एक दिन की बात है जंगल में शाम को
अंधियारा छा रहा था। गुरू गोविन्दसिंह एकांत में बैठे थे। अपने थके हुए जिस्म को
कृपाण पर टिकाये हुए गुरूजी न जाने क्या सोच रहे थे?
गुरूजी
सोच रहे थे अपनी जीवन-गाथा पर-“युवावस्था में अपने दिल में मैंने न जाने
कितने मनोरथ संजोये। पूरे भारतवर्ष को अपनी बांहों में उठा लेने का ख्वाब था।
कितना सुन्दर, कितना भव्य तथा कितना मोहक! आज इस कृपाण का जल कहाँ उतर गया। आज
इस भारतवर्ष को पार करके मेरी बांहें ऐसे कौन-से महान् संसार का आलिंगन करने को
तरस रही हैं? तो क्या यह मेरी भूल थी? जीवन क्या व्यर्थ चला गया?” उस शाम की घनी छाया में गुरूजी के ह्रदय
में विचारो का एक युद्ध छिङा हुआ था। विचार करते-करते उनकी आँखें आंसुओं से डबडबा
आयीं।
ठीक
उसी वक्त एक पठान आकर खङा हो गया। पठान ने तकाजा किया, “गुरूजी, आज अपने देश जा रहा हूँ। आपने जो
घोङें लिये हैं, उनका मूल्य चुका दीजिये।”
विचार
में डूबे हुए गुरूजी ने कहा, “शेखजी अभी जरा कार्य में व्यस्त हूँ। कल
आकर खुशी से पैसे ले जाना।”
पठान
जरा तीव्रता से बोला, “नहीं, यह नहीं चलेगा। पैसे आज चाहिए। इस
प्रकार कब तक टरकाते रहोगे? सभी दुष्ट सिक्ख चोर महसूस होते हैं।”
इतना कहकर पठान ने
जोर से गुरूजी का हाथ पकङ लिया।
क्षण-भर
में गुरूजी के दिल से वैराग निकल गया। म्यान से तलवार निकल आयी, कृपाण में एक ही
बार में पठान का सिर धरती पर आ गिरा। भूमि खून से नहा गयी। पठान का धङ छटपटाने
लगा। मुँह पर अंगुली रखकर गुरूजी आश्चर्य में डूब गये।
सिर
हिलाकर गुरूजी मन-ही-मन गुनगुनाने लगे, “अहो, आज समझ में आया मेरा वक्त पूरा हो
गया। पचास साल की पुरानी तलवार को लांछन लग गया। आखिर किस लिये यह खून-खराबा? पठान
को तैयारी का वक्त भी नहीं दिया। अरे, अन्तिम बन्दगी करने तक का अवसर नीहं दिया?
हाय, अब इस हाथ से यकीन उठ गया। इस कलंक को धोना पङेगा। आज से जिन्दगी का यही एक
अंतिम काम है।”
मरे हुए पठान का एक छोटा-सा पुत्र था।
गुरूजी ने उसे अपने निकट बुला लिया। उसे अपने बेटे की तरह पालने लगे। गुरूजी जितनी
भी शास्त्र-विद्याएँ और शस्त्र-विद्याएँ जानते थे, वे सभी खुद पठान बालक को सिखा
दीं।
रोजाना
सुबह और शाम व़ृद्ध गुरूजी बालक के साथ्ज्ञ बालक बनकर खेल खेलते थे। वह स्वयं
बालक को हँसाते थे। बालक की छोटी-छोटी वीरता की बातें निहारकर उसकी पीठ थपथपाते
थे। बालक भी ‘बापू-बापू’ कहकर गुरूजी को नये-नये खेल सिखाता था।
भक्त
लोग वहाँ आकर गुरूजी के कान मे ंकहने लगे-“यह क्या आरम्भ किया है गुरूजी! यह तो
शेर का बच्चा है। कितना ही पुचकारो, यह अपना स्वभाव नहीं बदलेगा। बाद में पछताना
होगा। शत्रु को क्योंकर पुचकारते हो गुरूजी! शेर का बच्चा बङा होगा तो उसके
नाखून बहुत खतरनाक हो जायेंगे।”
गुरूजी
मुस्कराकर बोले-“वाह, यही तो मुझे करना है। शेर के बच्चे को शेर न बनाऊँ तो और क्या
बनाऊँ?”
देखते
ही देखते गुरूजी की देखभाल में बालक युवा हो गया। गुरूजी की परछाई की तरह रात-दिन
हमेशा ही उनके साथ रहने लगा और पुत्र की तरह उनकी सेवा करने लगा। गुरूजी के दायें
हाथ की तरह हमेशा साथ रहने लगा। गुरूजी के सब पुत्र तो संग्राम में में गये और
उनमें से कोई लौटकर आया ही नहीं; इस प्रकार गुरूजी के पुत्रहीन खाली ह्रदय में इस
पठान बालक ने पुत्र का आस बना लिया। अकेले गुरूजी यह सब देखकर दिल में हँसा करते
थे।
पठान
युवक ने एक रोज आकर कहा, “बापू, आपकी कृपा से मैंने अनेक तरह की
शिक्षा पायी है। अब दयापूर्वक मुझे छुट्टी दीजिए, जिससे राज्य की सेना मे नौकरी
हासिल करके अपना भाग्य आजमाऊँ।”
तरूण
की पीठ पर हाथ फेरकर गुरूजी बोले-“बेआ धैर्य रख, अभी तेरी वीरता की एक
परीक्षा बाकी है।”
दूसरे
दिन दोपहर बाद गुरूजी अकेले ही बाहर निकल पङे और पठान युवक को पुकार कर कहा, “पुत्र, तलवार लेकर मेरे साथ चल।”
नौजवान चल पङा।
गुरूभकतों ने यह माजरा देखा। भयभीत होकर सभी कहने लगे, “गुरूदेव, चलिए, हम भी साथ में चलेंगे।”
गुरूजी और युवक आहिस्ता नदी के
किनारे-किनारे चले जा रहे थे। किनारे के ढूहों में बारिश के जल ने बङी-बङी खाइयाँ
बना दी थीं। किनारों पर बङे-बङे वृक्षों के झुण्ड खङे हो गये थे। हीरे के समान स्वच्छ
पानी वाली नदी खामोशी से सरकती जा रही थी, मानो वह सभी बातें जानती हो, लेकिन छिपा
रही हो।
एक
जगह पर जाकर गुरूजी ने संकेत किया। युवक ठहर गया।
गुरूजी
ने बालू में एक जगह पर अंगुली चुभाते हुए कहा, “प्यारे, यहाँ खोद।”
नौजवान खोदने लगा।
खड्ढे में से एक शिला निकली। शिला पर लहू के छींटों के दाग लगे थे।
गुरूजी
बोले, “ये दाग किसके हैं?”
“लहू के छींटे लगते हैं, गुरूजी!”
“हे पठान कुमार! ये लहू के छींटे तेरे प्यारे
पिता के लहू के हैं। इस जगह पर एक दिन मैंने उसका सिर काट लिया था। उसको तैयार
होने तक का वक्त नहीं दिया था। उसका कर्ज भी नहीं चुकाया। उसे बन्दगी करने तक का
अवसर नहीं दिया।”
पठान
नौजवान मस्तक नीचे किये खङा था। उसका पूरा जिस्म काँप रहा था।
गुरूजी
ने कहा-“क्या देख रहा है नौजवान? क्या बाप का बदला लेने के लिए तेरा खून नहीं खौलता?”
“बापू बोले नहीं, बोले नहीं, मुझसे नहीं
रहा जाता।”
“ऐ भीरू, कायर! धिक्कार है तुझको। तेरे
बाप का हत्यारा जिन्दा चला जायेगा। इस पठान की हड्डियाँ आज पुकार रही हैं-दुश्मनी
का बदला ले.... दुश्मनी का बदला ले।”
बाघ की तरह हुँकार कर पठान युवक नंगी
तलवार लेकर गुरूजी की तरफ लपका।
गुरूजी
तो पत्थर की मूर्ति की तरह अचल होकर खङे थे। उनकी आँखों की पलके भी नहीं झपक रही
थीं।
पठान
की आँखों से लाल-लाल आग बरस रही थी, और गुरूजी की आँखों से अमृत झर रहा था। वह
मुस्करा रहे थे।
पठान
कुमार अपनी हार मान गया। दीन होकर तलवार गुरूजी के कदमों पर रखकर बोला, “हाय गुरूजी, आज शैतान के साथ आप क्योंकर
इस खेल को खेल रहे हो। खुदा जानता है कि मैं अपने बाप का खून भूल गया हूँ। इतने
दिनों से मैं आपको ही अपन पिता, गुरू तथा बन्धु मानता रहा हूँ। आज उस ममता को
ह्रदय से क्योंकर उखाङ फेंकू? दिल में जुनून को क्योंकर जगाऊँ? स्वामी, आपके
कदमो धूल ही मेरे हाथों में हमेशा पहुँचती रहे।”
इतना
कहकर पठान कुमार भाग निकला। एक ही सांस में भयानक जंगल में भाग गया। पीछे मुङकर
नहीं देखा। क्षण-भर को भी मार्ग में नही रूका। जंगल पार करके पठान नौजवान जब खुले
आकाश के नीचे खङा हुआ, उस वक्त शुक्र तारा ऊपर से स्नेह-पारा बरसा रहा था।
गुरू
गोविन्दसिंह उस घने जंगल में अचम्भे मे खङे थे। उनकी आँखों में पानी भर आया था।
जिन्दगी के आखिरी पाप का बंधन काटकर आज ाते उनको यात्रा खत्म करनी थी, लेकिन वह
अभिलाषा तो अधूरी ही रह गयी।
उस
दिन से पठान नौजवान गुरूजी से दूर-दूर रहने लगा। गुरूजी का साथ छोङकर अपना बिछौना दूसरे
कमरे में ले गया। ब्रह्ममुहूर्त में गुरूजी को जगाने के लिए भी कभी अकेला नहीं
जाता। रात में अपने पास कोई शस्त्र भी नहीं रखता। नदी के तट पर गुरूजी के साथ
शिकार के लिए भी अकेला नहीं जाता।
बहुत
दिन गुजर गये। यह बात शायद भ्ज्ञूल भी गयी हो। एक दिन गुरूजी ने पठान नौजवान के
साथ शतरंज खेलना आरम्भ किया। दुपहरी बीत गयी, शाम हो आयी। दीया-बाती की गयी।
दोनों लोग अभी तक शतरंज में व्यस्त थे।
पठान
नौजवान बार-बार हार जातां ज्यों-ज्यों हारता जाता, वैसे-वैसे उस पर खेल की मस्ती
चढती जा रही थी।
शाम
गुजर गयी, रात आ गयी। जो लोग वहाँ मौजुद थे, सब अपने-अपने घर चले गये। रात गुजरती
जा रही थी। झन-झन की आवाज आ रही थी। नीचा मुँह किये पठान खेल में तल्लीन हो रहा
था। अचानक यह क्या हुआ? गुरूजी ने पूरी बाजी क्योंकर उखाङ फेंकी। पासे उठाकर
पठान के सिर पर क्यों पटक मारे? पठान नौजवान आश्चर्य में रह गया।
अट्टहास
करते हुए गुरूजी ने कहा, “खेले, बहुत खेले, ऐ नामर्द! अपने पिता को
मारने वाले के साथ जो कायर खेल खेलने बैठे, उसकी भी भला कभी जीत हो सकती है?”
बिजली
की चमक की प्रकार पठान की कमर से चाकू निकल पङा। पठान ने उस चाकू से गुरूजी की
छाती चीर डाली। छाती से खून की धाराएँ फूट रही थीं और गुरूजी हँसकर पठान के माथे
रखे हुए थे। मरते-मरते गुरूजी ने कहा-
“पुत्र, इतनी-इतनी विद्याएँ पढने के पश्चात्
आज तुझे ज्ञान आया है कि अन्याय का बदला किस तरह चुकाया जाता है। बस, आज मेरी अंतिम
शिक्षा पूरी हो गयी। अपने दिल की दुआ देकर जाता हूँ प्यारे बेटे!”
अन्तिम शिक्षा
Reviewed by Kahaniduniya.com
on
अक्टूबर 16, 2019
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