गांधी के सिद्धांत



सत्‍य :- गांधीजी ने अपना जीवन सत्‍य, या सच्‍चाई की व्‍यापक खोज में समर्पित कर दिया। उन्‍होंने इस लक्ष्‍य को प्राप्‍त करने के लिए अपनी स्‍वयं की गल्तियों और खुद पर प्रयोग करते हुए सीखने की कोशिश की । उन्‍होंने अपनी आत्‍मकथा को सत्‍य के प्रयोग का नाम दिया।

गांधीजी ने कहा कि सबसे महत्‍वपूर्ण लङाई लङने के लिए अपने दुष्‍टात्‍माओं, भय और असुरक्षा जैसे तत्‍वों पर विजय पाना है। गांधी ने अपने विचारों को सबसे पहले उस समय संक्षेप में व्‍यक्‍त किया जब उन्‍होंने भगवान ही सत्‍य है बाद में उन्‍होंने अपने इस कथन को सत्‍य की भगवान है में बदल दिया। इस प्रकार, सत्‍य में गांधी के दर्शन है परमेश्‍वर
अहिंसा -: हालांकि गांधीजी अहिंसा के सिद्धांत के प्रवर्तक बिल्‍कुल नहीं थे फिर भी इसे बङे पैमाने पर राजनैतिक क्षेत्र में इस्‍तेमाल करने वाले वे पहले और अप्रतिकार का भारतीय धार्मिक विचारों में एक लंबा इतिहास है और इसके हिंदु, बौद्ध, जैन, यहूदी, और ईसाई समुदायों में बहुत सी अवधारणाएं हैं। गांधीजी अपने आत्‍मकथा द स्‍टोरी ऑफ माय एक्‍सपेरिमेंट्स विथ टुथ में दर्शन और अपने जीवन के मार्ग का वर्णन किया है। उन्‍हें कहते हुए बताया गया था।

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जब मैं निराश होता हूं तब मैं याद करता हूं कि हालांकि इतिहास सत्‍य का मार्ग होता है किंतु प्रेम इस सदैव जीत लेता है। यहां अत्‍याचारी और हत्‍यारे भी हुए हैं और कुछ समय के लिए वे अपराजय लगते थे। किंतु अंत में उनका पतन ही होता है। इसका सदैव विचार करें।
मृतकों, अनाथ तथा बेघरों के लिए इससे क्‍या फर्क पङता है कि स्‍वतंत्रता और लोकतंत्र के पवित्र नाम के नीचे संपूर्णवाद का पागल विनाश छिपा हैं।

एक आंख के लिए दूसरी आंख पूरी दूनिया को अंधा बना देगी।

मरने के लिए मैरे पास बहुत से कारण है किंतु मेरे पास किसी को मारने का कोई भी कारण नहीं हैं।

इन सिद्धातों को लागू करने मे गांधी जी ने इन्‍हें दुनिया को दिखाने के लिए सर्वाधिक तार्किक सीमा पर ले जाने से भी मुंह नहीं मोङा जहां सरकार, पुलिस और सेनाए भी अहिंसात्‍मक बन गईं थीं। फॉर पसिफिस्‍ट्सनामक पुस्‍तक से उद्धरण लिए गए हैं।

विज्ञान का युद्ध किसी व्‍यक्ति को तानाशाही, शुद्ध और सरलता की ओर ले जाता है। अहिंसा का विज्ञान अकेले ही किसी व्‍यक्ति को शुद्ध लोकतंत्र के मार्ग की ओर ले जा सकता है। प्रेम पर आधारित शक्ति सजा के डर से उत्‍पन्‍न शक्ति से हजार गुणा अधिक और स्‍थायी होती है। यह कहना निंदा करने जैसा होगा कि अहिंसा का अभ्‍यास केवल व्‍यक्तिगत तौर पर किया जा सकता है और व्‍यक्तिवादिता वाले देश इसका कभी भी अभ्‍यास नहीं कर सकते हैं। शुद्ध अराजकता का निकटतम दृष्टिकोण अहिंसा पर आधारित लोकतंत्र होगा। संपूर्ण अहिंसा के आधार पर संगठित और चलने वाला कोई समाज शुद्ध अराजकता वाला समाज होगा।

मैं ने भी स्‍वीकार किया कि एक अहिंसक राज्‍य में भी पुलिस बल की जरूरत अनिवार्य हो सकती है। पुलिस रैंकों का गठन अहिंसा में विश्‍वास रखने वालों से किया जाएगा। लोग उनकी हर संभव मदद करेंगे और अपसी सहयोग के माध्‍यम से वे किसी भी उपद्रव का आसानी से सामना कर लेंगे। श्रम और पूंजी तथा हङतालों के बीच हिंसक झ्‍गङें बहुत कम होंगे क्‍योंकि अहिंसक समाज की बाहुलता का प्रभाव समाज में प्रमुख तत्‍वों का सम्‍मान करने के लिए महान होगा। इसी प्रकार साम्‍प्रदायिक अव्‍यवस्‍था के लिए कोई जगह नहीं होगी।

शांति एवं अव्‍यवस्‍था के समय सशस्‍त्र सैनिकों की तरह सेना का कोई अहिंसक कार्य उनका यह कर्तव्‍य होगा कि वे विजय दिलाने वाले समुदायों को एकजुट करें जिसमें शांति का प्रसार, तथा ऐसी गतिविधियों का समावेश हो जो किसी भी व्‍यक्ति को उसके चर्च अथवा खंड में संपर्क बनाए रखते हुए अपने साथ मिला लें। इस प्रकार की सेना को किसी भी आपात स्थिति से लङने के लिए तैयार रहना चाहिए तथा भीङ के क्रोध को शांत करने के लिए उसके पास मरने के लिए सैनिकों की पर्याप्‍त नफरी भी होनी चाहिए। सत्‍याग्रह (सत्‍यबल) के बिग्रेड को प्रत्‍येक गांव तथा शहर तक भवनों के प्रत्‍येक ब्‍लॉक में संगठित किया जा सकता है यदि अहिंसात्‍मक समाज पर हमला किया जाता है तब अहिंसा के दो मार्ग खुलते हैं। अधिकार पाने के लिए हमलावर से सहयोग न करें बल्कि समर्पण करने की अपेक्षा मृत्‍यु को गले लगाना पसंद करें। दूसरा तरीका होगा ऐसी जनता द्वारा अहिंसक प्रतिरोध करना हो सकता है जिन्‍हें अहिंसक तरीके से प्रशिक्षित किया गया हो। इस अप्रत्‍याशित प्रदर्शन की अनंत राहों पर आदमियों और महिलाओं को हमलावर की इच्‍छा लिए आत्‍मसमर्पण करने की बजाए आसानी से मरना अच्‍छा लगता है और अंतत: उसे तथा उसकी सैनिक बहादुरी के समक्ष पिघलना जरूर पङता हैं। ऐसे किसी देश अथवा समूह जिसने अंहिंसा को अपनी अंतिम निति बना लिया है उसे परमाणु बम भी अपना दास नहीं बना सकता है। उस देश में अहिंसा का स्‍तर खुशी-खुशी गुजरता है। तब वह प्राकृतिक तौर पर इतना अधिक बढ जाता है कि उसे सार्वभोमिक आदर मिलने लगता हैं।

इन विचारों के अनुरूप 1940 में जब नाजी जर्मनी द्वारा अंग्रेजों के द्वीपों पर किए गए हमले आसन्‍न दिखाई दिए तब गांधीजी ने अंग्रेजों को शांति और युद्ध में अहिंसा की निम्‍‍नलिखित नीति का अनुसरण करने को कहा।

मैं आपसे हथियार रखने के लिए कहना पसंद करूंगा क्‍योंकि वे आपको अथवा मानवता को बचाने में बेकार हैं। आपको हेर हिटलर और सिगनोर मुसोलिनी को आमंत्रित करना होगा कि उन्‍हें देशों से जो कुछ चाहिए आप उन्‍हें अपना अधिकार कहते हैं। यदि इन सज्‍जनों को अपने घर पर रहने का चयन करना है तब आपको उन्‍हें खाली करना होगा। य‍दि वे तुम्‍हें आसानी से रास्‍ता नहीं देते हैं तब आप अपने आपको, पुरूषों को महिलाओं को और बच्‍चों की बलि देने की अनुमति देंगे। किंतु अपनी निष्‍ठा के प्रति झुकने से इंकार करेंगे।

1946 में युद्ध के बाद दिए गए एक साक्षात्‍कार में उन्‍होंने इससे भी आगे एक विचार का प्रस्‍तुतीकरण किया।
यहूदियों को अपने लिए स्‍वयं कसाई का चाकू दे देना चाहिए था। अपने आप को समुद्रीचट्टानों से समुद्र के अंदर फैंक देना चाहिए।
फिर भी गांधीजी को पता था कि इस प्रकार के अहिंसा के स्‍तर को अटूट विश्‍वास और साहस की जरूरत होगी और इसके लिए उसने महसूस कर लिया था कि यह हर किसी के पास नहीं होता है। इसलिए उन्‍होंने प्रत्‍येक व्‍यक्ति को परामर्श दिया कि उन्‍हें अहिंसा को अपने पास रखने की जरूरत नहीं है खास तौर पर उस समय जब इसे कायरता के संरक्षण के लिए उपयोग में किया गया हो।

गांधीजी ने अपने सत्‍याग्रह आंदोलन में ऐसे लोगों को दूर ही रखा जो हथियार उठाने से डरते थे अथवा प्रतिरोध करने में स्‍वयं की अक्षमता का अनुभव करते थे। उन्‍होंने लिखा मैं मानवता हूं कि जहां डरपोक और हिंसा में से किसी एक को चुनना हो तो में हिंसा के पक्ष में अपनी राय दूंगा।

प्रत्‍येक सभा पर मैं तब तक चेतावनी दोहराता रहता था जब तक वन्‍हें यह अहसास नहीं हो जाता है कि वे एक ऐसे अंहिसात्‍मक बल के अधिकार में आ गए हैं जिसके अधिकार में वे पहले भी थे और वे उस प्रयोग के आदि हो चुके थे और उनका मानना था कि उन्‍हें अहिंसा से कुछ लेना देना नहीं हैं तथा फिर से हथियार उठा लिए थे। खुदाई खिदमतगार के बारे में ऐसा कभी नहीं कहना चाहिए कि जो एक बार इतने बहादुर थे कि बादशाह खान के प्रभाव में अब वे डरपोक बन गए। वीरता केवल अच्‍छे निशाने वालों में ही नहीं होती है बल्कि मृत्‍यु को हरा देने वालों में तथा अपनी छातियों को गोली खाने के लिए सदा तैयार रहने वाले में भी होती है।
शाकाहारी रवैया
बाल्‍याकाल में गांधी केा मांस खाने का अनुभव मिला। ऐसा उनकी उत्तराधिकारी जिज्ञासा के कारण ही था जिसमें उसके उत्‍साहवर्धक मित्र शेख मेहताब का भी योगदान था। वेजीटेरिनिज्‍म का विचार भारत की हिंदू और जैन प्रथाओं में कूट-कूट भरा हुआ था तथा उनकी मातृभूमि गुजरात में ज्‍यादातर हिंदु शाकाहारी ही थे। इसी तरह जैन भी थे। गांधी का परिवार भी इससे अछूता नहीं था। पढाई के लिए लंदन आने से पूर्व गांधी जी ने अपनी माता पुतलीबाई और अपने चाचा बेचारजी स्‍वामी से एक वायदा किया था कि वे मांस खाने, शराब पीने से तथा संकीणता से दूर रहेंगे। उन्‍होंने अपने वायदे रखने के लिए उपवास किए और ऐसा करने से सबूत कुछ ऐसा मिला जो भोजन करने से नहीं मिल सकता था, उन्‍होंने अपने जीवन पर्यन्‍त दर्शन के लिए आधार जो प्राप्‍त कर लिया था। जैसे-जैसे गांधी जी व्‍यस्‍क होते गए वे पूर्णतया शाकाहारी बन गए। उन्‍होंने द मोरल बेसिस ऑफवेजीटेरियनिज्‍म तथा इस विषय पर बहुत सी लेख्‍ भी लिखें हैं जिनमें कुछ लंदन वेजीटेरियन सोसायटी के प्रकाशन द वेजीटेरियन मे प्रकाशित भी हुए हैं। गांधीजी स्‍वयं इस अवधि में बहुत सी महान विभूतियों से प्रेरित हुए और लंदन वेजीटेरियन सोसायटी के चैयरमेन डॉ. जोसिया ओल्‍डफील्‍ड के मित्र बन गए।

हेनरी स्‍टीफन साल्‍टा हेनरी स्‍टीफन साल्‍ट की कृतियों को पढने और प्रशंषा करने के बाद युवा मोहनदास गांधी शाकाहारी प्रचारक से मिल और उनके साथ पत्राचार किया। गांधी जी ने लंदन में रहते समय और उसके बाद शाकाहारी भोजन की वकालत करने में काफी समय बिताया। गांधी जी का कहना था कि शाकाहारी भोजन न केवल शरीर की जरूरतों को पूरा करता है बल्कि यह आर्थिक प्रयोजन की भी पूर्ति करता है जो मांस से होती है और फिर भी मांस अनाज, सब्जियों और फलों से अधिक मंहगा होता है। इसके अलावा कई भारतीय जो आय कम होने की वजह से संघर्ष कर रहे थे, उस समय जो शाकाहारी के रूप में दिखाई दे रहे थे, वह आध्‍यात्मिक परम्‍परा ही नहीं व्‍यावहारिकता के कारण भी था, वे बहुत देर तक खाने से परहेज रखते थे। और राजनैतिक विरोध के रूप में उपवास रखते थे उन्‍होने अपनी मृत्‍यु तक खाने से इनकार किया जब तक उनका मांग पुरा नही होता उनकी आत्‍मकथा मे यह नोट किया गया है कि शाकाहारी होना ब्रह्मचर्य मे गहरी प्रतिबद्धता होने की शुरूआत सीढी है, बिना कुल नियंत्रण ब्रह्मचर्य में उनकी सफल लगभग असफल है।

गाँधीजी शुरू से फलाहार करते थे लेकिन अपने चिकित्‍सक की सलाह से बकरी का दूध पीना शुरू किया था, वे कभी भी दग्‍ध–उत्‍पाद का सेवन नही करते थे क्‍योंकि पहले उनका मानना था कि दूध मनुष्‍य का प्राकृतिक आहार नहीं होता और उन्‍हें गाय के चीत्‍कार सेघृणा थी और सबसे महत्‍वपूर्ण कारण था शपथ जो उन्‍होंने अपनी स्‍वर्गीय माँ से किया था

ब्रह्मचर्य :- जब गाँधीजी सोलह साल के हुए तब उनके पिताश्री की तबियत बहुत खराब थी उनके पिता की बीमारी के दौरान वे हमेशा उपस्थित रहते थे क्‍योंकि वे अपने माता-पिता के प्रति अत्‍यंत समर्पित थे, यद्यपि, गाँधीजी को कुछ समय की राहत देने के लिए एक दिन उनके चाचा जी आए वे आराम के लिए शयनकक्ष पहुंचे जहाँ उनकी शारीरिक अभिलाषाएं जागृत हुई और उन्‍होंने अपनी पत्‍नी से प्रेम किया नौकर के जाने के पश्‍चात् थोङी ही देर में खबर आई की गाँधीजी के पिता का अभी-अभी देहांत हो गया है, गाँधीजी को जबरदस्‍त अपराध महसूस हुआ और इसके लिए वे अपने आपको कभी माफ नहीं कर सकते थे।
उन्‍होंने इस घटना का जिक्र दोहरी शर्म में किया इस घटना का गाँधीजी पर महत्‍वपूर्ण प्रभाव पङा और वे 36 वर्ष की उम्र में ब्रह्मचर्य की और मुङने लगे, जबकि उनकी शादी हो चुकी थी।

यह निर्णय ब्रह्मचर्य के दर्शन से पूरी तरह प्रभावित था आध्‍यात्मिक और व्‍यवहारिक शुद्धता बङें पैमाने पर ब्रह्मचर्य और वैराग्‍यवाद से जुदा होता है, गाँधीजी ने ब्रह्मचर्य को भगवान् के करीब आने और अपने को पहचानने का प्राथमिक आधार के रूप में देखा था अपनी आत्‍मकथा में वे अपनी बचपन की दुल्‍हन कस्‍तूरबा के साथ अपनी कामेच्‍छा और इर्ष्‍या के संघर्षो को बताते हैं उन्‍होंने महसूस किया कि यह उनका व्‍यक्तिगत दायित्‍व है कि उन्‍हें ब्रह्मचर्य रहना है ताकि वे बजाय हवस के प्रेम को सिख पायें गाँधीजी के लिए ब्रह्मचर्य का अर्थ था इन्द्रियों के अंतर्गत विचारों, शब्‍दों और कर्म पर नियंत्रण

सादगी -: गाँधीजी का मानना था कि अगर एक व्‍यक्ति समाज सेवा में कार्यरत है तो उसे साधारण जीवन की और ही बढना चाहिए जिसे वे ब्रह्मचर्य के लिए आवश्‍यक मानते थे, उनकी सादगी ने पश्‍चमी जीवन शैली को त्‍यागने पर मजबूर करने लगा और वे दक्षिण अफ्रीका में में फैलने लगे थे वे खुद को शून्‍य के स्थिति में लाना कहते हैं जिसमें अनावश्‍यक खर्च, साधारण जीवन शैली को अपनाना और अपने वस्‍त्र स्‍वयं धोना आवश्‍यक है, एक अवसर पर जन्‍मदार की और से सम्‍मुदाय के लिए उनकी अनवरत सेवा के लिए प्रदान किए गए उपहार को भी वापस कर देते हैं।
गाँधीजी सप्‍ताह में एक दिन मौन धारण करते थे, उनका मानना था कि बोलने के परहेज से उन्‍हें आंतरिक शान्ति  मिलाती है, उनपर यह प्रभाव हिन्‍दू मौन सिद्धांत का है।
(संस्‍कृत – मौन) और शान्ति (संस्‍कृत – शांति) वैसे दिनों में वे कागज पर लिखकर दूसरों के साथ संपर्क करते थे 37 वर्ष की आयु से साढे तीन वर्षो तक गांधीजी ने अखबारों को पढने से इनकार कर दिया जिसके जवाब में उनका कहना था कि जगत की आज जो स्थित अवस्‍था है उसने उसे अपनी स्‍वयं की आंतरिक अशांति की तुलना में अधिक भ्रमित किया है।

जॉन (रस्किन की अन्‍टू दिस लास्‍ट पढने के बाद उन्‍होंने अपने जीवन शैली में परिवर्तन करने का फैसला किया तथा एक समुदाय बनाया जिसे अमरपक्षी अवस्‍थापन कहा जाता था,
दक्षिण अफ्रीका, जहाँ से उन्‍होंने वकालत पूरी की थी तथा धन और सफलता के साथ जुङे थे। वहां से लौटने के पश्‍चात् उन्‍होंने पश्‍चमी शैली के वस्‍त्रों का त्‍याग किया, उन्‍होंने भारत के सबसे गरीब इंसान के द्वारा जो वस्‍त्र पहने जाते हैं उसे स्‍वीकार किया, तथा घर में बने हुए कपङे (खादी) पहनने की वकालत भी की गाँधी और उनके अनुयायियों ने अपने कपङे सूत के द्वारा खुद बुनने के अभ्‍यास को अपनाया और दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्‍साहित किया हालाँकि भारतीय श्रमिक बेरोजगारी के कारण बहुधा आलसी थे, वे अक्‍सर अपने कपङे उन औद्योगिक निर्माताओं से खरीदते थे जिसका उद्देश्‍य ब्रिटिश हितों को पुरा करना था, गाँधी का मत था कि अगर भारतीय अपने कपङे खुद बनाने लगे, तो यह भारत में बसे ब्रिटिशों को आर्थिक झटका लगेगा, फलस्‍वरूप, बाद में चरखा को भारतीय राष्‍ट्रीय झंडा में शामिल किया गया, अपने साधारण जीवन को दर्शाने के लिए उन्‍होंने बाद में अपनी बाकी जीवन में धोती पहनी।

विश्‍वास -: गाँधी का जन्‍म हिंदू धर्म में हुआ, उनके पूरे जीवन में अधिकतर सिधान्‍तो की उत्‍पति हिंदुत्‍व से हुआ साधारण हिंदू कि तरह वे सारे धर्मो को समान रूप से मानते थे, और सारे प्रयासों जो उन्‍हें धर्म परिवर्तन के लिए कोशिश किए जा रहे थे उसे अस्‍वीकार किया वे ब्रह्मज्ञान के जानकार थे और सभी प्रमुख धर्मो के बारे में निम्‍नलिखित कहा है।

हिंदू धर्म के बारे में जितना मैं जानता हूँ यह मेरी आत्‍मा को संतुष्‍ट करती है, और सारी कमियों को पूरा करती है जब मुझे संदेह घेर लेती है, जब निराशा मुझे घूरने लगती है, और जब मुझे आशा की कोई किरण नजर नही आती है, तब मैं भगवद् गीता को पढ लेता हूँ और तब मेरे मन को असीम शान्ति मिलती है और तुंरत ही मेरे चेहरे से निराशा के बादल छंट जाते हैं और मैं खुश हो जाता हूँ मेरा पुरा जीवन त्रासदियों से भरा है और यदि वो दृश्‍यात्‍मक और अमिट प्रभाव मुझ पर नही छोङता, मैं इसके लिए भगवत गीता के उपदेशों का ॠणी हूँ।

गाँधी ने भगवद गीता की व्‍याख्‍या गुजराती में भी की हैं महादेव देसाई ने गुजराती पाण्‍डुलिपि का अतिक्ति भूमिका तथा विवरण के साथ अंग्रेजी में अनुवाद किया है गाँधी के द्वारा लिखे गए प्राक्‍कथन के साथ इसका प्रकाशन1946 में हुआ था।
गाँधी का मानना था कि प्रत्‍येक धर्म के मूल में सत्‍य ओर प्रेम होता है(संवेदना, अहिंसा और स्‍वर्ण नियम) ढोंग, कुप्रथा आदि पर भी उन्‍होंने सभी धर्मो के सिधान्‍तों के सवाल किए और वे एक अथक समाज सुधारक थे, उनकी कुछ टिप्‍पणियां विभिन्‍न धर्मो पर है,

यदि मैं ईसाई धर्म को आदर्श के रूप में या महानतम रूप में स्‍वीकार नहीं कर सकता तो कभी भी मैं हिन्‍दुत्‍व के प्रति इस प्रकार दृङ निश्‍चयी नहीं बना पाता, हिन्‍दू दोष दुराग्रहपूर्वक मुझे दिखाई देती थी यदि अस्‍पृश्‍यता हिंदुत्‍व का हिस्‍सा होता तो वह इसका सबसे सडा अंग होता। सम्‍प्रदायों की अनेक जातियों और उनके अस्तित्‍व को मैं कभी समझ नही सकता इसका क्‍या अर्थ है कि वेद परमेश्‍वर के शब्‍द से प्रेरित है? यदि वें प्रेरित थे तो क्‍यों नहीं बाइबल और कुरान? ईसाई दोस्‍त मुझे परिवर्तित करेन का प्रयास करते हैं तो मुस्लिम दोस्‍त क्‍या करेंगे अब्‍दुल्‍लाह शेठ मुझे हमेशा इस्‍लाम का अध्‍ययन करने के लिए प्रेरित करते थे और निश्चित रूप से हमेशा इस्‍लाम की सुन्‍दरता का ही बखान करते थे। स्‍त्रोत उनकी आत्‍मकथा।
जितना जल्‍दी हम नैतिक आधार से हारेंगे उतना ही जल्‍दी हममे धार्मिक युद्ध समाप्‍त हो जायेगी ऐसी कोई बात नहीं है की धर्म नैतिकता के उपर हो उदाहरण के तौर पर कोई मनुष्‍य असत्‍यकादी, क्रूर या असंयमी हो और वह यह दावा करे कि परमेश्‍वर उसके साथ हैं कभी हो ही नहीं सकता।
मुहम्‍मद की बातें ज्ञान का खजाना है सिर्फ मुसलमानों के लिए ही नहीं बल्कि पूरी मानव जाति के लिए।

बाद में उनके जीवन मे जब पूछा गया कि क्‍या तुम हिंदू हो, उन्‍होंने कहा,

हाँ मैं हूँ मैं भी एक ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध और यहूदी हूँ

एक दूसरे के प्रति गहरा आदर भाव होने के बावजूद गाँधी और रविन्‍द्रनाथ टैगोर एक से अधिक बार लम्‍बी बहस में लगे रहे, यह वाद विवाद दोनों के दार्शनिक मतभेद को दर्शाती है और ये दोनों ही उस समय के प्रसिद्ध भारतीय दार्शनिक थे। 15 जनवरी 1934 में बिहार में एक भूकंप आया और जिसके कारण व्‍यापक नुकसान हुआ और कई जाने गईं। गाँधीजी ने अपने आप को संभाला क्‍योंकि यह पाप हिंदू धर्म के उच्‍च जाति वर्गो के द्वारा किया गया था जो अपने मंदिरों में अछूतों को अंदर जाने से मना करते थे (गाँधीजी के कारण ही छुआछुत में वृद्धि हुई थी क्‍योंकि उन्‍होने उन्‍हें हरिजन, कृष्‍ण के लोग कहा था, गाँधीजी के विचारों का टैगोर ने जोरदार विरोध किया और कहा कि भूकंप नैतिक कारणों से नहीं प्राकृतिक शक्तियों से होती हैं, वह अस्‍पृश्‍यता की प्रथा के कितने ही विरूद्ध हो। 
गांधी के सिद्धांत गांधी के सिद्धांत Reviewed by Kahaniduniya.com on अक्तूबर 03, 2019 Rating: 5

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