जब ब्राहमण ने राज्य का परित्याग
कर दिया
एक समय की बात है। राजा विक्रमादित्य के राज्य में एक
सदाचारी और संतोषी ब्राहमण रहता था। वह निर्धन था और यही निर्धनता उसके घर में
विवाद पैदा करती थी। उसकी पत्नी असंतुष्ट थी और चाहती थी कि ब्राहमण अधिकाधिक धन
कमाए। अंततोगत्वा पत्नी के दबाव में आकर ब्राहमण धन प्राप्ति के लिए घर से
निकला। मार्ग में एक महात्मा से उसकी भेंट हुई। महात्मा ने ब्राहमण को चिंतित
देखा तो कारण पूछा। ब्राहमण ने उन्हें अपना किस्सा कह सुनाया। महात्मा ने उसकी
समस्या के समाधान का आश्वासन दिया। उन्होंने राजा विक्रमादित्य के नाम यह पत्र
लिखा कि तुम्हारी अच्छापूति का समय आ गया है।
अपना राज्य इस ब्राहमण को देकर
मेरे पास चले आओ। ब्राहमण से पत्र पाकर विक्रमादित्य को राज्य सुख का त्याग
करने के लिए इतना उत्सुक देखा तो सोचा कि जब राजा ही राज त्यागकर योगी के पास
जाने में आनंदित हैं तो अवश्य ही योगी के पास इससे भी बढा सुख है। वह पुन: महात्मा के पास राज्य से भी महत्वपूर्ण कुछ है।
मुझे वही दीजिए। महात्मा ने उसे योग क्रिया बताई,
जिससे वह तपस्वी बन गया और उसे मोक्ष प्राप्त हुआ।
कक्षा का सार यह है कि मोक्ष सुख के समक्ष राज-सुख अत्यंत
तुच्छ है। सांसारिक वैभव व विलासिता शरीर को तो सुख पहुंचा सकते हैं, किंतु आत्मा
आध्यात्मिक संपन्नता में ही सुख का दर्शन कर पाती है और आत्मा के संतोष से बढकर
और कोई सुख-संतोष नहीं होता हैं।
कोई टिप्पणी नहीं: