काबुलीवाला



पूरे पाँच साल की मेरी छोटी लङकी मिनी थी, उससे पल-भर भी बात किए बिना नहीं रहा जाता। दुनिया में जन्‍म लेने के पश्‍चात् भाषा सीखने मे उसने सिर्फ एक ही वर्ष लगाया था। उसके पश्‍चात् से, जब तक वह जागती रहती है, उस वक्‍त का एक भी पल वह खामोश रहकर नष्‍ट नहीं करती। उसकी माँ कभी-कभी धमकाकर उसका मुख बंद कर देती है, पर फिर भी मैं ऐसा नहीं कर पाता। मिनी अगर चुपचाप रहे, तो वह ऐसी अजीब-सी लगती है कि मुझसे उसकी खामोशी अधिक देर तक सही नहीं जाती। सही कारण यही है कि उसके साथ मेरी वार्तालाप कुछ अधिक उत्‍साह के साथ चलती है। सवेरे मैं अपने उपन्‍यास का सत्रहवाँ अध्‍याय लिखने जा ही रहा था कि मिनी ने आकर कहना आरम्‍भ कर दिया, बाबू, रामदयाल दरबान काका को कौबा कह रहा था। वह कुछ नहीं जानता। है न बाबा?
संसार की भाषाओं की विभिन्‍नता के विषय में मैं उसे कुछ ज्ञान देने वाला ही था कि उसने दूसरी बात छेङ दी, सुना बाबू, भोला कह रहा था कि आकाश से हाथी सूंड से पानी बिखेरता है, तभी वर्षा होती है। ओ माँ! भोला झूठमूठ ही इतना बोलता है। बस बोलता ही रहता है, दिन-रात बोलता ही जाता है, बाबू।

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इस विषय में मेरी राय के लिए जरा-सा भी इंतजार किए बिना वह चट से पूछ बैठी, क्‍यों बाबू, अम्‍माँ तुम्‍हारी कौन होती है?
मैंने मन-ही-मन कहा, ‘साली’ और मुख से कहा, मिनी तू जा, जाकर भोला के साथ खेल। मुझे अभी बहुत कार्य करना है।
वह मेरी खिने की मेज के पास मेरे पैरों के पास बैठ गई और दोनों घुटने और हाथ हिला-हिलाकर, फुर्ती से मुख चलाते हुए रटने लगी, आगडुम-बगडुम घोङा-डुम साजे।उस वक्‍त मेरे उपन्‍यास के सत्रहवें अध्‍याय में प्रतापसिंह कंचनमाला को साथ लेकर अंधेरी रात में कारागार की ऊँची खिङकी से नीचे नदी के जल में कूद रहे थे।
मेरा कमरा सङक के किनारे था। अचानक मिनी अक्‍को-बक्‍को तीन तिलक्‍को खेल छोङकर खिङकी के निकट दौङकर गई और जोर से पुकारने लगी, काबुलीवाला! ओ काबुलीवाला!
गन्‍दे-से ढीले वस्‍त्र पहने, सिर पर पगङी बाँधे, कन्‍धे पर झोली लटकाए और हाथ में अंगूर की दो-चार पेटियाँ लिए एक लम्‍बा-सा काबुली धीमी गति से सङक पर जा रहा था। उसे देखकर मेरी बिटिया रानी के दिल मे कैसे भाव जगे होंगे, यह बताना टेढी खीर है, पर वह जोर-जोर से उसे पुकार रही थी। मैंने सोचा, अभी कन्‍धे पर थेला लटकाए एक आफत मेरे सिर पर आ सपर होगी और मेरा सत्रहवाँ अध्‍याय समाप्‍त होने से रह जाएगा।
    मगर मिनी की पुकार पर, जैसे ही काबुली ने हँसकर अपन चेहरा घुमाया और मेरे घर की तरफ आने लगा, वैसे ही मिनी जान छुङाकर अन्‍दर की तरफ भागी और गायब हो गई। उसके मन मे एक अन्‍धविश्‍वास-सा उत्‍पन्‍न हो गया था कि झोली ढूंढने पर मिनी जैसे और भी दो-चार जिन्‍दा इन्‍सान मिल सकते हैं।
काबुली ने आकर हँसते हुए प्रणाम किया और खङा रहा। मैंने सोचा हालांकि प्रतापसिंह और कंचनमाला दोनों की हालत बङी मुसीबत में है, फिर भी इस आदमी को घर बुलाकर कुछ न खरीदना अच्‍छा नहीं होगा।
कुछ चीजें खरीदीं। उसके पश्‍चात् इधर-उधर की चर्चा होने लगी। अब्‍दुल रहमान से रूस, अंग्रेज, सरहदी-रक्षा-नीति पर वार्तालाप होती रही।
अन्‍त में उठते वक्‍त उसने पूछा-बाबूजी, तुम्‍हारी लङकी कहाँ गई?
मिनी के मन से बेकार का डर दूर करने के इरादे से उसे इन्‍दर से बुलवा लिया। वह मुझसे सटकर खङी हो गई। शक-भरी नजरों से वह काबुली का चेहरा ओर उसकी झोली की तरफ देखती रही। काबुली ने झोली से किशमिश और खुबानी निकालकर देना चाहा, पर उसने किसी प्रकार से नहीं लिया। दुगुने डर के साथ वह मेरे घुटनों से चिपकी रही। पहला परिचय कुछ इसी प्रकार हुआ।
कुछ दिनों पश्‍चात्, एक सवेरे किसी जरूरी काम से घर से बाहर निकला तो देखा, मेरी बिटिया द्वार के पास बेंच पर बैठी बेहिचक बातें कर रही है। काबुली उसके पैरों के पास बैठा मुस्‍कुराता हुआ सुन रहा है और बीच-बीच में प्रसंग के मुताबिक अपनी राय भी खिचङी भाषा में जाहिर कर रहा है। मिनी के पाँच साल की आयु के अनुभव मे बाबू के अतिरिक्‍त ऐसा धैर्य रखने वाला श्रोता शायद ही कभी मिला हो। फिर देखा उसका छोटा-सा आँचल बादाम किशमिश से भरा हुआ है। मैंने काबुली से बताया-इसे सब क्‍यों दिया? ऐसा मत करना।इतना कहकर जेब से एक अठन्‍नी निकालकर मैंने उसको दे दी। उसने बेझिझक अठन्‍नी लेकर अपनी झोली में डाल ली।
घर लौटकर मैंने देखा, उस अठन्‍नी को लेकर बङा हो-हल्‍ला हो चुका था।
मिनी की माँ एक सफेद चमचमाता हुआ गोलाकार पदार्थ हाथ में लिए डाँटकर मिनी से पूछ रही थी-तुझे अठन्‍नी कहाँ से मिली?
मिनी ने बताया-काबुलीवाला से तूने अठन्‍नी ली ही क्‍यों?
मिनी रूँआसी-सी होकर बोली-मैंने माँगी नहीं, उसने स्‍वयं ही दे दिया ।
मैंने आकर मिनी को पास खङी विपत्ति से बचपया और बाहर ले आया। पता चला कि काबुली के साथ मिनी की यह दूसरी भेंट ही हो ऐसी बात भी नहीं। इस बीच वह नित्‍य आता रहा और पिस्‍ता-बादाम की रिश्‍वत देकर मिनी के मासूम लोभी दिल पर काफी अधिकार जमा लिया।
इन दोनों दोस्‍तों में कुछ बंधी-बंधाई बातें और परिहास होता रहा। जैसे रहमान को देखते ही मेरी लङकी हँसती हुई उससे कहने लगी-काबुलीवाला! ओ, काबुलीवाला! तुम्‍हारी झोली में क्‍या है?
