विश्व विजयी सिकंदर अपने गुरू रस्तू का
बहुत सम्मान करता था। उनकी दी हुई शिक्षाओं पर सदैव अमल भी करता। अरस्तू के आदेश
उसके लिए पत्थर की लकीर होते और कभी वह उनके विपरीत आचरण नहीं करता था। एक दिन वह
अरस्तू के साथ कहीं से लौट रहा था। उस दिन गुरू-शिष्य पैदल ही थे। उंची-उंची पहाङियों
व सघन वन के प्राकृतिक माहौल में दोनों वार्तालाप करते हुए चल रहे थे। सहसा सामने
एक गहरा नाला आ गया। अरस्तू के मन में अपने प्रिय शिष्य के प्रति प्रेम उमङ पङा।
वे बोले-सिकंदर नाले को पहले मैं पार करूंगा, फिर तुम करना। पहले मैं इसकी गहराई
देख लूं। किंतु आज सिकंदर के मन में कुछ और ही था। उसने जीवन में प्रथम बार गुरू की
आज्ञा का उल्लंघन किया और गुरू से पहले ही नाला पर कर लिया। सिकंदर के इस कृत्य
पर अरस्तू ने नाराज होकर पूछा-तुमने आज तक मेरी हर आज्ञा को सिर-आंखों पर लिया
हैं। फिर आज क्यों नहीं माना? सिकंदर ने विनयपूर्वक कहा- गुरूदेव।
नाला पार करते समय यदि आपके साथ कोई
अनहोनी घट जाती तो मैं आपके जैसा दूसरा गुरू कहां खोजता? और मैं यदि डूब जाता तो आप
अपने ज्ञान से सैकङों सिकंदर बनाने में समर्थ हैं अपने शिष्य के वचन सुनकर अरस्तु
भाव-विभोर हो गए और उन्होंने सिकंदर को अपने गले से लगा लिया।
सार – सिकंदर की गुरू भक्ति, हमें सिखाती
है कि अपने ज्ञान व अनुभव से जो हमारी आत्मा को समृद्व बनाता है, उस व्यक्तित्व
के प्रति पूर्ण आदरभाव रखना चाहिए और अवसर आने पर उसके लिए बङे से बङा बलिदान करने
से भी नहीं चूकना चाहिए। यही गुरूॠण से मुक्त होने का तरीका है और हमारे भारतीय
संस्कारों का अभिन्न अंग भी है।
उत्तम विचार – सबसे बङी सेवा है जीवन की
खुशियों को दूसरों के साथ बांटना।
सिकंदर ने दिखाई अपने गुरू के प्रति सच्ची भक्ति
Reviewed by Kahaniduniya.com
on
सितंबर 15, 2019
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