नगर सेठ ने इतना धन कमाया कि उन्हें धन
और वैभव से विरक्ति हो गई। उन्होंने सोचा कि अपना शेष जीवन भगवान के ध्यान में
लगाऊं और किसी प्रकार से मुक्त हो जाऊं। यह विचार कर उन्होंने नगर के प्रसिद्ध
पंडित जयराम को बुलाया और कहा-महाराज मैं भागवत सप्ताह रखकर भागवत कथा सुनना
चाहता हूं। पंडितजी बोले-मैं शुभ समय देखकर यह कार्य संपन्न कर देता हूं। पंडितजी
नगर सेठ से भारी दक्षिणा पाने की कल्पना कर प्रसन्न हो गए। शुभ समय देखकर उन्होंने
भागवत कथा का मुहूर्त तय कर दिया। सप्ताह तथा कथा पूर्ण होने पर सेठ ने पंडितजी
को खूब दक्षिणा दी। पंडितजी खुश होकर उन्हें आर्शीवाद देने लगे, किंतु सेठ ने
उनसे प्रश्न किया-महाराज राजा परीक्षित ने जब शुकदेवजी से कथा सुनी थी तो जीवन
मुक्त हो गए थे, किंतु मैं जीवन मुक्त क्यों नहीं हुआ? पंडितजी ने उत्तर
दिया-यह कलियुग है। इसमें चौथाई पुण्य होता है। नगर सेठ बोले-महाराज मुझे तो पूरा
पूण्य चाहिए। दक्षिणा आप पहले से ही ले लीजिए। दक्षिणा लेने के बाद पंडितजी ने
तीन सप्ताह और कथा का आयोजन किया, किंतु फिर भी सेठ जीवन मुक्त नहीं हुए। इस बार
पंडितजी भी निरूत्तर थे। अत: दोनों ने एक महात्मा के पास जाकर अपना
प्रश्न रखा तो वे बोले-शुकदेवजी और परीक्षित संसार की मोह-माया से ऊपर उठ चुके
थे, किंतु तुम दोनों तो सांसारिक वासनाओं में जकङे हो, इसलिए चार बार क्या, सौ
बार भी भागवत सप्ताह सुनने से जीवन मुक्ति नहीं होगी।
वस्तुत: नि:स्वार्थता धर्म की कसौटी है, जो व्यक्ति
जितना अधिक नि:स्वार्थी
होगा, वह उतना ही भगवान के समीप होगा। इसके विपरीत जो व्यक्ति स्वार्थी है, वह
भले ही खूब दान पूण्य कर ले, भगवान से दूर ही रहेगा।
सच्चे धर्म की कसौटी है नि:स्वार्थता
Reviewed by Kahaniduniya.com
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सितंबर 24, 2019
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