धुन के पक्‍के रामतीर्थ ने अंततय: संस्‍कृत सीखी

तुम्‍हें शर्म आनी चाहिए कि ब्राहमण होकर फारसी की शिक्षा ग्रहण करते हो। करे, तुम्‍हें तो संस्‍कृत का अधिष्‍ठाता विद्वान होना चाहिए। उसके सहपाठी ने उसे लताङा। लाहौर कॉलेज के स्‍नातक छात्र को सहपाठी की यह बात भीतर तक चुभ गई। उसने उसी समय प्रण किया कि वह संस्‍कृत भाषा की शिक्षा अवश्‍य ग्रहण करेगा। अगले दिन वह संस्‍कृत के शिक्षक के पास गया और उसने संस्‍कृत सीखकर उसकी परीक्षा देने की इच्‍छा व्‍यक्‍त की। शिक्षक उसकी बात सुनकर पहले तो हंसे और फिर बोले-बेटे, जब तुम्‍हें संस्‍कृत का रत्तिमात्र भी ज्ञान नहीं है, तब तुम स्‍नातक में संस्‍कृत्‍त की परीक्षा हेतु फॉर्म केसे भर सकते हो? यह सुनने के बावजूद वह छात्र निराश नहीं हुआ, बल्कि उसने मन में ठान लिया कि संस्‍कृत तो वह सीखकर ही रहेगा। वह सीधा अपने पिता के पास गया, जो संस्‍कृत के प्रतिष्ठित विद्वान थे और उनसे संस्‍कृत सिखाने की प्रार्थना की। पिता ने उसके आग्रह को स्‍वीकार किया।

इस प्रकार वह छात्र अपने पिता व संस्‍कृत के विद्यार्थियों के संपर्क में रहकर अध्‍ययनरत हो गया। तीन-चार माह बाद वह पुन: संस्‍कृत के शिक्षक के पास पहुंचा और परीक्षा देने के संबंध में प्रार्थना की। शिक्षक ने उसकी परीक्षा ली और वह सफल रहा। प्रण का पक्‍का वह छात्र आगे चलकर स्‍वामी रामतीर्थ के नाम से विख्‍यात हुआ। उन्‍होंने स्‍नातक परीक्षा में विवि में शीर्ष स्‍थान प्राप्‍त किया।


कथा इंगित करती है कि यदि मन में कुछ कर गुजरने की लगन हो तो असंभव दिखने वाले कार्य भी संभव हो जाते हैं। दृढ इच्‍छाशक्ति के समक्ष समस्‍त विपरीतताएं ध्‍वस्‍त हो जाती हैं और मार्ग के शूल भी फूल बन जाते हैं। 
Reviewed by Kahaniduniya.com on सितंबर 09, 2019 Rating: 5

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