पुजारिन



एक बार की बात है, ढाई हजार वर्ष पुरानी कथा है। मगध के राजा बिम्‍बसार ने भगवान बुद्ध के चरणों में अपना शीश टिकाकर बौद्ध धर्म स्‍वीकार कर लिया। राजा ने बुद्ध भगवान के पांवों का एक नाखून लेकर उसे श्रद्धा से राजकीय उद्यान में गाङकर, उस पर एक खूबसूरत स्‍तूप खङा कर दिया। देश-विदेश के कलाकारों ने अपनी कला का खूबसूरत नमूना उपस्थित किया था। देखकर प्रतीत होता था कि पत्‍थर बोल उठेंगे।
    हरेक दिन शाम के वक्‍त महारानी औश्र राजकुमारियाँ नहा-धोकर, अच्‍छे-अच्‍छे वस्‍त्र पहनती थीं, डलियों में फूल बीन कर लाती थ्‍ज्ञीं तथा सोने के थालों में पूजा का सामान सजाकर स्‍तूप के निकट जाकर पूजा करती थीं। रात-भर स्‍तूप के निकट फूल महकते रहते।

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    इसी तरह कई साल बीत गये। महाराज बिम्‍बसार का देहान्‍त हो गया। युवराज अजातशत्रु सिंहासन पर बैठे। ब्राह्मण-धर्म के परम उपासक इस राजा ने नगरी मे लहू की नदियाँ बहा दीं। और बाप के धर्म को उखाङ फेंका। उसे यज्ञ की ज्‍वालाओं में बौद्ध धर्म के शास्‍त्र अर्पित कर दिये। राजनगरी में यह घोषणा करवा दी-सावधान! प्रजाजनों सावधान!! पूजा के अधिकारी सिर्फ तीन ही हैं-वेद, ब्राह्मण, तथा राजा। चौथे किसी की भी पूजा करने वाले के मैं प्राण हर लूंगा।
घोषणा वाले दिन की शाम आ गयी। राजमहल की एक दासी नहा-धोकर तैयार हो गयी थी। पूजा के थाल मे फूल तथा दीपक सजा रही थी। इस दासी का नाम था श्रीमती। हर शाम को जब राज-परिवार की औरतें स्‍तूप की पूजा के लिए जाती थीं, तब यह अनपढ भोली दासी पूजा की सामग्री तैयार करती थी तथा उसे उठाकर दूर, एक कोने में खङी रहती थी। कुछ आता ही नहीं था, तो भी आँखें बन्‍द करके खङी-खङी कुछ कुनगुनाया करती थी।
    राजा का आदेश इस दासी ने सूना था, तो भी धूप-दीप लेकर दासी राजमाता के निकट आकर खङी हो गयी। कहने लगी, माताजी, बेवकूफ, पूजा का वक्‍त हो गया।
    राजमाता का जिस्‍म काँप उठा। डरकर बोल उठीं, भाग जा पागल, आज से पूजा का नाम मत लेना।
    श्रीमती लौट गई। वह महारानी अमिता के कक्ष में पहुँची।
    श्रीमती के हाथ में पूजा की सामग्री देखकर रानी चौकं गई। श्रीमती ने कहा, रानीजी, पूजा का वक्‍त हो गया।
ऱानी बोली-क्‍या साथ ही मरने का वक्‍त भी आ गया है? चली जाओ यहाँ से। कोई देख लेगा तो राजाजी का कोप जाग उठेगा। पूजा के दिन तो चले गये।
    पायल की झंकार सुनकर राजकुमारी ने दरवाजे की ओर देखा। वहाँ पर पूजा का थाल लेकर श्रीमती खङी थी।
    राजकुमारी, चलिए पूजा के लिए।
    तू ही जा अकेली मरने के लिए।
    नगर के दरवाजे पर श्रीमती घूम आयी। किसी ने दरवाजे बन्‍द कर दिये, किसी ने श्रीमती को गालियाँ दीं तथा साथ चलने को कोई तैयार नहीं हुआ।
लम्‍बी रात्रि में महल के पहरेदार एकाएक चौंक उठे। उन्‍होंने क्‍या देखा? चोर, खूनी अथवा कोई भूत-प्रेत?
    नहीं। उन्‍होंने देखा-राजवाटिका के एक कोने में, घोर अंधकार में बुद्ध भगवान के स्‍तूप के चारों तरफ कोई आदमी दीपमाला संजो रहा है।
    पहरेदार खुली हुई तलवारें लेकर दौङ पङे। स्‍तूप के निकट आकर देखा, एक स्‍त्री के सामने घुटने टिकाकर बैठी है। उसकी आँखें बन्‍द हैं तथा जाप करते हुए होठों पर मुस्‍कान है।
    पहरेदार ने आकर ध्‍यान में बेसुध जिस्‍म को हिलाया-डुलाया और कहा-मृत्‍यु को माथे पर लगाकर यहाँ आरती करने वाली, हे नारी! तू कौन है?
    मैं हूँ बुद्ध भगवान की दासी-और मेरा नाम है श्रीमती।नंगी तलवार श्रीमती की गर्दन पर गिरी। स्‍तूंप का वह पावन पत्‍थर खून से भीगकर और ज्‍यादा पवित्र हो गया।
    
पुजारिन पुजारिन Reviewed by Kahaniduniya.com on अक्टूबर 13, 2019 Rating: 5

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