बन्‍दा बहादुर


एक समय की घटना है। पाँच नदियों के द्वारा सींचे गये पंजाब प्रदेश की वीर-जननी धरती पर एक दिन युद्ध के घोष गूंज उठे। युद्ध के नगाङे बजनें लगे, वाहे गुरू की फतह।
गाँव-गाँव, नगर-नगर तथा डगर-डगर में गुरूजी के नाम से जयकारे गूंज उठे। सबकी जवान पर यही जयघोष रटा हुआ था। देखते-ही-देखते एक-एक सिक्‍ख जाग उठा। सिर के लम्‍बे बाल संवारकर जूङे बाँध लिये और कमर में कृपाण लटकने लगी।
प्‍यारे सम्‍बन्धियों-रिश्‍तेदारों की ममता छोङ दी। दुश्‍मनों, परेशानियों और मौत का भय भी भुला दिया। हजारों कंठों से गूंजने वाली जय-घोष्‍णाओं ने दसों दिशाएँ गुंजा दी। सिक्‍ख नौजवान अपनी नवजागृति के सूर्य के सामने बिना पलक झपकाये देखने लगे, अलख निरंजन, अलख निरंजन, अलख निरंजन, अलख निरंजन।

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चारों तरफ ‘अलख निरंजन’ की बुलंदललकार उठ रही थी। दुनिया के साथ जोङे स्‍नेह-बंधन टूट रहे थे। सब प्रकार के भय भाग रहे थे। हजारों सीने उत्‍साह से फूले नहीं समाते थे। कृपाणें झनझना रही थीं। सारा पंजाब प्रदेश ‘अलख निरंजन’ के नारों से गूंज उठा था।
एक रोज ऐसा आया कि लाख-लाख आत्‍माएँ किसी भी तरह की रूकावट की परवाह नहीं कर रहीं थी। सिर पर किसी का कोई कर्ज नहीं था। जीवन तथा मरण माननीय गुरूचरणों के चाक बन गये थे। मन चिंता विहीन थे। दिल्‍ली के शाही महल मे शाही पलंग पर बादशाह की आँखें व्‍याकुल हो रही थीं। नींद की तरह ढलती हुई उसकी पलकें बार-बार खुल जातीं। बादशाह आश्‍चर्य से जङ हुआ जा रहा था। इस घोर अंधेरे में यह किसका घोष गगन को गुंजा रहा है? ये किनकी मशालें आसमान के ललाट पर आग बरसा रही है? ये किसके सैन्‍य दल दिल्‍ली की तरफ कदम बढाते हुए चले आ रहे हैं, बिना रोक-टोक बढे आ रहे हैं?
घोंसलो मे से पंख पसारकर निकलते हुए परिन्‍दों की तरह वीरों के झुंड के झुंड सीना ताने बढे जा रहे थे। आज माताएँ अपने वीर बेटों के ललाट पर लहू का तिलक लगा रही थीं।
उस दिन सिक्‍खों और मुसलमानों के मध्‍य घनघोर संग्राम हुआ। दोनों ही मानो मृत्‍यु का आलिंगन करने को भिङ रहे थे, एक-दूसरे की गर्दनें दबोच रहे थे। गरूङ तथा सांप के बीच में मानो द्वन्‍द्व युद्ध मच रहा था। गम्‍भीर मेघ-गर्जन की प्रकार सिक्‍ख पुकार रहे थे, वाहे गुरू का खालसा।
मुगल ‘दीन-दीन’ ही ललकार कर रहे थे।
गुरूदासपुर के गढ पर सिक्‍ख सरदार बंदा बहादुर मुसलमानों के हाथ पङ गया। तुर्क सेना उसे दिल्‍ली ले गयी। सात सौ सिक्‍ख भी उसके साथ बन्‍दी बनकर आ रहे थे।
आगे-आगे मुगल सेना चल रही थी। रास्‍ते की धूल आसमान को ढंक रही थी। मुगलों के भालों पर कत्‍ल किये हुए सिक्‍खों के सिर टंगे थे। पीछे-पीछे सात सौ सिक्‍ख सैनिक चले आ रहे थे। उनके पांवों की बेङियाँ झनझ्‍ना रही थीं। दिल्‍ली शहर के मार्ग पर मनुष्‍यों का पार नहीं था। ऊँची-ऊँची अटारियों की बारियों से औरतें देख रही थीं। इन सात सौ बेङीबन्‍द शूरवीरों के सात सौ गलों से बुलन्‍द नारा निकल रहा था-अलख निरंजन, अलख निरंजन।
सात सौ बन्‍दी सैनिकों को खबर मिली कि कल से कत्‍ल आरम्‍भ होगा।
पहले मैं जाऊँगा, नहीं सबसे पहले गर्दन मैं कटाऊँगा-इसी तरह की होङ से बन्‍दीघर गूंज उठा। हर प्रतिदिन सौ-सौ कैदियों के सिर काटे जाने लगे। ‘वाहे गुरू की फतह’ का घोष करती हुई सौ-सौ सिर जालिम की तलवार के नीचे कटते जा रहे थे। सात दिन में सिक्‍खों वाला बन्‍दीघर खली हो गया। शेष रह गया अकेला बन्‍दा बहादुर। सुबह हुई। सभा के अन्‍दर वीर बंदा जंजीरों से बंधा हुआ खङा था। उसके मुँह परनाम को भी डर या पीङा की निशानी नहीं थी। इतने में काजी ने सात साल के एक सुन्‍दर बच्‍चे को पेश किया। बन्‍दे के हाथ में उसे सोंपकर काजी बोला, बंदे, दो घङी पश्‍चात् तो तुझे अंतिम यात्रा के लिए चल निकलना है। लेकिन मुगलों को अभी तेरी एक बहादुरीदेखने की आशा है। तो ले, ऐ वीर! इस बच्‍चे का सिर अपने हाथों से उङा दे।
यह बच्‍चा कौन था? यह नन्‍हा सात साल का बच्‍चा था-बन्‍दे का एकमात्र पुत्र। बन्‍दे के प्राणों का भी प्राण।
बन्‍दे के मुँह से एक भी शब्‍द नही निकला। बन्‍दे ने अपने प्‍यारे बच्‍चे को अपनी छाती से लगा लिया-और फिर धीरे-धीरे कमर से कृपाण निकाली। बालक के सामने देखकर बाप ने उसके कान मे कहा, बोलो बेटा, बोलो, वाहे गुरू की फतह। डरता तो नहीं ना?
बच्‍चे ने प्रत्‍युत्तर में कहा, वाहे गुरू की फतह।उसके नन्‍हें मुँह पर मौत की आकांक्षा मानो झलक उठी। उसके कोमल कंठ से ध्‍वनि निकली, डर की कौन-सी बात है पिताजी? वाहे गुरू की फतह।इतना कहकर बच्‍चा पिता का मुँह देखने लगा।
बायीं भुजा से बन्‍दे ने बच्‍चे की गर्दन को लपेट लिया। दायें हाथ की कृपाण ने उसकी नन्‍ही छाती को चीर डाला। वाहे गुरू की फतह बोलकर बच्‍चा धरती पर धराशायी हो गया।
सभा हैरान रह गयी। जल्‍लादों ने आकर बन्‍दे के जिस्‍म केा गरम-गरम संडासियों तथा चिमटों से नोच डाला।
नरवीर शांतिपूर्वक मर गया। व्‍यथा का एक भी अल्‍फाज उसके मुख से न निकला। देखने वालों ने अपनी आँखें बन्‍द कर लीं। 
बन्‍दा बहादुर बन्‍दा बहादुर Reviewed by Kahaniduniya.com on अक्तूबर 02, 2019 Rating: 5

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