह
नीरवता अटल भाव से विजयी रहती।
वैशाख
महीने के मध्य में एक रोज नौकरानी ने आकर मुझसे सवाल किया, “माँ जी, घाट पर बङे समारोह से नौकाएँ तैर
रही हैं, बाबूजी कहाँ जा रहे हैं?” मैं जानती थी कि कुछ उद्योग चल रहा है,
मेरे भाग्याकाश में पहले कुछ दिन तक तो आंधी के पहले की-सी निस्तब्धता और उसके
बाद प्रलय के बिखरे मेघ आकर इकट्ठे हो रहे थे, संहारकारी शंकर नीरव अंगुली के
इंगित से अपनी सभी प्रलय-शक्ति मेरे सिर पर इकट्ठा कर रहे थे, यह मैं समझ रही थी।
नौकरानी, “कहीं, मुझे तो अभी तक कोई नहीं मिला।”
नौकरानी और कोई सवाल
पूछने का साहस न करके गहरी सांस लेकर चल गई।
बहुत
रोज गए मेरे पति ने आकर बताया, “दूर एक जगह से मेरा बुलाया आया है, कल
प्रात: ही मुझे रवाना होना है। शायद लौटने में दो-तीन दिन की देर हो सकती है।”
चारपाई से उठते हुए खङे होकर मैं बोली, “क्यों मुझसे झूठबोल रहे हो?” मेरे पति ने कंपित अस्पष्ट स्वर में
बताया, “क्या झूठ बोला?”
मैंने कहा, “तुम शादी करने जा रहे हो।”
वे खमोश रह गए। मैं भी स्थिर खङी रही।
बहुत देर तक कमरे में सन्नाटा छाया रहा। आखिर में मैंने कहा, “कुछ तो उत्तर दो! कहो, हाँ, मैं शादी करने
जा रहा हूँ।”
प्रतिध्वनि के समान उन्होंने जवाब दिया,
“हाँ मैं शादी करने जा रहा हूँ।”
मैंने कहा, “नहीं तुम नहीं जा सकते। इस महाविपद् से
मैं तुमको बचाऊँगी। अगर मैं यह नहीं कर सकती तब तुम्हारी पत्नी कैसी, किस कारण
मैंने शिव की पूजा की थी!”
काफी
देर तक कमरा नि:शब्द बना रहा। मैंने जमीन पर लेटकर पति के पैर पकङकर कहा, “मैंने तुम्हारा क्या जुर्म किया है,
मुझसे कौन-सी भूल हुई है, दूसरी औरत की क्या जरूरत है, तुम्हें मेरे सिर की
सौगंध है, सच-सच कहो?”
तब
मेरे पति ने धीरे-धीरे बताया, “सच ही कहता हूँ, मैं तुमसे डरता हूँ। तुम्हारे
अंधेपन ने तुमको एक अनन्त आवरण में आवृत कर रखा है, वहाँ प्रवेश करने की मुझमें
ताकत नहीं है। तुम मेरी देवता हो, तुम मेरे लिए देवता के समान भयानक हो, तुमको
लेकर रोजाना के गृह-कार्य नहीं कर सकता। जिसके साथ बक-झक कर सकूं, गुस्सा कर
सकूं, जिसे आभूषण बनवा दूं, ऐसी एक सामान्य रमणी चाहता हूँ।”
“मेरे दिल को चीरकर देखो! मैं सामान्य
रमणी हूँ, मैं मन में उस नवविवाहिता बालिका के अलावा और कुछ नहीं हूँ मैं विश्वास
करना चाहती हूँ, निर्भर रहना चाहती हूँ, आराधना करना चाहती हूँ, तुम अपना अपमान
करके मूझे दु:सह पीङा देकर मुझे अपने से बङा मत बनाओ-मुझे सब बातों में अपने चरणों
में स्थान दो।”
मैंने
क्या-क्या बातें कही थीं, वह क्या मुझे याद हैं। क्षुब्ध समुद्र क्या अपना
गर्जन खुद सुन पाता है? केवल याद है, कहा था, “यदि मैं सती होऊँ तो भगवान् साक्षी हैं,
तुम किसी भी तरह अपनी धर्म-शपथ का उल्लंघन नहीं कर पाओगे। उस महापाप के पहले या
तो मैं विधवाहो जाऊँगी, या फिर हेमांगिनी जीवित नहीं रहेगी।”
यह कहती हुई मैं
बेहोश होकर गिर पङी।
जब
मेरी पूर्छा भंग हुई तब रात के आखिरी प्रहर में बोलने वाले पक्षियों ने बोलना आरम्भ
किया था और मेरे पति चले गए थे।
मैं
पूजा करने का द्वार बंद करके पूजा करने बैठ गई। दिन-भर मैं घर से बाहर न निकली।
शाम के समय कालवैशाखी आंधी से दलान काँपने लगा। मैंने यह नहीं कहा कि हे ईश्वर!
मेरे पति इस यम नदी में हैं उनकी सुरक्षा करो। मैं एकाग्र मन से केवल यह कहने लगी,
“प्रभु, मेरे भाग्य में जो लिखा है, वह
हो, लेकिन मेरे पति को महापाप से बचाओ।” सारी रात गुजर गई। उसके दूसरे दिन भी
मैंने आसन नहीं छोङा। इस अनिद्रित निराहार हालत में नहीं जानती किसने मुझे बल दिया
था कि मैं पाषाण-मूर्ति के सम्मुख पाषाण-मूर्ति के समान बैठी रही।
शाम
के समय बाहर के दरवाजे पर धक्के पङने लगे। दरवाजा तोङकर जब घर में किसी ने प्रवेश
किया तब मैं बेहोश हुई पङी थी।
मूर्छा
भंग होने पर सुना, “दीदी!” देखा, हेमांगिनी की गोद में लेटी हुई
हूँ। सिर हिलाते ही उसकी नई चेली की सरसराहट सुनाई पङी। हे प्रभु! तुमने मेरी
विनती नहीं सुनी। मेरे पति का पतन हो गया।
हेमांगिनी
ने सिर झुकाकर आहिस्ता से कहा, “दीदी, तुम्हारा आशीर्वाद लेने आई हूँ।”
पहले
एक पल काठ के समान होकर दूसरे ही क्षण उठ बैठी, बोली, “आशीर्वाद क्यों नहीं दूंगी, बहन! तुम्हारा
क्या जुर्म है।”
हेमांगिनी
अपने सुमधुर ऊँची आवाज में हँस पङी। कहा, “जुर्म! तुम्हारे शादी करने पर तो जुर्म
नहीं हुआ और मेरे करने पर जुर्म है।”
हेमांगिनी
का आलिंगन करके मैं भी हँसी। मन-ही-मन बोली, “दुनिया में क्या मेरी प्रार्थना की सबसे
बढकर थी? उनकी इच्छा ही क्या आखिरी नहीं थी? जो आघात पङा है वह मेरे सिर पर पङे,
किंतु ह्रदय पर, जहाँ मेरा धर्म है, मेरा यकीन है, वहाँ नहीं पङने दुंगी। मैं जैसी
थी, वैसी ही रहूँगी।” हेमांगिनी ने मेरे पावों में पङकर मेरे
पैरों की धूल ली। मैंने बताया, “तुम चिरसौभाग्यवती, चिरमुखी हो।”
हेमांगिनी
ने कहा, “सिर्फ आशीर्वाद नहीं, तुम्हें सतीके हाथों मुझे तथा अपने बहनोई को
वरण कर लेना होगा। तुम उनसे शर्माओ, यह नहीं होगा। अगर अनुमति दो तो उन्हें अन्दर
ले जाऊँ?”
मैंने
कहा, “ले आओ।”
कुछ
देर पश्चात् मेरे कमरे में नई पग-ध्वनि ने प्रवेश किया। सस्नेह पूछा गया सवाल
सुना। “अच्छी है, कुमू?”
चींककर
बिछौना छोङकर उठते हुए मैं बोली, “भैया!”
हेमांगिनी
ने कहा, “भैया किस प्रकार? कान मल दो, वह तुम्हारा छोटा बहनोई है।”
तब
मैं सब कुछ जान गई। मैं जानती थी कि भैया की प्रतिज्ञा थी कि शादी नहीं करेंगे;
माँ नहीं थीं, उनसे अनुरोध करके विवाह कराने वाला कोई न था। अब मैंने ही उनकी शादी
करायी। आँखों से पानी उमङकर बहने लगा, किसी भी प्रकार न रोक सकी। भैया धीरे-धीरे
मेरे सिर पर हाथ फेरने लगे; हेमांगिनी मुझसे लिपटकर सिर्फ हँसने लगी।
रात्रि
में नींद आई; मैं उत्कंठित चित्त से पति के आने की प्रतीक्षा कर रही थी।
लज्जा
और नैराश्य का वे किस तरह निर्वाह करेंगे,यह मैं समझ नहीं पा रही थी।
काफी
रात गुजर जाने पर बहुत धीरे-धीरे दरवाजा खुला। मैं चौंककर बिछौने पर बैठ गई। मेरे
पति के पांवों की आहट थी। ह्रदय जोर से धङकने लगा।
बिछौने
पर आकर मेरा हाथ पकङकर उन्होंने बताया, “तुम्हारे भैया ने मुझे बचा लिया। जरा से
मोह मे पकङकर मैं मरने जा रहा था। उस दिन जब मैं नौका पर चढा, मेरे दिल पर जैसे
कोई भारी पत्थर रखा था, इसे अंतर्यामी ही जानते हैं; जब नदी के अन्दर आंधी मे पङ
गया था, तब प्राणों का डर भी था, उस समय सोच रहा था, यदि डूब जाऊँ तो भी मेरा
उद्धार हो सकता है। संसार मथुरागंज पहुँचकर सुना की उसके पहले दिन ही तुम्हारे भैया
के साथ हेमांगिनी की शादी हो चुकी है। कैसी शर्म और किस आनंद से नौका में लौटा, यह
नहीं कह सकता। इन कई दिनों मे अच्छी प्रकार समझ गया हूँ, तुम्हें छोङकर मेरे
लिये कोई आनंद नहीं है। तुम्हीं मेरी देवी हो।”
मैंने
हँसकर बताया, “नहीं, देवी बनने की आवश्यकता नहीं है, मैं तुम्हारे घर की गृहिणी
हूँ, मैं केवल साधारण नारी-मात्र हूँ।”
पति
बोला, “मेरा भी एक अनुरोध तुमको मानना पङेगा। मुझे देवता कहकर कभी शर्मिन्दा
मत करना।”
दूसरे रोज
हुलू-ध्वनि और शंख-ध्वनि से मुहल्ला गूंज उठा। हेमांगिनी मेरे पति से भोजन
करते, उठते-बैठते, सुबह को रात को, नाना तरह का हँसी-मजाक करने लगी; छेङने की कोई
हद न थी, किंतु वे कहाँ गए थे, क्या घटित हुआ था, किसी ने इसका लेशमात्र भी विवरण
नहीं किया।
दृष्टिदान
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अक्तूबर 21, 2019
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