जब महात्‍मा ने राजा को सबसे गरीब बताया

एक सिद्व महात्‍मा थे। माया-मोह से दूर अपनी छोटी सी कुटिया में रहते थे। एक बार वे भ्रमण कर रहे थे। तभी मार्ग में कुछ शमकता हुआ दिखाई दिया। उन्‍होंने पास जाकर देखा तो वह चांदी का सिक्‍का था। उन्‍होंने उसे उठा लिया। उठाने के बाद वे सोचने लगे कि भिक्षा में मुझे भोजन तो मिल ही जाता है, फिर मैंने इस सिक्‍सके को क्‍यों उठा लिया?



फिर उन्‍होंने निश्‍चय किया कि इसे मैं सबसे गरीब आदमी को दान कर दूंगा। समय गुजरता गया। महात्‍मा जी गरीब आदमी की तलाश में घूमते रहे, किंतु उन्‍हें कोई सुपात्र नहीं मिला। एक दिन घूमते-घूमते वे अपने राज्‍य की राजधानी में पहुंचे। उन्‍होंने देखा कि राजमार्ग पर राजा के साथ अस्‍त्र-शस्‍त्र से सजी विशाल सेना युद्व हेतु जा रही थी। राजा महात्‍मा को पहचानता था। अत: उसने रथ से उतरकर उन्‍हें प्रणाम किया। तब वे बोले-राजन। अपना हाथ आगे करो। राजा द्वारा हाथ आगे करने पर उन्‍होंने वह सिक्‍का उस पर रख दिया और बोले-इसे मैं सबसे गरीब आदमी को देना चाहता था। राजा ने कहा-मेरे खजाने में तो अपार संपत्ति है। फिर मैं गरीब कैसे हूं? महात्‍मा बोले-इतनी अमीरी के बावजूद तुम और संपन्‍नता पाने के लिए युद्व करने जा रहे हो। फिर तुमसे बढकर गरीब कौन होगा? राजा की नजरें शर्म से झुक गई और उसने सेना को लौटने का आदेश दिया।


कथा का सार यह है कि संग्रहवृत्ति अधिकाधिक लोभ को जन्‍म देती है और लोभ, चिंता व तनाव का वाहक है, जो जीवन से सुख व शांति को छीन लेते हैं। अत: उचित यही हे कि अपनी जरूरतों के मुताबिक संग्रह किया जाए और अधिक की कामना न रही जाए। ब्‍दों नाबा ने कुछ लिखा ही नीह ्ष्‍क्ष्‍च्‍र्र्र्र्र्र्र्र्र्व्‍ग्‍ग्‍ब्‍ब्‍ब्‍टटटटटठछ
Reviewed by Kahaniduniya.com on सितंबर 08, 2019 Rating: 5

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