रहमान एक बेमतलब नाकियाते हुए उत्तर देता-हा‍थी।
यानि उसकी झोली के अन्‍दर हाथी है,
यानि उसकी झोली के अन्‍दर हाथी है, यही उनके मजाक का सूक्ष्‍म-सा अर्थ था। अर्थ बहुत ही सूक्ष्‍म हो, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, फिर भी इस उपहास में दोनों को बङा मजा आता। सर्दियों की सुबह में एक सयाने ओर एक कम उम्र की बच्‍ची की सरल हँसी मुझे भी बहुत अच्‍छी लगती।
उन दिनों में एक बात और भी चल रही थी। रहमान मिनी से कहता, खोली, तूं कभी ससुराल न जाना, हाँ।
बंगाली परिवार की लङकियाँ बाल्‍यावस्‍था मे ही ससुराल शब्‍द की जानकार हो जाती हैं, मगर हम लोगों ने थोङा आधुनिक होने के कारण मासूम बच्‍ची को ससुराल के विषय में सचेत नही किया था। इसलिए रहमान की बातों का अर्थ वह साफ-साफ नहीं समझ पाती थी, लेकिन बात का कोई उत्तर दिए बिना चुप रह जाना, उसकी आदत के बिल्‍कुल विरूद्ध था। वह पलटकर रहमान से पूछ बैठती-तुम ससुराल जाओगे?
रहमान काल्‍पनिक ससुर के लिए अपना बहुत बङा घूंसा तानकर कहता-हम ससुर को बहुत मारेगा।
यह सुनकर मिनी ससुर नाम के किसी अजनबी प्राणी की हालत की अल्‍पना कर खुब हँसती।
सर्दियों के सुहावने दिन थे। प्राचीन जमाने में इसी समय राजा लोग दिग्विजय के लिए निकलते थे। मैं कलकत्ता छोङकर कहीं नहीं गया। शायद इसीलिए मेरा ह्रदय दुनिया भर में घूमा करता है। जैसे मैं अपने घर के ही कोने में सदा से बसा हुआ हूँ। बाहर की दुनिया के लिए मेरा ह्रदय हमेशा बेचैन रहता है। किसी देश का नाम सुनते ही मन वहीं दौङ पङता हैं किसी विदेशी को देखते ही मेरा दिल फौरन नदी-पहाङ-जंगल के बीच एक कुटिया का नजारा देख रहा होता है। उल्‍लास से भरे आजाद जीवन का एक चित्र कल्‍पना में जाग उठता है।
इधर मैं भी इतना सुस्‍त प्रकृति यानि घुन्‍ना किस्‍म का हूँ कि अपना निवास छोङकर जरा बाहर निकलने में ही कटु अनुभव होने लगता है। इसीलिए सुबह अपने छोटे कमरे में मेज के सम्‍मुख बैठकर काबुली से गप्‍पें लङाकर बहुत कुछ सैर-सपाटे का मकसद पुरा कर लिया करता हूँ। दोनों तरफ ऊबङ-खाबङ, दुर्गम, जले हुए, लाल-लाल ऊँचे पहाङों की माला, बीच मे पतले रेगिस्‍तानी मार्ग और उनपर मुसाफिरों के लदे ऊँटों का काफिला चल रहा है। पगङी बाँधे सौदागर और राहगीरों में कोई ऊँट पर तो कोई पैदल चले जा रहे हैं। किसी के हाथ में बरछी है तो किसी के हाथ में प्राचीन जमाने की चकमक पत्‍थर से हागी जाने वाली बन्‍दूक। काबुली अपने बादल गर्जन-से स्‍वर में, खिचङी भाषा में अपने वतन के विषय में सुनाता रहा और यह तस्‍वीर मेरी आँखों के सामने काफिलों के समान गुजरती चली जाती।
मिनी की माँ बङी वहमी आदत की है। मार्ग पर कोई आहट होते ही उसे लगता कि दुनिया-भर के शराबी मतवाले हमारे ही घर की तरफ भागते चले आ रहे हैं। यह दुनिया हर कीहं चोर-डाकू, शराबी, सांप, बाघ, मलेरिया, सुअरों, तिलचट्टों तथा गोरों से भरी हुई है, यही उसका ध्‍यान है। इतने दिनों से (हालांकि बहुत ज्‍यादा दिन नहीं) दुनिया में रहने के बावजूद उसके दिल से यह भय दूर नहीं हुआ।
खासतौर से रहमान काबुली के विषय में वह पूरी तरह सन्‍तुष्‍ट नहीं थी। उसी पर खास दृष्टि रखने के लिए वह मुझसे बार-बार प्रार्थना करती थी। मैं उसके सन्‍देह को हँसकर उङा देने की चेष्‍टा करता, तो वह मुझसे एक-एक कर कई सवाल पूछ बैठती-क्‍या कभी किसी का लङका चुराया नहीं गया? क्‍या काबुल में गुलामी की प्रथा अभी भी चालू नहीं है? एक लम्‍बे-चौङे काबुली के लिए, क्‍या एक छोटे-से बच्‍चे को चुराकर ले जाना मामुली-सी बात है?
मुझे मानना पङा कि यह बात बिल्‍कुल नामुकिन तो नहीं, पर यकीन लायक भी नहीं है। यकीन करने की शक्ति हरेक में समान नहीं होती, इसलिए मेरी पत्‍नी के मन में डर बना ही रह गया। मगर सिर्फ इसलिए बिना किसी दोष के रहमान को अपने घर में आने से मैं इंकार नही कर सका।
हर वर्ष माघ के महीने मे रहमान अपने देश चला जाता है। इस समय वह अपने रूपयों की वसूली में बुरी प्रकार फंसा रहता है। घर-घर दौङना पङता है, फिर भी वह एक बार मिनी से आकर मिल ही जाता है। देखने में प्रतीत होता है, जैसे दोनों में कोई साजिश चल रही हो। जिस रोज सवेरे नही आ पाता, उस दिन देखता हूँ कि वह शाम को अवश्‍य आता है। अंधेरे कमरे के कोने में उस ढीला-ढाला कुर्ता-पायजामा पहने झोली-झिंगोलीवाले लम्‍बे-तङंगे व्‍यक्ति को देखकर सचमुच मन में अचानक एक भय-सा लगता है, किंतु जब मैं देखता हूँ कि मिनी ‘काबुलीवाला-काबुलीवाला’ कहकर हँसते-हँसते दौङती चली आती और अलग-अलग आयु के दो मित्रों में पारुना सहज मजाक चलने लगता है, तो मेरा दिल प्रसन्‍नता से भर उठता।
एक दिन सवेरे मैं अपने छोटे कमरे में बैठा अपनी पुस्‍तक के प्रुफ देख रहा था। सर्दियों के दिन समाप्‍त होने से पहले, आज दो-तीन दिन से कङाके की ठंड पङ रही थी। चारों तरफ सबके दांत किटकिटा रहे थे। यह धूप मुझे काफी सुहावनी लग रही थी। सुबह के करीब आठ बजे होंगे। गुलुबन्‍द लपेटे सवेरे सैर को निकलने वाले लोग अपनी सैर खत्‍म कर घर लौट रहे थे। इसी समय सङक पर बङा शोरगुल सुनाई पङा।
देखा, हमारे रहमान को दो सिपाही बाँधे चले आ रहे हैं तथा उसके पीछे-पीछे तमाशबीन लङकों का झुण्‍ड चला आ रहा है। रहमान के वस्‍त्रों पर खून के दाग हैं और एक सिपाही के हाथ मे खून से रंगा छुरा है। मैंने द्वार से बाहर जाकर सिपाहियों से पूछा कि मामला क्‍या है?
