महाकवि माघ अत्यंत उदारमना थे। वे जो भी
अर्जित करते उसे ज्यादातर अभावग्रस्तों में बांट दिया करते। स्थिति यह थी कि यदि
उनके पास एक रोटी होती और द्वार पर कोई भूखा आकर खङा आकर खङा हो जाता तो वह रोटी
उसे देकर स्वयं भूखे रह जाते। उनकी पत्नी भी उनके ही समान आत्मत्यागी और
संतोषी महिला थी। वह कभी अपने पति के समक्ष अपनी ओर से कोई मांग नहीं रखती थी। एक
बार माघ के इलाके में भीषण अकाल पङा। उन्होंने अपनी संपदा बेचकर सारा पैसा
दीन-दरिद्रों की सेवा में लगा दिया। अब मात्र उनका नवरचित काव्य ही घर में शेष
बचा था। माघ सोचने लगे कि यदि इस काव्य के बदले कुछ पैसा मिल जाए तो उसे भी
दुखियों की सेवा में लगा दें। किंतु इसे कौन खरीदेगा?
फिर उन्हें राजा भोज की याद आई, जो
विद्वानों का समुचित आदर मान करते थे। वे अपनी पत्नी के साथ राजा भोज के राजमहल
तक पहुंचे। उन्होंने पत्नी को ग्रंथ देकर भोज के पास भेजा क्योंकि उन्हें डर
था कि यदि भोज उन्हें पहचान लेंगे तो ग्रंथ के उचित मूल्य से अधिक धन देंगें।
ग्रंथ इतना उच्च कोटि का था कि माघ की पत्नी द्वारा स्वरचित बताने पर भी भोज ने
मुक्त हस्त से पुरस्कार दिया, जिसे अनुभव हुआ। माघ दंपत्ति की परसेवा की यह
भावना स्तुत्य व अनुकरणीय है, जहां ‘निज’ अपनी संपूर्णता में ‘पर’ का हो जाता
हैं।
यह बहुत सत्य है कि जब हम अपेन दो हाथ
दूसरों की मदद के लिए खोलते हैं, तो ईश्वर हजार हाथों से हमारी राह आसान कर देता
है।
उत्तम विचार – जिसके अंतरंग में शांति
हो, उसे बाहरी वेदना कभी कष्ट नहीं दे सकती।
अकाल का प्रकोप और महाकवि की उदारता
Reviewed by Kahaniduniya.com
on
सितंबर 15, 2019
Rating:
कोई टिप्पणी नहीं: