दुर्गाचरण बाबू कोलकाता के विख्यात
चिकित्सक थे। ज्यादातर लोग उन्हें नाग महाशय के नाम से जानते थे। उन्होंने
रामकृष्ण परमहंस की अनमोल शिक्षाओं को अपने आचरण में यथावत उतार लिया था और इसी
वजह से वे लोगों के लिए प्रेरणास्त्रोत बन गए थे।
इसी महाशय के पिता कोलकाता के एक बङे
प्रतिष्ठान में काम करते थे। एक बार प्रतिष्ठान के मालिक ने उनके पिता को बुलाकर
कहा-मेरे एक घनिष्ठ रिश्तेदार गंभीर रूप से ीमार हो गए हैं। क्या आपका पुत्र
उसका इलाज कर सकता है? उन्होंने तत्काल हां कहा और वे मरीज को अपने पुत्र के पास
ले गए। रोगी की हालत गंभीर थी, किंतु नाग महाशय के कुशल एवं लंबे उपचार से वे
पूर्णत: स्वस्थ हो गए। इससे प्रसन्न होकर उन
सज्जन ने नाग महाशय को रूपयों से भरी थैली देनी चाही, किंतु नाग महाशय ने उसमें
से मात्र बीस रूपए रखे और थैली वापस करते हुए कहा-मेरी मेहनत का वाजिब प्रतिफल
इतना ही है। नाग महाशय के पिता पुत्र के इस व्यवहार से क्षुब्ध होकर बोले-इस तरह
से तो तुम कभी प्रगति नहीं कर पाओगे। जब वे प्रसन्न होकर रूपए दे रहे थे, तो
तुमने वापस क्यों कर दिए? नाग महाशय ने कहा-मेरा पारिश्रमिक इतना ही था। इसके
अलावा मेरे गुरू और आपने भी मुझे सत्य व धर्म के मार्ग पर चलने की शिक्षा दी है।
मैं धर्म विरूद्व कैसे जाता? पुत्र का उत्तर सुनकर पिता का क्रोध शांत हो गया।
कथा का सार है कि बगैर मेहनत के हासिल धन
से संपन्नता हासिल की जा सकती है किंतु यश और आत्मिक शांति नहीं। यश और शांति
ईमानदारी से अर्जित धन से मिलती है।
उत्तम विचार – हमारे विश्वास सदल सकते
हैं, मगर निष्ठा अटल होती हैं।
नाग महाशय ने लौटाई जब रूपयें की थैली
Reviewed by Kahaniduniya.com
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सितंबर 17, 2019
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