बाप-बेटा


एक बार की बात है, उस रोज शनिवार था। दो बजे ही स्‍कूल से छुट्टी होने वाली थी। फिर भी स्‍कूल जाने को मन नहीं हो रहा था सुशील का। इसकी कई वजहें थीं। एक तो उस दिन भूगोल की परीक्षा थी तथा दूसरे, उस टोले के बोस-घराने में शाम को आतिशबाजी थी। वहाँ प्रात:काल से ही धूमधाम थी। सुशील का जी था कि वहीं तमाशे देखे जायें।
बहुत सोच-समझकर वह स्‍कूल जाने के वक्‍त बिस्‍तर पर जाकर लेट गया। सबलचन्‍द्र ने निकट आकर पूछा, क्‍यों रे, विस्‍तर पर क्‍यों पङा हुआ है? आज स्‍कूल नही जाना क्‍या?
सुशील ने कहा, पेट में काफी तेज दर्द हो रहा है। आज मैं स्‍कूल नहीं जा पाऊँगा।
सुबल ने उसकी सारी बहानेवाजी जान ली। मन-ही-मन कहने लगे, ठहरो, आज तुम्‍हें सबक सिखाता हूँ।लेकिन उसके सामने यह कहा, पेट में दर्द है? तब तो आज कहीं जाने की आवश्‍यकता नहीं। बोस के घर आतिशबाजी देखने के लिए वहाँ हरि को अकेला ही भेज दूंगा। तेरे लिए लेमनजूस मोल ले रखे थे वह भी आज रहे। तू खामोश पङा रह, मैं थोङा-सा तेरे लिए पाचक बना लाता हूँ।

komaltak.blogspot.com

सुबलचन्‍द्र ने सुशील को कमरे में बन्‍द करके साँकल लगा दी तथा खूब कङवा पाचक बनाने चले गये। सुशील बङे असमंजस में पङ गया। उसे लेमनजूस जितना पसन्‍द था, पाचक से उसके देवता उतनी ही घृणा करते थे। लगा कि वह अवसर भी हाथ से गया।
सुबल बाबू बङे से कटोरे में पाचक लिये कमरे में घुसे ही थे कि सुशील बङबङाकर विस्‍तर से उठ खङा हुआ और कहा, पेट-दर्द बिल्‍कुल ठीक हो गया है, अब मैं स्‍कूल जा रहा हूँ।
वह बोले, ना-ना, स्‍कूल जाने की कोई आवश्‍यकता नहीं। तू पाचक पी ले और खामोश पङा रह।
उन्‍होंने जबरदस्‍ती पाचक पिला दिया तथा बाहर जाकर घर में ताला लगवा दिया।
सुशील बिस्‍तर पर पङा-पङा पूरा दिन रोता रहा और सोचता रहा-अगर कल से ही आयु बापू जैसी हो जाए तो दिल की किया करूँगा और कोई मुझे बन्‍द नहीं रख-सकेगा।
ठीक उसी वक्‍त इच्‍छा रानी उस घर के बाहर वाले मार्ग से गुजर रही थीं। पिता-पुत्र के दिल की इच्‍छा जानकर सोचने लगीं, अच्‍छा तो ठीक है, कुछ दिन इनकी ख्‍वाहिश पूरी करे ही देखा जाये।
यह सोचकर वह पिता के पास गयी और बोली, तुम्‍हारी ख्‍वाहिश पूरी होगी। कल से तुम अपने पुत्र की उम्र के होगे। और लङके के निकट जाकर बोली, कल से तुम अपने बाप की आयु के होगे।सुनकर दोनों बाप बेटे-फूले नहीं समाये।
बूढे सुबलचन्‍द्र रातों को सही से सो नही पाते थे। सुबह के कुछ पहले नींद आती थी। लेकिन उस दिन न जाने क्‍या हुआ कि एकाएक सुबह-सुबह उठकर उछलते हुए बिछौने से कूद गये। बिल्‍कुल छोटे-से हो गये, गिरे हुए, दांत फिर से निकल गाये, दाढी-मूंछ के बाल न जाने कहाँ गये। कोई निसानी वगैरह तक उनकी नहीं बची। शाम को जो धोती-कुर्ता पहनकर सोये थे, सुबह वे इतने ढीले हो गये कि आस्‍तीनें जमीन तक झूल रही थीं, कुर्ते का गला छाती के नीचे तक आ गया था तथा धोती इतनी लटक रही थी कि पैर उठाकर चलना भी मुश्किल हो गया था।
सुशीलचन्‍द्र का हमेशा का नियम था कि वह सुबह तङके उठकर चारों तरफ ऊधम मचाता फिरता था। मगर आज तो उसकी नींद खुलने का नाम ही नहीं ले रही थी। अपने पिता सुबलचन्‍द्र की धमाचौक्रङी के मारे नींद हराम हो गयी तो उठा तथा उठते ही देखा तो कपङे-लत्ते शरीर पर इस तरह चुस्‍त हो उठे हैं कि उनके चीर-चीर हो जाने की नौबत आ गयी है। सारा जिस्‍म बढ गया है, पकी-अधपकी दाढी-मूंछ की वजह से आधा मुँह तो दिखायी भी नहीं पङता। सिर में भरपूर जुल्‍फें थीं, हाथ फेरकर देखा तो सामने से पूरी खोपङी सफाचट, एकदम चकनी-सी गंजी जैसे चाँद निकल आया है।
विस्‍तर छोङने की तबियत ही नहीं चाह रही थी। कई बार चुटकी बजा-बजाकर ऊँचे स्‍वर में जम्‍हाइयाँ लीं, कितनी बार इस करवट से उस करवट पलटा और अन्‍त में उठा भी तो पिता सुबलचन्‍द्र की धमा-चौकङी से खीझते हुए उठा।
दोनों के मन की ख्‍वाहिश तो खैर पूरी हो गयी, पर दोनों बङी कठीनता में पङ गये। सुशील की ख्‍वाहिश यह थी-बापू जैसा बङा और स्‍वतंत्र हो जाऊँ तो तब जैसा जी चाहेगा करूँगा, वृक्षों पर चढता, पानी में कूदा करूँगा, कच्‍चे आम खाया करूँगा, चिङियों के बच्‍चे उतारा करूँगा, पूरे देश में घूम-फिरूँगा, जब जी चाहेगा घर आकर जो मन चाहेगा खाऊँगा, मना करने वाला कोई न होगा।
मगर अचम्‍भे की बात है कि उस दिन सुबह-सवेरे उठकर पेङ पर चढने की उसे ख्‍वाहिश ही नहीं हुई। जलकुम्‍भी वाले पोखरे को देखकर उसे प्रतीत हुआ कि अगर इसमें कूदूंगा तो जुङी-ताप धर दवायेगा। इसलिए वह चुपचाप ओसारे में चटाई बिछाकर बैठ गया तथा बैठा-बैठा तरह-तरह की बातें सोचता रहा।
    एक बार दिल किया कि खेल-कूद छोङ देना ठीक न होगा, थोङा खेल-कूद लेन की चेष्‍टा कर देखने में हर्ज की क्‍या है? इसलिए वह पास के आम के एक वृक्ष पर चढने के लिए तरह-तरह की चेष्‍टा करने लगा। कल तक जिस वृक्ष पर वह गिलहरी की फुर्ती से चढ लेता था, आज बूढे जिस्‍म ने उस पर चढने से बिल्‍कुल इंकार ही कर दिया। नीचे की एक नाजुक डाली पकङकर ऊपर चढना चाहा तो उसके जिस्‍म का बोझ पङते ही टूट गयी और बूढा सुशील धम्‍म से नीचे जमीन पर आ गिरा। पास के मार्ग से गुजर रहे लोगों ने बूढे को बच्‍चे की तरह पेङ पर चढते और गिरते हुए देखा तो वे हँसते-हँसते लोट-पोट हो गये।
सुशीलचन्‍द्र लज्‍जा के मारे मुँह नीचा किये फिर उसी चटाई पर आ बैठा।
    कल तक जो बच्‍चे सुशील के साथ कबड्डी खेला करते थे, वे उसकी खोज में आये तो बूढे सुशीलचन्‍द्र को देखते ही अलग से ही भाग खङे हुए।
    सुशील ने सोचा था-बापू की तरह आजाद हो जाने पर अपने मित्रों के सा‍थ दिन भर डूडू-डूआ-डूडू-डुआ करता हुआ कबड्डी खेला करूँगा।।
    मगर आज राखाल, गोपाल, अक्षय, निवारण, हरीश और नन्‍द को अपनी तरफ आते देखकर उसे भीतर-ही-भीतर बङी कुढन हुई। वह सोचने लगा- क्‍या मजे से खामोश बैठा था, अब ये लङके न जाने कहाँ से आ टपके धमाचौकङी मजाने।
    सुबलचन्द्र रोज ओसारे में चटाई बिछाकर बैठे-बैठे यही सोचा करते- बचपन में सारा वक्‍त खेलकूद में बरबाद कर दिया था, लेकिन अब अगर फिर से बचपन लौट आये तो सारे दिन शान्‍त रहकर, दरवाजा बन्‍द करके घर के अन्‍दर बैठकर, बस किताब लिये रहूँगा और पाठ याद करता रहूँगा। इतना ही नहीं, शाम पहर दादी से कहानी सुनना भी बंद कर दूंगा तथा दीया जलाकर रात के दस-ग्‍यारह बजे तक पढाई-लिखाई ही करता रहूँगा।
मगर बचपन फिर से हाथ आ जाने पर सुबलचन्‍द्र स्‍कूल जाना ही नहीं चाहते। सुशील गुस्‍सा होकर झिङकता, बापू तुम स्‍कूल नहीं जाओंगे? सुबल सिर खुजाकर मुख लटका लेते और धीरे-धीरे कहते, मेरे पेट में दर्द है, आज मैं स्‍कूल नहीं जा सकूंगा।सुशील खिसियाकर बोला, जा क्‍यों नहीं सकोगे? स्‍कूल जाते वक्‍त मेरे भी ऐसे दर्द बहुत हुआ करते थे, मैं यह सब खूब जानता हूँ।
    वाकई सुशील स्‍कूल से नागा करने के लिए इतने बहाने बनाता था कि उसे छल पाना उसके बाप के बस का रोग नहीं था। सुशील अपने छोटे-से बाप को जबरदस्‍ती स्‍कूल भेजने लगा। स्‍कूल की छुट्टी हो जाने पर सुबल घर आकर दिल भरकर भाग-दौङ करके खेलने-कूदने के लिए व्‍याकुल हो उठते, लेकिन ठीक तभी उनका लङका बूढा सुशीलचन्‍द्र आँखों पर ऐनक लगाये रामायण का सस्‍वर पाठ कर रहा होता तथा सुबल की धमाचौकङी से उसके पाठ में रूकावट आती। इसीलिए वह सुबल को जबरदस्‍ती पकङकर अपने निकट बैठा लेता और हाथ में स्‍लेट चमाकर बोलता, लीजिए पिताजी, हिसाब का अभ्‍यास कीजिए।
ऐसे-ऐसे प्रश्‍न चुनकर देता कि एक-एक प्रश्‍न में बेचारे पिता को एक-एक घंटा समय लगाना पङता। शाम को बूढे सुशील के कमरे मे काफी सारे बूढे शतंरज खेलने आ बैठते। उस वक्‍त सुबल को शांत रखने के लिए सुशील ने एक मास्‍टर रख दिया। मास्‍टर रात्रि के दस बजे तक पढाया करता था।
    खाने के मामले में सुशील बङा कठोर था। जब, उसके पिता सुबल जब बूढे थे तो उनका हाजमा सही नहीं था। थोङा भी ज्‍यादा खा लेते तो डकार आने लगती थी। सुशील को यह बात अच्‍छी प्रकार याद थी। इसीलिए वह अपने बाप को किसी भी सूरत मे ज्‍यादा नहीं खाने देता था। अचानक छोटा हो जाने पर अब उसकी भूख काफी हद तक बढ गयी थी। सुशील उन्‍हें खाने को इतना कम देता था कि भूख के मारे वह व्‍याकुल फिरते थे। अन्‍त में सूखकर कांटा हो गये और हाङ-हाङ बाहर झाँकने लगे। सुशील ने समझा कि उन्‍हें कोई बुरी बीमारी लग गयी है, इसलिए वह उन्‍हें तरह-तरह की दवाइयाँ पिलाने लगा।
बूढे सुशील की स्थिति भी पतली थी। गाँव में कही भी नाच-तमाशा की खबर सुनता तो घर से भागकर वहाँ जा पहुँचता तथा इस बात की कोई परवाह नहीं करता कि कङाके की ठंड पङ रही है अथवा मूसलाधार बरसात है। अब बूढा सूशील वैसा ही करता तो सर्दी लग जाती, खांसी होने लगती, शरीर टूटने लगता, सिर फटने लगता और उसे तीन-तीन हफ्‍ते बिस्‍तर पर पङे रहना पङता। भूल से वह तख्‍त से उछल कर उतरता तो हड्डियाँ झन्‍ना उठतीं। मुँह में साबुत पान डालने के पश्‍चात् ही उसे ध्‍यान आता कि हाय, दांत तो हैं ही नहीं, पान चबाना तो नामुमकिन है। भूलकर कंघी करने लगता, तब कहीं उसे पता चलता कि हाय, लगभग पूरा सिर गंजा है। कभी-कभी वह अचानक भूल जाता-मैं अपने पिता की उम्र का बूढा हो गया हूँ। तथा फिर पहले की प्रकार शरारत करने लगता, मुहल्‍ले की बूढी आनन्‍दी बुआ की कलसी को ढेले मारकर फोङ देता तथा बेचारी पानी से नहा जाती। बूढे की यह बचकानी हरकत देखकर लोग उसे मारने दौङते।
    सुबलचन्‍द्र भी कभी-कभी यह बात अचानक भूल जाते कि वह बालक बन गये हैं। अपने को पहले जैसा बूढा जानकर वह बूढों के ताश चौपङ के खेल देखने लगते ओर निकट बैठकर बूढों जैसी बातें करने लगते। इस बात पर सभी उन्‍हें वहाँ से भगा देते। अक्‍सर अपने पुराने बुढापे के ख्‍याल में भूलकर मास्‍टर से कह बैठते, जरा तम्‍बाकू तो खिलाना।इस बात पर मास्‍टर उन्‍हें बैंच के ऊपर एक पैर पर खङा कर देते। नाई से कहते, अरे बेजा, कई दिन बीत गये मेरी दाढी बनाने क्‍यों नहीं आया तू? नाई सोचता कि लङके के खूब उपहास करना सीख लिया है। कहता, बस अभी आया, कोर्इ दसेक साल में।और कभी-कभी पहले अभ्‍यास-वश अपने पुत्र सुशील को मार भी बैठते। सुशील बहुत ही क्रोधित होकर कहता, पढ-लिखकर यही बुद्धि आ रही है तुम्‍हारी? बित्ते भर के लङके होकर भी तुम बूढे व्‍यक्ति पर हाथ उठाते हो।
    तंग आकर सुबल ने विनती शुरू की, हाय, किन्‍तु अपने बेटे सुशील की तरह बूढा और स्‍वाधीन हो जाता तो इस साँसत से जान बचती।
    उधर सुशील भी प्रतिदिन हाथ जोङकर कहता, हे देवता बापू की प्रकार मुझे छोटा बालक बना दो कि मनमाने खेल खेलता फिरूँ। बापू इतने शरारती हो उठे हैं उन्‍हें संभालना मेरे बस से बाहर हो गया है, चिन्‍ता के मारे मुझे पल भर भी चैन नहीं है।
तब इच्‍छा पूरी करने वाली रानी आयीं और बोलीं-क्‍यों तुम्‍हारी ख्‍वाहिश पूरी हो गयी?
दोनों बाप-बेटे दण्‍डवत् नमस्‍कार करके बोले, जय हो इच्‍छा रानी की। अब तो हमें फिर वही बना दो, जो हम पहले थे। इच्‍छा रानी ने कहा, अच्‍छा कल प्रात:काल उठने पर तुम लोग फिर वही रहोगे।
दूसरे दिन सुबह पहले जैसे बूढे होकर उठे और सुशील पहले जैसा बच्‍चा होकर उठा। दोनों को ऐसा लगा मानो किसी ख्‍वाब से जगे हों। सुबल ने गला भारी करके बताया, सुशील पाठ याद नहीं करोगे?

सुशील सिर खुजाते हुए बोला, बापू, मेरी किताब खो गयी है।

बाप-बेटा बाप-बेटा Reviewed by Kahaniduniya.com on अक्तूबर 10, 2019 Rating: 5

कोई टिप्पणी नहीं:

nicodemos के थीम चित्र. Blogger द्वारा संचालित.