विदुर
के विरोध करने पर भी धृतराष्ट्र नेउसी को इन्द्रप्रस्थ जाकर युधिष्ठिर को
आमन्त्रित करने के लिए कहा, साथ ही यह भीकहा कि वह पांडवों को उनकी योजना के विषय
में कुछ न बताये। विदुर उनका संदेश लेकर पांडवो को आमन्त्रित कर आये। पांडवों के
हस्तिनापुर में पहुंचने पर विदुर ने उनको एकांत में संपूर्ण योजना से अवगत कर दिया
तथापि युधिष्ठिर ने चुनौती स्वीकार कर ली तथा द्यूतक्रीङा में वे व्यक्तिगत समस्त
दाव हारने के बाद भाइयों को ,स्वयं अपने को तथा अंत में द्रौपदी को भी हार बैठे।
विदुर ने कहा कि अपने-अपको दावं पर हारने के बाद युधिष्ठिर द्रौपदी को दांव पर लगाने
के अधिकारी नहीं रह जाते, किंतु धृतराष्ट्र ने प्रतिकामी नामक सेवक को द्रौपदी को
वहां ले आने के लिए भेजा। द्रौपदी ने उससे यही प्रशन किया कि धर्मपुत्र ने पहले
कौन सा दांव हारा है- स्वयं अपना अथवा द्रौपदी का। दुर्योधन ने क्रुद्ध होकर
दुशासन (भाई) से कहा कि वह द्रौपदी को सभाभवन में लेकर आये। युधिष्ठिर ने गुप्त
रूप से एक विश्वस्त सेवक को द्रौपदी के पास भेजा कि यद्यपि वह रजस्वला है तथा
एक वस्त्र में है, वह वैसी ही उठ कर चली आये, सभा में पूज्य वर्ग के सामने उसका
उस दशा में कलपते हुए पहुंचना दुर्योधन आदि के ापों केा व्यक्त करने के लिए
पर्याप्त होगा।
द्रौपदी
सभा में पहुंची तो दुशासन ने उसे स्त्री वर्ग की ओर नही जाने दिया तथा उसके बाल
खींचकर कहा- ‘हमने तुझे जुए में जीता है। अत तुझे अपनी दासियों में रखेगे।‘ द्रौपदी
ने समस्त कुरूवंशियों के शौर्य, धर्म तथा नीति को ललकारा और कृष्ण को मन-ही-मन
स्मरण कर अपनी जज्ता की रक्षा के लिए प्रार्थना की। सब मौन रहे किंतु दुर्योधन
के छोटे भाई विकर्ण ने द्रौपदी का पक्ष लेते हुए कहा कि हारा हुआ युधिष्ठिर उसे
दांव पर नहीं रख सकता था किंतु किसी ने उसकी बात नहीं सुनी। कर्ण के उकसाने से
दुशासन ने द्रौपदी को निर्वस्त्र करने की चेष्टा की। उधर विलाप करती हुई द्रौपदी
ने पांडवों की ओर देखा तो भीम ने युधिष्ठिर से कहा कि वह उसके हाथ जला देना चाहता
है, जिनसे उसने जुआ खेला था। अर्जुन ने उसे शांत किया। भीम ने शपथ ली कि वह दुश्मन
की छाती का खून पियेगा तथा दुर्योधन की जांघ को अपनी गदा से नष्ट कर डालेगा।
द्रौपदी ने विकट विपत्ति में श्रीकृष्ण का स्मरण किया। श्रीकृष्ण की कृपा से
अनेक वस्त्र वहां प्रकट हुए जिनसे द्रौपदी आच्छादित रही फलत उसके वस्त्र खींचकर
उतारते हुए भी दुशासन उसे नग्न नहीं कर पाया। सभा में बार-बार कार्य के अनौचित्य
अथवा औचित्य पर विवाद छिङ जाता था। दुर्योधन ने पांडवों केा मौन देख ‘द्रौपदी की,
दांव में हारे जाने’ की बात ठीक है या गलत, इसका निर्णय भीम, अर्जुन, नकुल तथा
सहदेव पर छोङ दिया। अर्जुन तथा भीम ने कहा कि जो व्यक्ति स्वयं को दांव मे हरा
चुका है, वह किसी अन्य वस्तु को दांव पर रख ही नहीं सकता। धृतराष्ट्र ने सभा की
नब्ज पहचानकर दुर्योधन को फटकारा तथा द्रौपदी से तीन वर मांगने के लिए कहा।
द्रौपदी ने पहले वर से युधिष्ठिर की दासभाव से मुक्ति मांगी ताकि भविष्य में उसका
पुत्र प्रतिविंध्य दास पुत्र न कहलाए।
दूसरे
वर में भीम, अर्जुन नकुल तथा सहदेव की, शस्त्रों तथा रथ सहित दासभाव से मुक्ति
मांगी।
तीसरा
वर मांगने के लिए वह तैयार ही नहीं हुई, क्योंकि उसके अनुसार क्षत्रिय स्त्रियों
को दो वर मांगने की ही अधिकारिणी होती हैं। धृतराष्ट्र ने उनसे संपूर्ण विगत को
भूलकर अपना स्नेह बनाए रखने के लिए कहा, साथ ही उन्हें खांडव वन में जाकर अपना
राज्य् भोगने की अनुमति धृतराष्ट्र ने उनके खांडववन जाने से पूर्व, दुर्योधन की
प्रेरणा से, उन्हें एक बार फिर से जुआ खेलने की आज्ञा दी। यह तय हुआ कि एक ही
दांव रखा जायेगा।
पांडव
अथवा धृतराष्ट्र पुत्रों में से जो भी हार जायेंगे, वे मृगचर्म धारण कर बारह वर्ष
वनवास करेंगे और एक वर्ष अज्ञातवास में रहेंगे। उस एक वर्ष में यदि उन्हें पहचान
लिया गया तो फिर से बारह वर्ष का वनवास भोगना होगा। भीष्म, विदुर, द्रोण आदि के
रोकने पर भी द्यूतक्रीङा हुई जिसमें पांडव हार गये, छली शकुनि जीत गया। वनगमन से
पूर्व पांडवों ने शपथ ली कि वे समस्त शत्रुओं का नाश करके ही चैन की सांस लेंगे।
श्रीधौम्य (पुरोहित) के नेतृत्व में पांडवों ने द्रौपदी के साथ ले वन के लिए
प्रस्थान किया। श्रीधौम्य साम मन्त्रों का गान करते हुए आगे की ओर बढे। वे
कहकेर गये थे कि युद्ध में कौरवों के मारे जाने पर उनके पुरोहित भी इसी प्रकार साम
गान करेंगे। युधिष्ठिर ने अपना मुंह ढका हुआ था वे अपने क्रुद्ध नेत्रों को देखकर
किसी को भस्म नहीं करना चाहते थे, भीम अपने बहु की ओर देख रहा था अपने बाहुबल को
स्मरण कर रहा था, अर्जुन रेत विखेरता जा रहा था ऐसे ही भावी संग्राम में वह वाणों
की वर्षा करेगा, सहदेव ने मुंह पर मिट्टी मली हुई थी। दुर्दिन में कोई पहचान न ले,
नकुल ने बदन पर मिट्टी म रखी थी कोई नारी उसके रूप पर आसक्त न हो, द्रौपदी ने बाल
खोले हुए थे, उन्हीं से मुंह ढककर विलाप कर रही थी जिस अन्याय से उसकी वह दशा
हुई थी, चौदह वर्ष बाद उसके परिणाम स्वरूप शत्रु-नारियों की भी वही दशा होगी, वे
अपने सगे-संबंधियों को तिलांजलि देंगी वनवास के अज्ञातवास के यिे सत्स्य देश के
राजा विराट के यहाँ रहने की योजना बनाई। उन्होंने अपना वेश बदला और मत्स्य देश
की ओर निकल पङे। मार्ग के एक भयानक वन के भीतर के एक श्मसान में उन्होंने अपने
अस्त्र-शस्त्रों को छुपा कर रख दिया और उनके ऊपर मनुष्यों के मृत शवों तथा
हडियों को रख दिया जिससे कि भय के कारण कोई वहाँ न आ पाये। उन्होंने अपने छद्म
नाम भी रख लिये – जो थे जय, जयन्त, विजय, जयत्सेन और जयद्वल। किन्तु ये नाम
केवल मार्ग के लिये थे, मत्स्य देश में वे इन नामों को बदल कर दूसरे नाम रखने
वाले थे। राजा विराट के दरबार में पहुँच कर युधिष्ठिर ने कहा, हे राजन् मैं व्याघ्रपाद
गोत्र में उत्पन्न हुआ हूँ तथा मेरा नाम कंक है। मैं द्यूत विद्या में निपुण हूँ।
आपके पास आपकी सेवा करने की कामना लेकर उपस्थित हुआ हूँ। विराट बोले, कंक तुम
दार्शनिक पुरूष प्रतीत होते हो, मैं तुम्हें पाकर प्रसन्न हूँ। अतएवं तुम सम्मान
पूर्वक यहाँ रहो। उसके बाद शेष पाण्डव राजा विराट के दरबार में पहुँचे और बोले,
हे राजाधिराज हम सब पहले राजा युधिष्ठिर के सेवक थे।
पाण्डवों
के वनवास हो जाने पर हम आपके दरबार में सेवा के लिये उपस्थित हुये हैं। राजा विराट
के द्वारा परिचय पूछने पर सर्वप्रथम हाथ में करछी-कढाई लिये हुए भीमसेन बोले,
महाराज आपका कल्याण हो। मेरा नाम बल्लभ है। मैं रसोई बनाने का कार्य उत्तम
प्रकार से जानता हूँ। मैं महाराज युधिष्ठिर का रसोइया था। सहदेव ने कहा, महाराज
मेंरा नाम तन्तिपाल है, मैं गाय-बछङों के नस्ल पहचानने में निपुण हूँ और मैं
महाराज युधिष्ठिर के गौशाला की देखभाल किया करता था। नकुल बोले, हे मत्स्याधिपति
मेरा नाम ग्रान्थिक है, मैं अश्व विद्या में निपुण हूँ। राजा युधिष्टिर के यहाँ
मेरा काम उकने अश्वशाला की देखभाल करना था। महाराजा विराट ने रन सभी को अपनी सेपा
में रख लिया। अन्त में उर्वशी के द्वारा दिये गये शापवश्ं नपुंसक बने, हाथीदांत
की चूङियाँ पहने तथा सिर पर चोटी गूँथे हुये अर्जुन बोले, हे मत्स्यराज मेरा नाम
वृहन्नला है, मैं नृत्य-संगीत विद्या में निपुण हूँ। चूँकि मैं नपुंसक हूँ इसयिे
महाराज युधिष्टिर ने मुझे अपने अन्त:पुर की कन्याओं को नृत्य् और संगीत सिखाने
के लिये नियुक्त किया था। वृहन्नला के नृत्य-संगीत के प्रदर्शन पर मुग्ध होकर,
उसकी नपुंसकता की जाँच करवाने के पश्चात् महाराज विराट ने उसे अपनी पुत्री उत्तरा
की नृत्य-संगीत के शिक्षा के लिये नियुक्त कर लिया। इधर द्रौपदी राजा विराट की
पत्नी सुदेष्णा के पास जाकर बोली, महारानी मेरा नाम सैरन्ध्री है। मैं पहले धर्मराज
युधिष्टिर की महारानी द्रौपदी की दासी का कार्य करती थी किन्तु उनके वनवास चले
जाने के कारण मैं कार्यमुक्त हो गई हूँ। अब आपकी सेवा की कामना लेकर आपके पास आई
हूँ। सैरन्ध्री के रूप, गुण तथा सौन्दर्य से प्रभावित होकर महारानी सुदेष्णा ने
से अपनी मुख्य दासी के रूप में नियुक्त कर लिया। इस प्रकार पाण्डवों ने मत्स्य
देश के महाराज विराट की सेवा में नियुक्त होकर अपने अज्ञातवास का आरम्भ किया।
पाडवां की की विश्वविजय
Reviewed by Kahaniduniya.com
on
नवंबर 07, 2019
Rating:
कोई टिप्पणी नहीं: