काफी समय पहले की बात है, फरवरी के अंतिम
दिन हें। लेकिन अब भी जाङा काफी पङ रहा हैं। विश्वम्भर बाबू ने एक भारी-सा कम्बल
ओढ रखा हैं। वह पालकी में सवार होकर सप्तग्राम की ओर जा रहे हैं। पालकी के साथ
उनका नौकर शम्भू भी चल रहा हैं, उसके हाथ में मोटी-सी एक लाठी हैं। पालकी की छत
पर रस्सी से कसकर एक पिटारी बंधी है। उसके भीतर दवाइयाँ हैं। शम्भू काफी तगङा
है। वह इतना ताकतवर है कि अचरज होता है।
एक बार कुम्भीरा के वन मे उसे रीछ ने पकङ
लिया था। वह बस लाठी लेकर ही रीछ से अङ गया। डटकर लङाई हुई। शम्भू की लाठी के वार
से रीछ की कमर टूट गयी। वह उठ तक नहीं पा रहा था। ऐसी ही बात एक बार और हुई। शम्भू
विश्वम्भर बाबू के संग स्वर्णगंज गया था। वहाँ पद्ममा नदी के तट पर खाना पकाने
की नौबत आ गई।
गर्मियों की दोपहर थी। पदमा के तट पर झाऊ
के छोटे-छोटे पौधों का जंगल है। ईंधन के वास्ते झाऊ काटना था। शम्भू ने कुल्हाङी
से झाऊकी डालें काटकर एकत्र कीं और उनका गट्रठर बाँधा। धूप काफी तेज थी। शरीर जल
रहा था। प्यास के कारण गला सूख रहा था। शम्भू पानी-पीने के लिए नदी में उतरा तो
देखा कि एक घङियाल एक बछङे को पकङकर ले जा रहा हैं। शम्भू ने छलांग लगायी तथा
पानी मे उतर गया। घङियाल की पीठ पर चढ बैठा और फिर कुल्हाङी से उसकी गर्दन परवार
करने लगा। पानी रक्त से लाल हो उठा। घङियाल छटपटाने लगा। पीङा के मारे मजबूर होकर
उसने बछ्रङे को छोङ दिया। शम्भू तैर कर तट पर आ गया।
विश्वम्भर बाबू डॉक्टर हैं। मरीज देखने
निकले हैं, काफी दूर जाना है। स्टीमर घाट के स्टेशन-मास्टर मधु विश्वास के
छोटे बेटे को गम्भीर बीमारी है। बेचारा बहुत दु:ख में है।
विष्णुपुर की पश्चिम दिशा में ऊसर धरती
कोसों तक फैली हुई है। उसे पार करने मे शाम हो आयी। चरवाहे ढोर-डंगर लेकर लौट पङे।
विश्वम्भर बाबू ने एक चरवाहे को अपने निकट बुलाया। कहा, “क्यों, बेटे, सप्तग्राम कितनी दूर है?”
चरवाहा बोला, “जी, वह तो कोई सात कोस दूर होगा। आज वहाँ
न जाइये। रास्ते में भीष्महाट का ऊसर पङता है। उसके समीप ही मरघट है। वहाँ
डाकुओं का भय रहता है।“
डॉक्टर ने कहा, “क्या करें बेटे रोगी पीङा मे है, जाना तो
होगा ही।“ तिलपनी नहर तक पहुँचते-पहुँचते रात्रि के दस बज गये। दवाइयों की
पिटारी पालकी की छत से नीचे गिर गयी। कैस्टर ऑयल की शीशी भी चूर-चूर हो गयी।
पिटारी को तो फिर कसकर बाँध दिया गया, लेकिन तब तक एक और मुसीबत आ पङी। नहर पार
करके लगभग दो कोस और आगे पहुँचे होंगे कि फालकी का डंडा तङतङाकर टूट गया और पालकी
नीचे धरती पर आ पङी। पालकी हल्की लकङी की बनी थी और विश्वम्भर बाबू भारी
डील-डौल के व्यक्ति थे।
फिर तो रात्रि वहीं काटनी पङ गयी। डॉक्टर
साहब ने धास पर कम्बल बिछा लिया। लालटेन निकट ही रखी।
तभी कहारों के सरदार बुद्धु ने आकर बताया,
“वह देखिये, कुछ आदमी इधर ही आ रहे हैं।
निश्चित ही ये डाकू हैं। इसमें कोई शक नहीं।”
विश्वम्भर बाबू ने बताया-“डर काहे का? तुम सब तो हो ही।”
बुद्धु ने कहा, “बलगू भाग गया है, पल्लू भी कहीं दिखायी
नहीं देता, बकसी उस झुरमुट में जाकर छिप गया है और विष्णु के तो भय के मारे
हाथ-पांव फूल गये हैं।“
सुनते ही डॉक्टर साहब भय के मारे थर-थर
काँपने लगे। चिल्ला पङे,
“शम्भू!”
शम्भू ने कहा, “जी साहब!”
डॉक्टर साबह बोले, “अब क्या किया जाये?”
शम्भू ने कहा, “डर काहे का? मैं तो हूँ ही।”
डॉक्टर साहब बोले, “लेकिन वे तो पाँच हैं।”
शम्भू ने कहा, “मैं शम्भू जो हूँ।”
उसने उठकर छलांग
मारी और गरजकर बोला, “खबरदार!”
डाकू ठठाकर हँसे पङे। वे आगे बढते ही गये।
शम्भू ने पालकी का वही टूटा हुआ डंडा उठा लिया तथा घुमाकर डाकूओं की तरफ फेंक
मारा। निशाना ऐसा सही लगा कि एक ही साथ तीन डाकू धराशायी हो गए। फिर शम्भू ने
अपनी लाठी संभाली तथा डाकूओं पर टूट पङी। जो दो डाकू चोट खाने से बच गये थे, वे
सिर पर पैर रखकर भाग खङे हुए।
तभी डॉक्टर साहब ने आवाज लगाई, “शम्भू!”
शम्भू बोला, “जी साहब!”
विश्वम्भर बाबू बोले, “अब झटपट दवाइयों की पिटारी तो निकालो।”
शम्भू ने पूछा, “क्यों, उसकी क्या आवश्यकता आ पङी?”
डॉक्टर बोले, “इन तीनों की डॉक्टरी तो मुझे ही करनी
होगी। पट्टी-वट्टी बाँधनी पङेगी।”
उस वक्त रात थोङी ही और रह गयी थी। विश्वम्भर
बाबू तथा शम्भू दोनों ने मिलकर तीनों डाकुओं की दवाई-पट्टी की।
डॉक्टर बाबू
Reviewed by Kahaniduniya.com
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अक्टूबर 02, 2019
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