जादू


काफी समय पहले की बात है, प्रोफेसर हरीश हालदार के नाम से आरम्‍भ में जो पदवी है, वह उन्‍होंने स्‍वयं लगायी है। उनके हाथ ऐसी ‘सफाई’ वाले हाथ थे, जिनके द्वारा जादू के खेलों की गहरी छतनी है। एक दिन शाम को चाय के साथ तला चिवङा खाने के पश्‍चात् वह कह बैठे कि इन्‍द्रजाल तो ऐसे-ऐसे भी हैं कि सामने दिखायी पङ रही दीवार देखते-देखते गायब हो जाये।
पंचानन भाई अपने गंजे सिर पर हाथ फेरते हुए बोले, यह विद्या कभी थी तो सही लेकिन हमारे ॠषियों को मालूम थी।
सुनते ही प्रोफेसर का पारा हाई हो गया और मेज पर हाथ मारकर बोले-अजी, अब रहने भी दीजिए अपने ॠषि-मुनियों को, दैत्‍य–दानवों को और भूत-प्रेतों को।
पंचानन भाई ने पूछा, तो आप इस विषय में क्‍य मानते हैं?
एक ही शब्‍द में जवाब दिया, द्रव्‍यगुण।
उत्‍सुकता के मारे बेचैन होकर हमने पूछा-यह ‘द्रव्‍यगुण’ आखिर क्‍या बला है भला?
प्रोफेसर कहने लगे, और चाहे जो हो, हवाई ख्‍याल भर नहीं है, जंतर-मंतर नहीं है, मूर्खों को बहलाने-बहकाने वाली कोई बात नहीं है।
हम जानने के लिए अङ गये, फिर यह ‘द्रव्‍यगुण’ है क्‍या, सो तो कहिये।
प्रोफेसर बोल, ठहरिये, समझाकर कहता हूँ। आग है तो बङे आश्‍चर्य की चीज लेकिन तुम्‍हारे उन ॠषि-मुनियों की बातों से अग्नि नहीं जल करती। उसके लिए ईंधन की आवश्‍यकता होती है। हमारा इन्‍द्रजाल भी ठीक वैसी ही वस्‍तु है। इसके लिए सात वर्ष हर्र को आहार बनाकर तपस्‍या नहीं करनी पङती। इसके लिए तो बस द्रव्‍यगुण की जानकारी प्राप्‍त कर लेना-भर काफी होता है। जानकारी हो जाने के बाद, जो चाहे, वही जादू के खेल कर सकता है। तुम भी यह कर सकते हो, मैं भी कर सकता हूँ।
आप कहते क्‍या हैं, प्रोफेसर साहब? इस दीवार को लुप्‍त कर देने का कार्य भी मैं भी कर सकता हूँ?
क्‍यों नहीं भला? ह्रिङू-फ्रीङू  करने की आवश्‍यकता नहीं होती, आवश्‍यकता होती है माल-मसाले की।
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मैं बोला, कह भी डालिये न। इसके लिए क्‍या-क्‍या वस्‍तुएँ चाहिए?
अभी बताता हूँ। घबराओ नहीं, कोई खास वस्‍तु नहीं चाहिए। बस विलायती अमङे की एक गुठली तथा लोढा-सिलबट्रटा ला दूंगा, तुम इस दीवार को उङा देना।
अमङे का वृक्ष तो ठीक आठ साल महीने का होना चाहिए। उसका बीज बदी-पाख की द्वादशी को चाँद निकलने के सही एक दण्‍ड पहले का फूटा होना चाहिए। उसकी यह जन्‍मतिथि शुक्रवार को पहर-भर रात रहते से पङी होना चाहिए। शुक्रवार भी उन्‍नीस अगहन का न रहा तो बेकार होगा। सोच-समझकर लो भाई, इसमें कहीं कोई धोखाधङी अथवा चकमा नहीं है। दिन, पहर, दण्‍ड तिथि-मिति सब कुछ पक्‍की तरह बंधे-बंधाये हैं।
हमने सोचा, बात तो सुनने में बहुत बेलाग प्रतीत होती है। बूढे माली को इस तरह लग्‍न-मुहूरत-चुस्‍त गुठली के तलाश में लगा देने की बात ठहरी। प्रोफेसर बोला-एक मामूली-सी शर्त और। सिलबट्टा धवलेश्‍वर पर्वत की चट्टान का हो, जो तिब्‍बती लामाओं द्वारा कलमपोंग के बाजार में बेचने के लिए लाया गया हो।
पंचानन भाई ने गंजी खोपङी पर फिर दोबारा हाथ फेरने के पश्‍चात् कहा-मामला तो बहुत मुश्किल लगता है।
प्रोफेसर ने कहा-इसमें कठिनाई की कौन-सी बात है? खोज की जाये तो ऐसी कौन-सी वस्‍तु है, जो न मिले?
मैंने दिल ही दिल में सोचा-तलाश तो करके रहूँगा। इनके लिए बच निकलने का कोई भी बहाना नहीं रहने देना चाहिए।
प्रोफेसर ने कहा-इसमें कठिनाई की कौन-सी बात है? खोज की जाये तो ऐसी कौन-सी वस्‍तु है, जो न मिले?
मैंने दिल ही दिल में सोचा-तलाश तो करके रहूँगा। इनके लिए बच निकलने का कोई भी बहाना नहीं रहने देना चाहिए।
पूछा, उसके पश्‍चात् क्‍या करना होगा? सिल-बट्टा लेकर क्‍या करेंगे?
रूकिये, अभी एक छोटी-सी फरमाइश और है। एक दक्षिणावर्त शंख भी तो चाहिए।
पंचानन भाई बोले-उस शंख को पान तो कोई हँसी-खेल नहीं। जिसको मिलता है, वह राजा हो जाता है।
हुँहू, राजा नहीं, गधे का सींग बन जाता है। शंख है, जिसे अपनी बंगला भाषा में कहा जाता है-शाँख। उस शंख को अमङे की गुठली से सिल के ऊपर रगङना पङता है। घिसते-घिसते गुठली का कोई नाम-निशान भी बचा नहीं रहेगा और शंख भी खत्‍म हो जायेगा। सिल घिस-घिस कर चटनी की तरह बन जायेगा। बस, द्रव्‍य तैयार। दीवार के ऊपर उस का लेप लगा दिया जाये। फिर और कुछ करने की आवश्‍यकता नहीं। इसी को कहते हैं-द्रव्‍यगुण’। दीवार द्रव्‍यगुण से ही बनी है। किसी मंतर के बल पर नहीं तथा द्रव्‍यगुण से ही वह फिर धुआं बनकर उङ जायेगी। इसमें आश्‍चर्य की बात कौन-सी है भला।
मैंने कहा, ठीक तो। बात बिल्‍कुल उचित लगती है।
पंचानन भाई अपने बायें हाथ में हुक्‍का लिये थे, दायें हाथ को सिर पर फेरने लगे। हमारी खोज का कोई फल नहीं निकलने की वजह से यह मामूली-सी बात साबित होने से रह गयी। इतने दिनों पश्‍चात् महसूस हुआ था कि ईरू के मंतर, तंतर, राजमहल आदि सारी बे-सिर-पैर की बातें हैं। मगर प्रोफेसर साहब के द्रव्‍यगुण में कहीं कोई ठग-विद्या नहीं। दीवार ठोस की ठोस ही बनी रही। प्रोफेसर महोदय लेकिन हमारी शक्ति भी अडिग बनी रही। लेकिन संयोग की बात, एक बार न जाने ह्रदय की किसी भूल से परवश होकर उन्‍होंने द्रव्‍यगुण को हमारी पकङ की पहुँच के अन्‍दर अटक जाने की छूट दे दी। उनका दावा था, गुठली को मिट्टी में गाङने के घंटे भर के अन्‍दर यह पेङ भी तैयार मिलेगा और उसमें फल भी लगे होंगे।
हमने कहा, हैरत है!
प्रोफेसर बोले-हैरत की कोई बात नहीं, सब द्रव्‍यगुण की ही करामात है। गुठली को नागफनी के लासे में इक्‍कीस बार लपेटकर इक्‍कीस बार सुखाइये।
उसके पश्‍चात् मिट्टी में गाङकर देखिये कि फिर क्‍या होता है?
हम शर्त पूरी करने के लिए जी-जान से जुट पङे। लासा लगाने तथा सुखाने में लगभग दो महिने लगे। अचम्‍भे की बात, पेङ भी हुआ और फल भी। मगर घंटे भर में नहीं, पूरे सात वर्ष में। अब समझा है कि द्रव्‍यगुण किसे कहते हैं।
प्रोफेसर बोले, लासा सही नहीं लग पाया।

हमने समझ लिया कि यह सही लासा दुनिया में कहीं नहीं मिलता। मगर यह समझने में बहुत समय लगा। 
जादू जादू Reviewed by Kahaniduniya.com on अक्तूबर 10, 2019 Rating: 5

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