कुछ उस सिपाही से और कुछ रहमान से सुना कि हमारे पङोस में एक व्‍यक्ति ने रहमान से उधार मे एक रामपुरी चादर खरीदी थी। कुछ रूपये अब भी उस पर शेष थे, जिन्‍हें देने से वह साफ मुकर गया। इसी बात पर बहस होते-होते रहमान ने उसे छुरा भौंक दिया।
रहमान उस झूठे व्‍यक्ति के प्रति तरह-तरह की गन्‍दी गालियाँ बक रहा था कि इतने में ‘काबुलीवाला-ओ काबुलीवाला’ पुकारती हुई मिनी घर से बाहर निकल आई।
पल-भर में रहमान का चेहरा अगलती आग को त्‍यागकर उजली हँसी से खिल उठा। उसके कन्‍धे पर आज झोली नहीं थी, इसलिए झोली के विषय में दोनों मित्रों की पुरानी बहस न छिङ सकी। मिनी आते ही अचानक उससे पूछ बैठी-तुम ससुराल जाओगे?
रहमान ने हँसकर बताया-वहीं तो जा रहा हूँ।
उसके इस उत्तर से मिनी मुस्‍कुराई नहीं। तब उसने हाथ दिखाते हुए कहा-ससुर को मारता, लेकिन क्‍या करूँ, हाथ बंधे हैं।
संगीन चोट पहुँचाने के अपराध में रहमान को कई वर्ष की कैद की सजा हो गई।
उसके विषय में मैं धीर-धीरे भूल ही गया। हम लोग जब अपने-अपने घरों मे रोजाना के कामों में लगे हुए आराम से दिन गुजार रहे थे, तब पर्वतों पर आजाद घूमने वाला व्‍यक्ति जेल की दीवारों में कैसे साल-पर-साल गुजार रहा होगा, यह बात कभी हमारे मन में नहीं आई।
    चंचल मन मिनी का बर्ताव तो और भी शर्मनाक था, यह बात उसके बाप को भी माननी पङी। उसने बङे ही बेलौस तरीके से अपने पुराने मित्र को भुलाकर पहले तो नबी सईस के साथ दोस्‍ती कर ली, फिर धीरे-धीरे जैसे-जैसे उसकी आयु बढने लगी वैसे-वैसे दोस्‍तों के बदले एक-के-पश्‍चात्-एक सहेलियाँ चुटने लगीं। यहाँ तक कि अब यह अपने बाबू के लिखने के कमरे में भी नहीं दिखलाई देती। मैंने भी एक प्रकार से उसके साथ कुट्टी कर ली थी।
काफी ही साल गुजर गए। फिर सर्दियों का मौसम आ गया। मेरी मिनी की शादी तय हो गई। दुर्गा पूजा की छुट्टी में ही विवाह हो जाएगा। कैलाशवासिनी पार्वती के साथ-साथ मेरे घर की आनन्‍दमयी भी पिता का घर छोङकर पति के घर चली जाएगी।
बङे ही मन लुभाने वाले तरीके से आज सवेरे सूर्योदय हुआ हैं बरसात के बाद सर्दियों की नई धुली हुई धूप ने जैसे सुहागे में गलाए हुए स्‍वच्‍छ और खरे सोने का रंग अपना लिया है। कलकत्ता के गलियारों में आपस में सटी टूटी ईंटोंवाली गन्‍दी इमारतों पर भी इस सूरज की चमक ने एक अनोखी खूबसूरती बिखेर दी है।
हमारे घर पर प्राप्‍त:काल होने से पहले से ही शहनाई बज रही हैं मुझे लग रहा है जैसे वह शहनाई मेरे ह्रदय में पसलियों के अन्‍दर रोती हुई बज रही है। उसका करूण भैरवी रोग जैसे मेरे सम्‍मुख खङी बिछोह की पीङा को जोङे की धूप के साथ दुनिया-भर में फैलाए दे रहा हो। आज मेरी मिनी का विवाह है।
आज सवेरे से ही बङी चहल-पहल और लोगों का आना-जाना आरम्‍भ हो गया। आंगन में बांस बाँधकर शामियाना लगाया जा रहा है, मकान के कमरों में तथा बरामदे पर झाङ लटकाए जाने की टन-टन सुनाई पङ रही हैं। हाय-हुल्‍ला का तो कोर्इ आखिर ही नहीं।
मैं अपने पढने-लिखने वाले कमरे में बैठा हुआ खर्च का हिसाब लिख रहा था कि रहमान आकर प्रणाम करते हुए खङा हो गया।
आरम्‍भ में मैं उसे पहचान न सका। उसके पास वह झोली नही थी। उसके वे लम्‍बे पट्टेदार बाल नही थें और न मुँह पर चमक थी। आखिर में मैं उसकी मुस्‍कुराहट देखकर उसे पहचान गया।
क्‍यों रहमान, तुम कब आए? मैंने पूछा।
उसने कहा कल शाम को ही जेल से छूटा हूँ।
यह बात जैसे मेरे कानों में जोर से टकराई। अब से पहले किसी खूनी को मैंने कभी अपनी आँखों से नहीं देखा था। इसे देखकर मेरा सारा ह्रदय विचलित-सा हो गया। मेरी इच्‍छा होने लगी कि आज इस शुभ दिन पर यह आदमी यहाँ से चला जाए, तो बहुत अच्‍छा हो।
मैंने उससे कहा-आज हमारे घर एक आवश्‍यक काम है। मैं उसी में लगा हुआ हूँ, आज तुम चले जाओ।
मेरी बात सुनते ही, वह उसी पल जाने को तैयार हुआ, मगर फिर दरवाजे के पास जा खङा हुआ और कुछ संकोच से भरकर कहने लगा-एक बार खोखी को देख नहीं सकता क्‍या?
शायद उसके मन में यही यकीन था कि मिनी अभी एक वैसी ही बनी हुई है। या उसने सोचा था कि मिनी आज भी वैसे ही पहले की तरह ‘काबुलीवाला-काबुलीवाला’ पुकारती भागती हुई आ जाएगी और उसकी हँसी-भरी अनोखी बातों में किसी प्रकार का कोई अन्‍तर नहीं आएगा। यहाँ तक कि पहले की दोस्‍ती की याद कर वह एक पेटी अंगूर और कागज के दोने मे थोङा किशमिश-बादाम शायद किसी अपने वतनी मित्र से माँग-मूंगकर ले आया था। उसकी पहले वाली झोली उसके निकट नहीं थी।
मैंने कहा-आज घर पर काम है। आज किसी से भेंट न हो सकेगी।
वह कुछ उदास-सा हो गया। खामोश खङा मेरी तरफ एकटक देखता रहा, फिर ‘सलाम बाबू’ कहकर द्वार से बाहर निकल गया।
मेरे दिल में एक दर्द की टीस-सी उठी। सोच रहा था कि उसे बुला लूं फिर देखा, वह खुद ही चला आ रहा है।
समीप आकर उसने कहा-ये अंगूर, किशमिश और बादाम खोखी के लिए ले आया हूँ, उसको दे दीजिएगा।
सब लेकर मैंने मूल्‍य देना चाहा, तो उसने एकदम मेरा हाथ पकङ लिया, कहा-आपकी बङी मेहरबानी है बाबू, सदा याद रहेगी। इसका मुझे पैसा न दें....। बाबू, जैसी तुम्‍हारी लङकी खोखी के लिए थोङा-सा मेवा हाथ में लिए चला आता था। मैं यहाँ इस समय कोई सौदा बेचने नहीं आया।
इतना कहकर उसने अपने ढीले-ढाले कुर्ते के भीतर हाथ डालकर एक मैला-सा कागज निकाला और बङे प्रेम से उसकी तहें खोलकर दोनों हाथ से उसे मेज पर फैला दिया।
मैंने उसमें देखा, कागज पर एक नन्‍हें-से हाथ के पंजे की छाप हैं। फोटो नहीं, तैलचित्र नहीं, केवल हथेली में थोङी-सी कालिख लगाकर उसी का निशान ले गया है। बेटी की इस नन्‍हीं-सी याद को छाती से लगाये रहमान हर वर्ष कलकत्ता की गलियों में मेवा बेचने आता था, जैसे उस नाजुक नन्‍हें हाथ का स्‍पर्श उसके बिछङने से भरे चौङे सीने में अमृत घोले रहता था।
देखकर मेरी आँखें छलक आईं। फिर मैं यह भूल गया कि वह एक काबुली मेवा वाला है और मैं किसी ऊँचे घराने का बंगाली। तब मैं यह तजुर्बा करने लगा कि जो वह है, वही मैं भी हूँ। वह भी पिता है और मैं भी। उसकी पर्वतवासिनी नन्‍हीं पार्वती के हाथ की निशानी ने ही मेरी मिनी की याद दिला दी। मैंने उसी वक्‍त मिनी को बाहर बुलवाया। घर में इस पर बङी आपत्ति की गई, पर मैंने एक न सुनी। विवाह की लाल बनारसी साङी पहने माथे पर चन्‍दन की अल्‍पना सजाए दुल्‍हन बनी मिनी शर्म से भरी मेरे निकट आकर खङी हो गई।
उसे देखकर काबुली पहले तो सकपका-सा गया, अपनी पुरानी बातें अबकी बार दोहरा न सका। आखिर में हँसकर बोला-खोखी तुम ससुराल जाओगी?
मिनी अब ससुराल शब्‍द का अर्थ अच्‍छी तरह समझती है। उससे पहले कि तरह उत्तर देते न बना। रहमान का प्रश्‍न सुनकर शर्म से लाल हो मुँह फेरकर खङी हो गई। काबुली से मिनी के पहले दिन की भेंट मुझे याद आ गई। मन न जाने कैसी वेदना से भर उठा।
मिनी के चले जाने के पश्‍चात् एक लम्‍बी सांस लेकर रहमान वहीं धरती पर बैठ गया। अचानक उसके दिल में एक बात साफ हो गई कि उसकी लङकी भी इस बीच इतनी ही बङी हो गई होगी और उसके हाथ भी उसे नए तरीके से बातचीत करनी पङेगी। वह उसे फिर से पहले वाले रूप में नहीं पाएगा। इन आठ सालों में न जाने उसका क्‍या हुआ होगा। सवेरे के समय सर्दियों की सुहावनी कोमल धूप मे शहनाई बजने लगी और कलकत्ता की एक गली में बैठा हुआ रहमान अफगानिस्‍तान के मेरूपर्वतों का नजारा देखने लगा।
मैंने उसे एक बङा-सा नोट निकालकर दिया, कहा-रहमान, तुम अपने देश अपनी बेटी के पास चले जाओ। तुम दोनों के मिलन के सुख से मेरी मिनी का कल्‍याण होगा।

यह रूपया दान करने के बाद मुझे विवाहोत्‍सव की दो-चार वस्‍तुएँ कम कर देनी पङीं। मन में जैसी मर्जी थी, उस तरह रोशनी नहीं कर सका। किले का अंग्रेजी बैंड भी नहीं मंगा पाया। घर में औरतें बङा असन्‍तोष प्रकट करने लगीं, मगर मंगल-ज्‍योति से मेरा यह शुभ समारोह उज्‍जवल हो गया।   
काबुलीवाला काबुलीवाला Reviewed by Kahaniduniya.com on अक्टूबर 14, 2019 Rating: 5

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