एक गांव में एक लकङहारा अपने परिवार के
साथ रहता था। वह दिन-रात परिश्रम करता, किंतु फिर भी अभावों से घिरा रहता। उसकी
आर्थिक दशा को एक महात्मा देखते रहते। एक दिन महात्मा ने उससे कहा-बच्चा। आगे
चलो-आगे चलो और आगे-चलो। लकङहारा जहां लकङियां काटता था, उस स्थान से थोङा आगे बढ
गया। उसे वहां चंदन का एक वन दिखार्इ दिया। वह चंदन की लकङियां काटकर बेचने लगा।
उसे चंदन की लकङियों के खुब उंचे दाम मिले। एक दिन उसे फिर वही महात्मा मिले। उन्होंने
लकङहारे को समझाया-बच्चा। जीवन में एक ही स्थान पर मत रूको। तालाब के जल के समान
रूक गए तो सङ जाओगे। इसलिए चलते रहो, बढते रहो। लकङहारा चंदन वन से और आगे गया तो
उसे तांबे की खान मिली। उस खान से उसने बहुत धन कमाया।
आगे चलकर उसे चांदी की खान मिली और वह
मालामाल हो गया। पुन: महात्मा
ने उसे समझाया-यहीं मत रूकना। जैसे आगे बढते-बढते तुमने धन-वैभव पाया है, वैसे ही
धर्म के राज्य में होता है बस कभी स्वार्थी और लोभी मत बनना। अब लकङहारा और आगे
बढा। परिणामस्वरूफ उसे क्रमश: सोने व हीरे की खानें मिलीं और वह अति संपन्न हो गया। अपने धन संग्रह
में से कुछ हिस्सा वह परमार्थ कार्यो में लगाता और शांति की अनुभुति करता अब उसके
जीवन में अभाव नहीं था और वह प्रसन्न था।
कथा का सार यह है कि जीवन चलने का नाम है।
निरंतर चलते रहने से ही प्रगति होगी। एक जगह रूक जाने से प्रगति तो रूकेगी ही,
संतोष व शांति भी प्राप्ति नहीं होगी, क्योंकि कर्म की निरंतरता और नवीनता से ही
उनकी उपलब्धि संभव है। रूक जाना जङता, अवसाद और विकासहीनता का जनक है।
उत्तम विचार – बुद्विमान होने का अर्थ है
हजार मनकों में चमकने वाला हीरा।
साधु की बात मान आगे बढता गया लकङहारा
Reviewed by Kahaniduniya.com
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सितंबर 14, 2019
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