धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर के लालन पालन का
भार भीष्म के ऊपर था। तीनों पुत्र बङ होने पर विद्या-अध्ययन के लिए भेजे गए।
धृतराष्ट्र बल विद्या में, पाण्डु धतुर्विद्या में तथा विदुर धर्म और नीति में निपुण हुए। युवा
होने पर धृतराष्ट्र अन्धे होने के कारण राज्य् के उत्तराधिकारी न बन सके।
विदुर दासीपुत्र थे इसलिये पाण्डु को ही
हस्तिनापुर का राजा घोषित किया गया। भीष्म ने धृतराष्ट्र का विवाह गांधार की
राजकुमारी गांधारी से कर दिया। गांधारी को जब ज्ञात हुआ कि उसका पति अन्धा है तो
उसने स्वयं अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली। यहीं दिनों यदुवंशी राजा शूरसेन की
पोषित कन्या कुन्ती जब सयानी हुई तो पिता ने उसे घर आये हुये महात्माओं के सेवा
में लगा दिया। पिता के अतिथिगृह में जितने भी साधु-महात्मा, ॠषि-मुनि आदि आते,
कुन्ती उनकी सेवा मन लगा कर किया करती थी। एक बार वहाँ दुर्वासा ॠषि आ पहुँचे
कुन्ती ने उनकी भी मन लगा कर सेवा की। कुन्ती की सेवा से प्रसन्न हो कर
दुर्वासा ॠषि ने कहा, पुत्री मैं तुम्हारी सेवा से अत्यन्त प्रसन्न हुआ हूँ
अत: तुझे ऐ ऐसा मन्त्र देता हूँ जिसके प्रयोग से तू जिस देवता का स्मरण करेगी वह
तत्काल तेरे समक्ष् प्रकट हो कर तेरी मनोकामना पूर्ण करेगा। इस प्रकार दुर्वासा
ॠषि कुन्ती को मन्त्र प्रदान करके चले गये।
एक दिन कुन्ती ने उस मन्त्र की सत्यता की जाँच
करने के लिये एकान्त स्थान पर बैठ कर उस मन्त्र का जाप करते हुये सूर्यदेव का
स्मरण किया। उसी क्षण सूर्यदेव वहा प्रकट हो कर बोले, देवी मुझे बताओं कि तुम मुझ
से किस वस्तु की अभिलाषा करती हो। मैं तुम्हारी अभिलाषा अवश्य पूर्ण करूँगा। सइ
पर कुन्ती ने कहा, हे देव मुझे आपसे किसी भी प्रकार की अभिलाषा नहीं है। मैंने तो
केवल मन्त्र की सत्यता परखने के लिये ही उसका जाप किया है। कुन्ती के इन वचनों
को सुन कर सुर्यदेव बोले, हे कुन्ती मेरा आना व्यर्थ नहीं जा सकता। मैं तुम्हें
एक अत्यन्त पराक्रमी तथा दानशील पुत्र प्रदान करता हूँ। इतना कहकर सूर्यदेव अन्तर्ध्यान
हो गये। कुन्ती ने लज्जावश यह बात किसी से नही कह सकी। समय आने पर सके गर्भ से
कवच-कुण्डल धारण किये हुये एक पुत्र उत्पन्न हुआ। कुन्ती ने से एक मंजूषा में
रख कर रात्रि बेला में गंगा में बहा दिया। वह बालक बहता हुआ उस स्थान पर पहुँचा
जहाँ पर धृतराष्ट्र का सारथी अधिरथ अपने अश्व को गंगा नदी में जल पिला रहा था।
उसकी दृष्टि कवच-कुण्डल धारी शिशु पर पङी। अधिरथ नि:सन्तान था इसलिये उसने बालक
को अपने छाती से लगा लिया और घर ले जाकर उसे अपने पुत्र के जैसा पालने लगा। उस
बालक के कान अति सुन्दर थे इसलिये उसका नाम कर्ण रखा गया। कर्ण गंगाजी में बहता
हुआ जा रहा था कि महाराज धृतराष्ट्र के सारथी अधिरथ और उनकी पत्नी राधा ने उसे
देखा और उसे गोद ले लिया और उसका लालन पालन करने लगे।
कुमार अवास्था से ही कर्ण की रूचि अपने पिता
अधिरथ के समान रथ चलाने कि बजाय युद्धकला में अधिक थी।
कर्ण और उसके पिता-अधिरथ आचार्य द्रोण से मिले जो कि उस समय युद्धकला के
सर्वश्रेष्ठ आचार्यो में से एक थे। द्रोणाचार्य उस समय कुरू राजकुमारों को शिक्षा
दिया करते थे। उन्होंने कर्ण को शिक्षा देने से मना कर दिया क्योंकि कर्ण एक
सारथी पुत्र था, और द्रोण केवल क्षत्रियों को ही शिक्षा दिया करते थे। द्रोणाचार्य
की असम्मति के उपरान्त कर्ण ने परशुराम से सम्पर्क किया जो कि केवल ब्राह्मणों
को ही शिक्षा दिया करते थे। कर्ण ने स्वयं को ब्राह्मण बताकर परशुराम से शिक्षा का
आग्रह किया। परशुराम ने कर्ण का आग्रह स्वीकार किया और कर्ण को अपने समान ही
युद्धकला और धनुर्विद्या में निष्णात किया। कर्ण को उसके गुरू परशुराम और पृथ्वी
माता से श्राप मिला था। कर्ण की शिक्षा अपने अंतिम चराण् पर थी। एक दोपहर की बात
है गुरू परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रखकर विश्राम कर रहे थे। कुछ देर बाद कहीं से
एक बिच्छु आया और उसकी दूसरी जंघा पर काट कर घाव बनाने लगा। गुरू का विश्राम भंग
ना हो इसलिए कर्ण बिच्छु को दूर ना हटाकर उसके डंक को सहात रहा। कुछ देर में
गुरूजी की निद्रा टूटी, और उन्होंने देखा की कर्ण की जांघ से बहुत रक्त बह राह
है। उन्होंने कहा कि केवल किसी क्षत्रिय में ही इती सहनशीलता हो सकती है कि वह
बिच्छु डंक को सह ले, ना कि किसी ब्राह्मण में, और परशुरामजी ने उसे मिथ्या भाषण
के कारण श्राप दिया कि जब भी कर्ण को उनकी दी हुई शिक्षा की सर्वाधिक आवश्यकता
होगी, उसदिन वह उसके काम नहीं आएगी। कर्ण, जो कि स्वयं ये नहीं जानता था कि वह
किस वंश से है, ने अपने गुरू से क्षमा माँगी और कहा कि उसके स्थान पर यदि कोई और
शिष्य भी होता तो वो भी यही करता। यद्यपि कर्ण को क्रोधवश श्राप देने पर उन्हें
ग्लानि हुई पर वे अपना श्राप वापस नहीं ले सकते थे। तब उन्होंने कर्ण को अपना
विजय नामक धनुष प्रदान किया और उसे ये आशीर्वाद दिया कि उसे वह वस्तु मिलेगी जिसे
वह सर्वाधिक चाहता है, अमिट प्रसिद्धि। कुछ लोककथाओं में से माना जाता है कि बिच्छु
के रूप में स्वयं इन्द्र थे, जो उसकी वास्तविक क्षत्रिय पहचान को उजागर करना
चाहते थे।
परशुरामजी के आश्रम से जाने के पश्चात् कर्ण कुछ
समय तक भटकता रहा। इस दौरान वह ‘शब्दभेदी’ विद्या सीख राह था। अभयास के दौरान
उसने एक गाय के बछङे केा कोई वनीय पशु समझ लिया औरस पर शब्दभेदी बाण चला दीया और
बछङा मारा गया। तब उस गाय के स्वामी ब्राह्मण ने कर्ण को श्राप दिया कि जिस
प्रकार उसने एक असहाय पशु को मारा है, वैसे ही एक दिन वह भी मारा जाएगा जब वह सबसे
अधिक असहाय होगा और जब उसका सारा ध्यान अपने शत्रु से कहीं अलग किसी और काम पर
होगा।
इस
प्रकार कर्ण परशुराम का एक अत्यंत परिश्रमी और निपुण शिष्य बना। कर्ण दुर्योधन
के आश्रय में रहता था। गुरू द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों की शिक्षा पूरी होने पर
हस्तिनापुर में एक रंगभूमि का आयोजन करवाया। रंगभूमि में अर्जुन विशेष धनुर्विद्या
युक्त शिष्य प्रमाणित हुआ। तभी कर्ण रंगभूमी में आया और अर्जुन द्वारा किए गए
करताबों को पार करके उसे द्वंद्वयुक्त के लिए ललकारा। कब कृपाचार्य ने कर्ण के
द्वंद्वयुद्ध को अस्वीकृत कर दिया और उससे उसके वंश और साम्राज्य के विषय में
पूछा – क्योंकि द्वंद्वयुद्ध के नियमों के अनुसार केवल एक राजकुमार ही अर्जुन को,
जो हस्तिनापुर का राजकुमार था, द्वंद्वयुद्ध के लिए ललकार सकता था। तब कौरवों में
सबसे ज्येष्ठ दुर्योधन ने कर्ण को अंगराज घोषित किया जिससे वह अर्जुन से
द्वंद्वयुद्ध के योग्य हो जाए। जब कर्ण ने दुर्योधन से पूछा कि वह उससे इसके बदले
में क्या चाहता है, तब दुर्योधन ने कहा कि वह केवल ये चाहता है कि कर्ण उसका
मित्र बन जाए। इस घटना के बाद महाभारत के कुछ मुख्य संबंध स्थापित हुए, जैसे
दुर्योधन और कर्ण के बीच सुदृढ संबंध बनें, कर्ण और अर्जुन के बीच तीव्र
प्रतिद्वंद्विता, और पाण्डवों तथा कर्ण के बीच वैमनस्य।
कर्ण,
दुर्योधन का एक निष्ठावान और सच्चा मित्र था। द्यूतक्रीङा में भागीदारी करता है,
लेकिन वह आरंभ से ही इसके विरूद्ध था। कर्ण शकुनि को पसंद नहीं करता था, और सदैव
दुर्योधन को यही परामर्श देता कि वह अपने शत्रुओं को परास्त करने के लिए अपने
युद्ध कौशल और बाहुबल का प्रयोग करे ना कि कुटिल चालों का। जब लाक्षागृह में पाण्डवों
को मारने का प्रयास विफल हो जाता है, तब कर्ण दुर्योधन को उसकी कायरता के लिए
डांटता है, और कहता है कि कायरों की सभी चालें विफ ही होती हैं और से समझाता है कि
उसे एक योद्धा के समान कार्य करना चाहिए और उसे जो कुछ भी प्राप्त करना है, उसे
अपनी वीरता द्वारा प्राप्त करे। चित्रांगद की राजकुमारी से विवाह करने में भी
कर्ण ने दुर्योधन की सहायता की थी। अपने स्वयंवर में उसने दुर्योधन को अस्वीकार
कर दिया और तब दुर्योधन उसे बलपूर्वक उठा कर ले गया। तब वहाँ उपस्थित अन्य राजाओं
ने उसका पीछा किया, लेकिन कर्ण ने अकेले ही उन सबको परास्त कर दिया। परास्त
राजाओं में जरासंध, शिशुपाल, दंतवक्र, साल्व, और रूक्सी इत्यादि थे। कर्ण की
प्रशंसा स्वरूप, जरसंध ने कर्ण को मगध का एक भाग दे दिया। भीम ने बाद में
श्रीकृष्ण की सहायता से जरासंध को परास्त किया लेकिन उससे बहुत पहले कर्ण ने उसे
अकेले परास्त किया था। कर्ण ही ने जरासंध की इस दुर्बलता को उजागर किया था कि
उसकी मृत्यु केवल उसके धङ को पैरों से चीर कर दो टुकङो में बाँट कर हो सकती है।
कर्ण का जन्म
Reviewed by Kahaniduniya.com
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नवंबर 06, 2019
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