गाँधी के कठोर अहिंसा का नतीजा शांतिवाद है, जो की राजनैतिक क्षेत्र
से आलोचना का एक मूल आधार है।
विभाजन की संकल्पना
नियम के रूप में गाँधी विभाजन की अवधारणा के खिलाफ थे क्योंकि यह
उनके धार्मिक एकता के दृष्टिकोण के प्रतिकूल थी। 6 अक्टूबर 1946 में हरिजन में
उन्होंने भारत का विभाजन पाकिस्तान बनाने के लिए, के बारे में लिखा।
(पाकिस्तान की मांग) जैसा की मुस्लीम लीग द्वारा प्रस्तुत किया गया
गैर-इस्लामी है और मैं इसे पापयुक्त कहने से नहीं हिचकूंगा इस्लाम मानव जाति के
भाईचारे और एकता के लिए खङा है, न कि मानव परिवार के एक्य का अवरोध करने के लिए
इस वजह से जो यह चाहते हैं कि भारत दो युद्ध के समूहों में बदल जाए वे भारत और इस्लाम
दोनों के दुश्मन हैं। वे मुझे टुकङों में काट सकते हैं पर मुझे उस चीज के लिए
राजी नही कर सकते जिसे मैं गलत समझता हूँ। हमें आस नहीं छोङनी चाहिए, इसके बावजूद
कि ख्याली बाते हो रही हैं कि हमें मुसलमानों को अपने प्रेम के कैद में अबलाम्बित
कर लेना चाहिए।
फिर भी, जैक होमर गाँधी के जिन्ना के साथ पाकिस्तान के विषय को लेकर
एक लंबे पत्राचार पर ध्यान देते हुए कहते हैं- “हालाँकि गाँधी वैयक्तिक रूप में विभाजन के
खिलाफ थे, उन्होंने सहमति का सुझाव दिया जिसके तहत कांग्रेस और मुस्लिम लीग अस्थायी
सरकार के नीचे समझौता करते हुए अपनी आजादी प्राप्त करें जिसके बाद विभाजन के
प्रश्न का फैसला उन जिलों के जनमत द्वारा होगा जहाँ पर मुसलमानो की संख्या ज्यादा
है।”
भारत के विभाजन के विषयों को लेकर यह दोहरी स्थिति रखना, गाँधी ने
इससे हिन्दुओं और मुसलमानो दोनों तरफ से आलोचना के आयाम खोल दिए, मुहम्मद अली
जिन्ना तथा समकालीन पाकिस्तानीयों ने गाँधी को मुसलमान राजनैतिक हक को कम कर
आंकने के लिए निंदा की विनायक दामोदर सावरकर और उनके सहयोगियों ने गाँधी की निंदा
की और आरोप लगाया कि वे राजनैतिक रूप से मुसलमानों को मनाने में लगे हुए हैं तथा
हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार के प्रति वे लापरवाह हैं और पाकिस्तान के निर्माण
के लिए स्वीकृति दे दी है (हालाँकि सार्वजनिक रूप से उन्होंने यह घोषित किया था
कि विभाजन से पहले मेरे शरीर को दो हिस्सों में काट दिया जाएगा। यह आज भी राजनैतिक
रूप से विवादस्पद है, जैसे कि पाकिस्तानी, अमरीकी इतिहासकार आयेशा जलाल यह तर्क
देती हैं कि विभाजन की वजह गाँधी और कांग्रेस मुस्लीम लीग के साथ सत्ता बांटने
में इक्छुक नही थे, दुसरे मसलन हिंदू राष्ट्रवादी राजनेता प्रवीण तोगङिया भी
गाँधी के इस विषय को लेकर नेतृत्व की आलोचना करते है, यह भी इंगित करते हैं कि
उनके हिस्से की अत्यधिक कमजोरी की वजह से भारत का विभाजन हुआ।
गाँधी ने 1930 के अंत-अंत में विभाजन को लेकर इस्राइल के निर्माण को
लिए फिलिस्तीन के विभाजन के प्रति भी अपनी अरूचि जाहिर की थी। 26 अक्टूबर 1938
को उन्होंने हरिजन में कहा था,
मुझे कई पत्र प्राप्त हुए जिनमे मुझसे पूछा गया कि मैं घोषित करूँ कि
जर्मनी में यहूदियों के उत्पीङन और अरब-यहूदियों के बारे में क्या विचार रखता
हूँ।
ऐसा नहीं कि इस कठिन प्रश्न अपने विचार मैं बिना झिझक के दे पाउँगा,
मेरी सहानुभूति यहुदिओं के साथ है। मैं उनसे दक्षिण अफ्रीका से ही नजदीकी रूप से
परिचित हूँ कुछ तो जीवन भर के लिए मेरे साथी बन गए हैं। इन मित्रों के द्वारा ही
मुझे लबे समय से हो रहे उत्पीङन के बारे में जानकारी मिली। वे ईसाई धर्म के अछूत
रहे हैं पर मेरी सहानुभूति मुझे न्याय की आवश्यकता से विवेकशून्य नहीं करती
यहूदियों के लिए एक राष्ट्र की दुहाई मुझे ज्यादा आकर्षित नहीं करती।
जिसकी मंजूरी बाईबल में दी गयी और जिस जिद से वे अपनी वापसी में
फिलिस्तीन को चाहने लग हैं। क्यों नहीं वे, पृथ्वी के दूसरे लोगों से प्रेम
करते हैं। उस देश को अपना घर बनाते जहाँ पर उनका जन्म हुआ और जहाँ पर उन्होंने
जीविकोपार्जन किया। फिलिस्तीन अरबों का हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह इग्लैंड अंग्रेजो का और फ्रांस फ्रंसिसिओं का यहूदियों
को अरबों पर अधिरोपित करना अनुचित और अमानवीय है जो कुछ भी आज फिलिस्तीन में हो
रहा हैं उसे किसी भी आचार संहिता से सही साबित नही किया जा सकता।
हिंसक प्रतिरोध की अस्वीकृति
जो लोग हिंसा के जरिये आजादी हासिल करना चाहते थे गाँधी उनकी आलोचना
के कारण भी थोङा सा राजनैतिक आग की लपेट में भी आ गये भगत सिंह, सुखदेव, उदम सिंह,
राजगुरू की फांसी के खिलाफ उनका इनकार कुछ दलों में उनकी निंदा का कारण बनी।
इस आलोचना के लिए गाँधी ने कहा, “एक ऐसा समय था जब लोग मुझे सुना करते थे
कि किस तरह अंग्रेजो से बिना हथ्यिार लङा जा सकता है क्योंकि तब हथियार नहीं थे।
पर आज मुझे कहा जाता है कि मेरी अहिंसा किसी काम की नही क्योंकि इससे हिंदू-मुसलमानों
के दंगो को नही रोका जा सकता इसलिए आत्मरक्षा के लिए सशस्त्र हो जाना चाहिए।”
उन्होंने अपनी बहस कई लेखो में की, जो की होमर जैक्स के द गाँधी
रीडर “एक स्त्रोत उनके लेखनी और जीवन का 1938 में जब पहली बार “यहूदीवाद और सेमेटीसम विरोधी” लिख गई, गाँधी ने 1930 में हुए जर्मनी
में यहूदियों पर हुए उत्पीडन को सत्याग्रह के अंतर्गत बताया उन्होंने जर्मनी
में यहूदियों द्वारा सहे गए कठिनाइयों के लिए अहिंसा के तरीके को इस्तेमाल करने
की पेशकश यह कहते हुए की।
अगर मैं एक यहूदी होता और जर्मनी में जन्मा होता और अपना
जीविकोपार्जन वहीं से कर रहा होता तो जर्मनी को अपना घर मानता इसके वावजूदकि कोई
सभ्य जर्मन मुझे धमकाता कि वह मुझे गोली मार देगा या किसी अंधकूपकारागार में फेंक
देगा, मैं तडीपार और मतभेदिये आचरण के अधीन होने से इंकार कर दूँगा, और इसके लिए
मैं यहूदी भाइयों का इंतजार नाहे करूँगा कि वे आयें और मेरे वैधानिक प्रैत्रोध में
मुझसे जुडें, बल्कि मुझे आत्मविश्वास होगा कि आखिर में सभी मेरा उदाहरण मानने के
लिए बाध्य हो जायेंगे, यहाँ पर जो नुस्खा दिया गया है अगर वह एक भी यहूदी या
सारे यहूदी स्वीकार कर लें, तो उनकी स्थिति जो आज है उससे बदतर नही होगी, और अगर
दिए गए पीडा को वे स्वेच्छापूर्वक सह लें तो वह उन्हें अंदरूनी शक्ति और आनंद
प्रदान करेगा। और हिटलर की सुविचारित हिंसा भी यहूदियों की एक साधारण नर संहार के
रूप में निष्कर्षित हो तथा यह उसके अत्याचारों की घोषणा के खिलाफ पहला जवाब
होगी, अगर यहूदियों का दिमाग स्वेच्छयापूर्वक पीङा सहने के लिए तैयार हो, मेरी
अल्पना है कि संहार का दिन भी धन्यवाद ज्ञापन और आनंद के दिन में बदल जाएगा जैसा
कि जिहोवा ने गढा, एक अत्याचारी के हाथ में अपनी जाति को देकर किया। इश्वर का
भय रखने वाले, मृत्यु के आतंक से नही डरते।
गाँधी की इन वक्तव्यों के कारण काफी आलोचना हुयी जिनका जवाब उन्होंने
“यहूदियों पर प्रश्न” लेख में दिया साथ में उनके मित्रों ने
यहूदियों को किए गए मेरे अपील की आलोचना में समाचार पत्र कि दो कर्तने भेजीं दो
आलोचनाएँ यह संकेत करती हैं कि मैंने जा यहूदियों के खिलाफ हुए अन्याय का उपाय
बताया, वह बिल्कुल नया नही है। मेरा केवल यह निवेदन है। कि अगर ह्रदय से हिंसा को
त्याग दे तो निष्कर्षत: वह अभ्यास से एक शक्ति सृजित करेगा जो कि बङे त्याग की
वजह से है। उन्होंने आलोचनाओं का उत्तर “यहूदियों मित्रो को जवाब” और “यहूदी और फिलिस्तीन” में दिया यह जाहिर करते हुए कि “मैंने ह्रदय से हिंसा के त्याग के लिए
कहा जिससे निष्कर्षत: अभ्यास से एक शक्ति सृजित करेगा जो कि बङे त्याग की वजह
से है।
यहूदियों की आसन्न आहुति को लेकर गाँधी के बयान ने कई टीकाकारों की
आलोचना को आकर्षित किया। मार्टिन बूबर जो की स्वयं यहूदी राज्य के एक विरोधी हैं
ने गाँधी को 24 फरवरी, 1931 को एक तीक्ष्ण आलोचनात्मक पत्र लेखा, बूबर ने दृढता
के साथ कहा कि अंग्रेजों द्वारा भारतीय लोगों के साथ जो व्यवहार किया गया वह
नाजियों द्वारा यहूदियों के साथ किए गए व्यवहार से भिन्न है, इसके अलावा जब
भारतीय उत्पीङन के शिकार थे, गाँधी ने कुछ अवसरों पर बल के प्रयोग का समर्थन
किया।
गाँधी ने 1930 में जर्मनी में यहूदियों के उत्पीडन को सत्याग्रह के
भीतर ही सन्दर्भित कहा। नवम्बर 1938 में उपरावित यहूदियों के नाजी उत्पीडन के
लिए उन्होंने अहिंसा के उपाय को सुझाया।
आभास होता है कि यहूदियों के जर्मन उत्पीडन का इतिहास में कोई
सामानांतर नही, पुराने जमाने के तानाशाह कभी इतने पागल नही हुए जितना कि हिटलर हुआ
और इसे वे धार्मिक उत्साह के साथ करते हैं कि वह एक ऐसे अनन्य धर्म और जंगी राष्ट्र
को प्रस्तुत कर रहा है जिसके नाम पर कोई भी अमानवीयता मानवीयता का नियम बन जाती
है जिसे अभी और भविष्य में पुरूस्कृत किया जायेगा, जाहिर सी बात है कि एक पागल
परन्तु निडर युवा द्वारा किया गया अपराध सारी जाति पर अविश्वसनीय उग्रताके साथ
पङेगा। यदि कभी कोई न्यायसंगत युद्ध मानवता के नाम पर तो एक पुरी कॉम के प्रति
जर्मनी के ढीठ उत्पीडन के खिलाफ युद्ध को पूण्र रूप से उचित कहा जा सकता हें। पर
मैं किसी युद्ध में विश्वास नही रखता, इसे युद्ध के नफा-नुकसान के बारे में चर्चा
मेरे अधिकार क्षेत्र में नही है। परन्तु जर्मनी द्वारा यहूदियों पर किए गए इस तरह
के अपराध के खिलाफ युद्ध नही किया जा सकता तो जर्मनी के साथ गठबंधन भी नहीं किया
जा सकता यह कैसे हो सकता हैं कि ऐसे देशों के बीच गठबंधन हो जिसमें से एक न्याय और
प्रजातंत्र का दावा करता हैं और दूसरा जिसे दोनों का दुश्मन घोषित कर दिया गया
है?”
दक्षिण अफ्रीका के प्रारंभिक लेख
गाँधी के दक्षिण अफ्रीका को लेकर शुरूआती लेख काफी विवादस्पद हैं 07
मार्च 1908 को, गाँधी ने इंडियन ओपिनियन में दक्षिण अफ्रीका में उनके कारागार जीवन
के बारे में लिखा “काफिर शासन मे ही असभ्य हैं- कैदी के रूप में तो और भी वे कष्टदायक,
गंदे और लगभग पशुओं की तरह रहते हैं।” 1903 में अप्रवास के विषय को लेकर गाँधी
ने टिप्पणी की कि “मैं मानता हूँ कि जितना वे अपनी जाति की
शुद्धता पर विश्वास करते हैं उतना हम भी हम मानते हैं कि दक्षिण अफ्रीका में जो
गोरी जाति है उसे ही श्रेष्ट जाति होनी चाहिए” दक्षिण अफ्रीका में अपने समय के दौरान
गाँधी ने बार-बार भारतीयों का अश्वेतों के साथ सामाजिक वर्गीकरण को लेकर विरोध
किया, जिनके बार में वे वर्णन करते हैं कि” निसंदेह पूर्ण रूप से काफिरों से श्रेष्ठ
है” यह ध्यान देने योग्य हैं कि गाँधी के समय में काफिर का वर्तमान में
इस्तेमाल हो रहे अर्थ से एक अलग अर्थ था। गाँधी के इन कथनों ने उन्हें कुछ लोगों
द्वारा नसलवादी होने के आरोप को लगाने का मौका दिया है।
इतिहास के दो प्रोफेसर सुरेन्द्र भाना और गुलाम वाहेद, जो दक्षिण
अफ्रीका के इतिहास पर महारत रखते हैं, ने अपने मूलग्रंथ द मेकिंग ऑफ अ पोलिटिकल
रिफोर्मार : गाँधी इन साऊथ अफ्रीका, 1893-1924 मे इस विवाद की जांच की है। (नई
दिल्ली मनोहर 2005) अध्याय एक के केन्द्र में, गाँधी, औपनिवेशिक स्थिति में जन्मे
अफ्रीकी और भारतीय समुदायों के संबंधों पर है तथा उन नीतियों पर जिनकी वजह से
विभाजन हुआ (और वे तर्क देते हैं कि इन समुदायों के बीच संघर्ष लाजिमी सा हैं) इस
सम्बन्ध के बारे में वे कहते हैं, “युवा गाँधी 1890 में उन विभाजीय विचारों
से प्रभावित थे जो कि उस समय प्रबल थीं।” साथ-ही-साथ वे यह भी कहते है। “गाँधी के जेल के अनुभव ने उन्हें उन
लोगों कि स्थिति के प्रति अधीक संवेदनशील बना दिया था। आगे गाँधी दृढ हो गए थे, वे
अफ्रीकियों के प्रति अपने अभिव्यक्ति में पूर्वाग्रह को लेकर बहुत कम निर्णायक हो
गए और वृहत स्तर पर समान कारणों के बिन्दुओं को देखने लगे थे। जोहान्सबर्ग जेल
में उनके नकारात्मक दृष्टिकोण में ढीठ अफ्रीकी कैदी थे न कि आम अफ्रीकी”।
दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला गाँधी के अनुयायी
हैं, 2003 में गाँधी के आलोचकों द्वारा प्रतिमा के अनावरण को रोकने की कोशिश के
बावजूद उन्होंने उसे जोहान्सबर्ग में अनावृत किया। भाना और वाहेद ने अनावरण के
इर्द-गिर्द होने वाली घटनाओं पर द मेकिंग ऑफ अ पोलिटिकल रिफोर्मार : गाँधी इन साऊथ
अफ्रीका 1913-1914 में टिप्पणी किया है।
अनुभाग “दक्षिण अफ्रीका के लिए गाँधी के विरासत” में वे लिखते हैं” गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका के सक्रिय
कार्यकर्ताओं के आने वाली पीढियों को श्वेत अधिपत्य को खत्म करने के लिए प्रेरित
किया। यह विरासत उन्हें नेल्सन मंडेला से जोङती हैं। माने यह कि जिस कम को गाँधी
ने शुरू किया था उसे मंडेला ने खत्म किया। वे जारी रखते हैं उन विवादों का हवाला
देते हुए जो गाँधी कि प्रतिमा के अनावरण के दौरान उठे थे। गाँधी के प्रति इन दो
दृष्टिकोणों के प्रतिक्रिया स्वरूप भाना ओर वाहेद तर्क देते हैं : वे लोग को
दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के पश्चात् अपने राजनैतिक उद्देश्य के लिए गाँधी को
सही ठहराना चाहते हैं वे उनके बारे में कई तथ्यों केा नजरंदाज करते हुए कारन में
कुछ ज्यादा मदद नही करते, और जो उन्हें केवल एक नस्लवादी कहते हैं वे भी गलत
बयानी के उतने ही दोषी हैं। विकृति के उतने ही दोषी हैं।”
राज्य विरोधी
गाँधी राज विरोधी उस रूप में थे जहाँ उनका दृष्टिकोण
उस भारत का हैं जो कि किसी सरकार के अधीन न हो, उनका विचार था कि एक देश में सच्चे
स्वशासन का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति खुद पर शासन करता हैं तथा कोई ऐसा राज्य
नही जो लोगों पर कानून लागु कर सके। कुछ मौकों पर उन्होंने स्वयं को एक दार्शनिक
अराजकतावादी कहा है उनके अर्थ में एक स्वतंत्र भारत का अस्तित्व उन हजारों
छोटे-छोटे आत्मनिर्भर समुदायों से है (संभवत: टालस्टोय का विचार) जो बिना दूसरो
के अङचन बने खुद पर राज्य करते हैं। इसका यह मतलब नही था कि ब्रिटिशों द्वारा स्थापित
प्रशाशनिक ढांचे को भारतीयों को स्थानांतरित कर देना जिसके लिए उन्होंने कहा कि
हिंदुस्तान को इंगलिस्तान बनाना है, ब्रिटिश ढंग से संसदीय तंत्र पर कोई विश्वास
न होने के कारण वे भारत में आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी को भंग कर प्रत्यक्ष
लोकतंत्र प्रणाली को स्थापित करना चाहते थे।
आदर्श और आलोचनाएँ
Reviewed by Kahaniduniya.com
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अक्तूबर 04, 2019
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