महर्षि बोधायन अपने शिष्यों के अनुरोध पर
एक दिन आश्रम से दूर नदी तट पर दूर्वा-दुकूल मंडित तमाल-कुंजों में गोठ पर गए थे।
गुरू-शिष्य घंटों जल विहार करते रहे। आज गुरू ने शिष्यों को पूरी छूट दे रखी थी
और स्वयं भी उनसे समकक्षों की भांति व्यवहार कर रहे थे ताकि शिष्य असहजता महसूस
न करें और उनके मनोरंजन में कोई बाधा नहीं आए। लंबी जल-क्रीङा के बाद सभी को तेज
भूख लगी। शिष्यों ने शीघ्रता से झरबेरी के साथ सिवार का साग ओर कोदों का भात
पकाया। फिर गुरू-शिष्य ने मिलकर खाया। भोजन के बाद सभी अपने-अपने उत्तरीय फैलाकर
लेट गए। शीघ्र ही सभी निद्रामग्न हो गए। कई घंटों के बाद जब महर्षि की निद्रा भंग
हुई तो शाम हो चुकी थी। वे उठे और समीप की वृक्षमूल में सोग अपने प्रिय शिष्य
गार्ग्य को जगाने गए। उन्होंने देखा कि गार्ग्य जाग्रत है किंतु उसके पेरों से
लिपटकर एक महासर्प सोया हुआ है। गार्ग्य ने धीरे से कहा-गुरूजी,
जब सर्प की नींद
पूरी हो जाएगी वह स्वयं ही चला जाएगा। उसकी निद्रा भंग न करें। घंटे भर बाद सर्प
जागा ओर गार्ग्य के पैरों से उतरकर बिल में प्रविष्ट हो गया। गार्ग्य को महर्षि
ने अंक में भर लिया और बोले-वत्स, तुम्हारी यह शील संपदा अक्षय रहे। इस पर चकित
हो दूसरा शिष्य मैत्रायण बोला-गुरूजी, गार्ग्य ने तो साहस का परिचय दिया है, शील
का नहीं। तब महर्षि ने कहा-वत्स, जल का घनीभूत रूप हिम हैं इसी भांति शील का ही
वह घनीभूत रूप जो विकट परिस्थितियों के बीच भी अपने अस्तित्व को यथावत बनाए रखता
है, साहस हैं। महिमा शील की ही है। अत: शील मूल है और सदगुण उसकी शाखाएं।
सार – सहनशीलता निकटतम् परिस्थितियों से
उभरने का मूल मंत्र हैं जिससे मनुष्य के भीतर छिपे अन्य गुणों का विकास होना
निश्चित है। अत: किसी भी स्थिति में धैर्य का दामन कदापि न
छोङें।
शिष्य के साहस व शील से अभिभूत हुए महर्षि
Reviewed by Kahaniduniya.com
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सितंबर 21, 2019
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