मुंशी जी


एक बार की बात है, मुंशी जी कहा करते थे, दुनिया में मेरे जैसा लायक व्‍यक्ति कोई नहीं है।
    वह भैया को फारसी पढाते थे। थोङी-सी अस्थियाँ थीं,  जिन पर खाल मढी हुई-सी लगती थी, मोमजामे की तरह। देखकर किसी को भी यह अन्‍दाज नहीं हो सकता था कि उनमें कितना बलबूता है। वजह यह थी कि अपने बलबूते की बात वह केवल खुद ही जानते थे, और किसी और को उसका कोई पता भी नहीं था। संसार के जितने भी बङे-बङे पहलवान होते हैं, वे सभी कभी जीतते हैं, तो कभी हारते भी हैं। मगर जिस तालीम पर मुंशी जी को घमण्‍ड था, उसमें वह कभी किसी व्‍यक्ति से दबे नहीं। अपनी विद्या में किसी से उन्‍नीस पङने की कोई भी मिसाल उन्‍हें ढूढें से नही मिलती थी। यही बात फारसी की पढाई के विषय में होती तो लोग इसे मान लेने को फौरन ही तैयार थे: मगर फारसी के बात चलते ही मुंशी जी कहते, अरे, वह भी कोई विद्या है।उन्‍हें अपनी गायन-विद्या पर दृढ विश्‍वास था। उधर उनके गले की यह स्थिति थी कि कि उससे घिघियाहट, चिल्‍लाहट अथवा रूलाई जैसी आवाज ही निकलती थी। मुहल्‍ले के आदमी भागे-भागे यह पूछताछ करने आ धमकते कि इस मकान में कोई दुर्घटना तो घटित नहीं हो गई। हमारे घर के अन्‍दर नामी गवैये थे विष्‍णु। वह माथा ठोककर कहा करते, हाय, लगता है, मुंशी जी मेरी रोटी छिनवाकर ही रहेंगे।
विष्‍णु की इस हालत को देखकर मुंशी जी को कोई दु:ख नहीं होता। बस, जरा मुस्‍करा ही देते वह। सभी कहते, मुंशी जी, वाकई ईश्‍वर ने कितना सुरीला गला दिया है आपको।इस प्रशंसा को सुनकर मुंशी जी गदगद् हो उठते। यह तो रही गायन की बात।

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    एक और विद्या मुंशी जी को आती थी। उसको समझने-सराहने वाले तलाश करने से नही ंमिलते थे। उनका यकीन था कि अंग्रेजी भाषा के विषय में कोई पके हाङ वाला अंग्रेज भी उनके सामने नहीं टिक सकता। अगर मैं चाहूँ तो वाग्मिता के मंच पर उतरकर सुरेन्‍द्र बनर्जी को भी देश भागने पर विवश कर दूँ। मगर ऐसा उन्‍होंने कभी चाहा ही नहीं। विष्‍णु की रोटी छिनने से बच गयी और सुरेन्‍द्रनाथ का नाम छिनने से रह गया। यह बात छिङने पर भी मुंशी जी केवल जरा मुस्‍कराकर रह जाते।
    किन्‍तु मुंशी जी के आधिकारिक अंग्रेजी-ज्ञान की वजह से हमें अपने एक पाप-कार्य में बहुत सहूलियत पैदा हो गयी थी। उस वक्‍त हम लोग बंगाल अकादमी में पढते थे। स्‍कूल के संचालक डिकरूज साहब थे। हमारे विषय में उन्‍होंने यह बात पहले से ही जान रखी थी कि इन लङकों को पढना-लिखना तो तीन जन्‍मों में भी नहीं आ सकेगा। मगर हमें इसकी कोई परवाह न थी। हमें न तो विद्या की चाहत थी, न बुद्धि की। हमारे पास पिात की जायदाद तो अपनी थी ही। फिर भी डिकरूज साहब से स्‍कूल की छुट्टी माँगने की वजह क्‍या है? यह चिट्ठी कितनी भी जाली क्‍यों न हो, डिकरूज साहब आँखें मींचकर छुट्टी दे देते थे। उन्‍हें तो बस अपनी फीस से ही मतलब रहता था। उसमें कोई घाटा न होने पर उन्‍हें और किसी बात की कोई चिन्‍ता न होती थीं। हम मुंशी जी को यह बात बतला देते कि छुट्टी मिल गयी है। मुंशी जी मुँह दबाकर मुस्‍करा पङते। मजाल है कि छुट्टी मंजूर न होती। मुंशी की अंग्रेजी में तो वह शक्ति है केवल अपने व्‍याकरण के धपक्‍के से हाईकोर्ट के न्‍यायाधीश की राय पलट दे।हम भी हाँ मे हाँ मिला देते, बेशक।मगर हाईकोर्ट के जज के आगे उनकी लेखनी की पेशी होने की नौबत कभी भी नहीं आयी।
    किन्‍तु उन्‍हें सबसे बढकर घमण्‍ड तो लाठी खेलने की अपनी कुशलता पर था। हमारे आँगन में धूप आते ही उनका खेल आरम्‍भ हो जाता। वह अपनी परछाई से लाठी खेलते। हुँकार के साथ कभी परछाई के पैर पर चोट करते, कभी गर्दन पर, तो कभी सिर पर-और मुख उठाकर चारों तरफ देखते ही जो लोग एकत्रित हुए हैं, उनकी राय क्‍या है? सभी बोल पङते, शाबाश! कोई कहता, परछाई के पिता का नसीब समझो कि वह अब तक ज्‍यों-की-त्‍यों बनी हुई है।

इससे जो एक सिख मिलती है। वह यह कि छाया से लङने पर कभी भी हार जाने की नौबत नहीं आती। एक सीख और मिलती है कि दिल के हारे हार है, मन के जीते, जीत। अपने दिल में अगर यह बात बिठा ली कि मैं जीत गया, तो उस जीत को कोई व्‍यक्ति छीन नहीं सकता। जीत हमेशा मुंशी जी की ही होती रही। सभी शाबाशी देते और मुंशी जी मुख दवाकर मुस्‍कराते। 
मुंशी जी मुंशी जी Reviewed by Kahaniduniya.com on अक्तूबर 11, 2019 Rating: 5

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