सूफी दरवेश अमीरूल्लाह पहुंचे हुए फकीर
थे। उनके सानिध्य में अनेक लोगों को मन की शांती मिलती थी। अमीरूल्लाह का हर
क्षण खुदा की इबादत में बीतता था। हिंदू-मुसलमान, गरीब-अमीर सभी उनके अपने थे। एक
बार शाम के समय एक युवक बाबा के पास आया। फकीर के पास पहुंचकर उसने उन्हें सांष्टांग
प्रणाम किया और उनका शिष्य होने की इच्छा प्रकट की। बाबा ने उसकी ओर देखा और
बोले-‘यदि तुम शिष्य होना चाहते हो, तो पहले शिष्य की जिंदगी का ढंग सीखो।
यह क्या है बाबा? ‘युवक के जिज्ञासा
प्रकट करने पर बाबा ने उसे समझाया-बेटा शिष्य अपनी अंतरात्मा का सम्मान करना जानता
है। वह इंद्रिय लालसाओं के लिए, थोङे से स्वार्थ के लिए या अहंकार की झूठी शान के
लिए अपना सौदा नहीं करता। वह ऐसी जिंदगी जीता है, जो खुदा के एक सच्चे व नेक बंदे
को जीनी चाहिए। ‘दुनिया का आम ईसान दुनिया के सामने झूठी, नकली जिंदगी जीता है। वह
सभ्य के कारण अथवा समाज के डर की वजह से, समाज में अपने अच्छे होने का नाटक करता
है, परंतु चोरी छिपे अनेक बुरे काम कर लेता है। खुदा का नेक बंदा कभी ऐसा नहीं
करता, क्योंकि वह जानता है कि सङक और चौराहों में भी खुदा है और कमरों की बंद
दीवारों के भीतर और यहां तक कि अंतर्मन के दायरों में भी उसकी उपस्थिति है। सो वह
हर कहीं, हर जगह अपने कर्म, विचार व भावनाओं को पाक-साफ होकर जीता है। यही अंतरात्मा
का सम्मान करने का तरीका हैं जो ऐसा करते हैं, वही अपने गुरू को सहज प्यार करते
हैं और भगवान की कृपा भी उन पर सदा बरसती है।
सार – शिष्य को अपनी अंतरात्मा का सम्मान
करते हुए दुनियावी ढकोसलों से उपर उठकर जीवन व्यतीत करना चाहिए। गुरू के प्रति
उसकी सच्ची श्रद्धा ही उसे प्रभु कृपा का पात्र बनाती है।
गुरू को प्यार करने वालों पर होती है ईश-कृपा
Reviewed by Kahaniduniya.com
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सितंबर 21, 2019
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