काफी समय पहले की बात है, काशी की महारानी
करूणादेवी अपनी सखियों और दासियों के साथ नहाने के लिए निकली हैं। नदी का स्वच्छ
पानी बह रहा है। सर्दियों का महीना है। ठंडी-ठंडी पवन चल रही है।
शहर
से दूर, नदी के किनारे पर आज एक भी व्यक्ति दिखायी नहीं दे रहा। निकट ही गरीबों की
घास-फूंसी की झोंपङियाँ हैं। राजा का आदेश है-महारानी स्नान करने पधार रही हैं,
इसलिए सभी झोंपङियों में रहने वाले लोग झोंपङियाँ खाली करके कहीं चले जायें।
महारानी नहाकर आ जायें, तो लौट आयें।
इसलिए सारी झोंपङियाँ सुनसान पङी है।
ठंडी
पवन के झोंकों ने नदी के पानी में हिलोरें उठा दी। उगते सूर्य की किरणें पानी की
सतह पर झिलमिल-झिलमिल कर रही हैं। पक्षी चहचहा रहे हैं।
रानी
जी सखी-सहेलियों के साथ खिलखिती हुई नहा रही हैं। सखियाँ हास-परिहास कर रही हैं।
माहौल हँसी से भर उठा है। पानी पर हाथों की छप-छप से एक मधुर संगीत-सा निकल रहा
है।
स्नान
करके महारानी नदी के तट पर आयीं। चिल्लाकर बोलीं-“सहेलियों! आग कौन जलायेगी? सर्दी की वजह
से मैं तो मरी जा रही हूं।”
सभी सखियाँ दौङ निकली और वृक्षों की टहनियाँ
खिंच-खिंचकर वहाँ लाने लगीं।
मगर
इन कोमल हाथों में एक भी शाखा तोङ लाने की ताकत कहाँ थी! रानी ने फिर चिल्लाकर
कहा, “अरि सखियों देखो, वे सामने ही घास की झोंपङियाँ खङी हैं। इन्हीं में से
एक झोपङी को दियासलाई लगा दो। इसकी गर्मी से हाथ सेंक लूंगी।”
मालती
नाम की एक दासी करूण भाव से बोली-“रानीजी, इस तरह का मजाक भी कहीं हो सकता
है? इन झोंपङियों में साधु-संन्यासी रहते होंगे, निर्धन परदेसी रहते होंगे। क्या
उन बेचारों के छोटे घरों को भी आप जला देना चाहती हैं?”
“अहा, बङी आई दया दिखाने वाली। सखियों
निकाल भगाओ इस दयालु लङकी को और आग लगा दो
इन झोंपङियों में।” सर्दी के मारे रानी ने कहा। दासियों ने झोंपङियों को आग लगा दी। पवन के
तेज झोंको को पाकर आग की लपटें आसमान से छू गयीं। लपटों को ऊँची देख महारानी और
उसकी सहेलियाँ खुशी से झूम उठीं। पक्षियों ने अपने कलरव बन्द कर दिये। पेङों पर
कौओं के झुंड कांव-कांव करने लगे। तेज अग्नि एक झोंपङी से दूसरी झोंपङी तक जा
पहुँच। देखते-ही-देखते
सारी झोंपङियाँ जलकर खाक हो गयीं।
ऱेशमी
ओढनी के पल्ले को लहराती तथा आनन्द मनाती रानी सहेलियों तथा सेविकाओं के साथ राजभवन
को लौट चलीं। राजा इंसाफ की गद्दी पर आसीन थे। रानी ने सर्दी भगाने के लिए आग
लगायी थी। इसलिए बेघर हुए निर्धनों ने राजसभा ने इंसाफ की गुहार लगायी। राजा ने
प्रार्थना सुनी। उनका चेहरा गुस्से से तमतमा उठा। वह फौरन राजमहल पहुँचे।
“रानीजी, अभागी प्रजा के घर-बार जलाकर राख
कर दिये, यह किस राजधर्म के अनुसार?” राजा ने सवाल किया।
रूठकर
रानी बोली-“इन गन्दी झोंपङियों को आप हिसाब से घर-बार कह रहे हैं? इन पच्चीस
झोंपङियों की कीमत क्या है। राजा-रानी के एक प्रहार के मनोरंजन में कितना धन व्यय
हो जाता है, राजाजी?”
ऱाजा
की आँखों में ज्वाला भङक उठी। वह रानी से बोले, “जब तक आप इस राजमहल में रह रही हैं, तब तक
आप इस बात को नही ंसमझ सकतीं कि गरीबों की झोंपङियाँ जल जाने पर उनको क्या दु:ख
होता है। चलो, यह बात आपको अच्छी प्रकार से समझा देता हूँ।”
दासी
को बुलाकर राजा ने हुक्म दिया, “रानी के जेवर उतार लो, इनके शरीर से ओढनी
उतार लो।”
गहने
उतार लिये गये। रेशमी ओढनी भी उतार ली गयी। “अब किसी भिखारिन के वस्त्र लाकर रानी को
पहना दो।” राजा ने आदेश दिया।
दासी
ने आदेश का पालन किया। राजा रानी का हाथ पकङकर राजमार्ग पर ले गये। वहाँ लोगों की
भीङ के बीच राजा बोले-
“काशी की अभिमानी महारानी! नगर के द्वार
द्वार पर भीख माँगते हुए भटकते रहो। जब तक आप जली झोपडियाँ फिर से तैयार नहीं करवा
देतीं, तब तक आप घर मत लौटना। एक साल का अवसर देता हूँ। एक साल बीत जाने पर भरी
सभा में आकर शीश नवाकर प्रजा को बताना कि थोङी-सी निर्धन झोंपङियों को जला देने से
संसार को कितनी तकलीफ हुई है।”
ऱाजा
की आँखों में आँसू छलक आये। रानी भी भिखारिन के वेश में चल पङीं। उस दिन के पश्चात्
से राजा फिर इंसाफ की गद्दी पर नहीं बैठ सके।
राजा का न्याय
Reviewed by Kahaniduniya.com
on
अक्टूबर 15, 2019
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