दाजिंलिंग जाकर
देखा, बादल और वर्षा से दसों दिशाएँ ढकी हुई हैं। घर से बाहर निकलने की ख्वाहिश
नहीं होती, घर में रहने पर अनिच्छा और भी बढती।
होटल में सवेरे का
नाश्ता खत्म करे पैरों में मोटे बूट एवं आपाद-मस्तक मैकिंटोश पहनकर टहलने
निकला। लगातार टप-टप करके वर्षा हो रही थी एवं चारों तरफ सघन बादलों की कुंझटिका
में लगता था जैसे विधाता ने हिमालय पर्वत के साथ समस्त विश्व-चित्र को रबर से
घिस-घिसकर मिटा डालने के लिए तैयारी कर ली।
जनशून्य कैलकटा
मार्ग पर एकाकी टहलते हुए सोच रहा था-अवलम्बहीन मेघराज्य में अब इच्छा नहीं
महसूस होती, शब्दस्पर्शरूपमयी विचित्र धरतीमाता को फिर पाँचों इंद्रियों द्वारा
पाँचों रूपों में ग्रहण करने के लिए प्राण व्याकुल हो उठे।
तभी निकट ही
रमणी-कंठ की करूण रोदन-गुञ्जन-ध्वनि सुनाई पङी। रोग- शोक-संकुल जगत में रोने की
आवाज कोई विचित्र नहीं है, अन्यत्र अन्य समय होता तो मुङकर भी देखता या नहीं
संदेह है, मगर उस असीम मेघराज्य में उस रूदन ने सम्पूर्ण अदृश्य संसार के
एकमात्र रूदन की भाँति मेरे कानों में आकर प्रवेश किया, वह तुच्छ नहीं महसूस हुआ।
शब्द के सहारे निकट
जाकर देखा, गैरिक-वस्त्र पहने एक नारी, जिसके सिर पर स्वर्णकपिश जटाभार चूङा के
आकार में बंधा हुआ था, रास्ते के तट पर शिलाखंड पर बैठी मृदुस्वर में क्रंदन कर
रही थी। यह सद्यशोक का विलाप नहीं था, काफी दिनों की संचित नि:शब्द श्रांति और
अवसाद आज मेघांधकार निर्जनता के बोझ से फूटकर उच्छ्वसित हो पङे थे।
मन-ही-मन सोचा, यह
अच्छा रहा, शुरू से मानो घर में गढी हुई कहानी की ही तरह हुआ हो, पर्वत शिखर पर
संन्यासिनी बैठी रो रही हो-यह कभी चर्मचक्षुओं से देखूंगा इसकी कभी उम्मीद नहीं
की थी।
लङकी किस जाति की
थी, तय नहीं हो पाया। आर्द्र हिन्दी भाषा में पूछा “तुम कौन हो? तुम्हे क्या हुआ है?”
पहले जवाब नहीं
दिया, बादलों के बीच सजल दीप्त नेत्रों से मुझे एक बार देख लिया।
मैंने फिर आग्रह
किया, “मुझसे डरो मत। मैं
भला व्यक्ति हूँ।”
सुनकर वह हँसती हुई
ठेठ हिन्दुस्तानी में बोली, “काफी
दिन से डर-भय सब घोलकर पिए बैठी हूँ, कोई लाज-शर्म नहीं है। बाबूजी, एक समय था कि
मैं जिस जनानखाने में थी वहाँ मेरे सहोदर भाई को भी प्रवेश करने के लिए इजाजत लेनी
पङती थी, आज दुनिया में किसी से मेरा कोई पर्दा नहीं।”
पहले तो थोङा गुस्सा
आया; मेरा चाल-चलन पूरा साहबी था, किन्तु यह हतभागिनी बिना किसी दुविधा के मुझे
बाबूजी कहकर क्यों सम्बोधित करती है? सोचा, अपना उपन्यास यहीं खत्म करके
सिगरेट का धुंआ उङाता हुआ नाक उठाए साहबियत की रेलगाङी की तरह सशब्द सवेग सदर्प
चल पडूं। लेकिन अंत में कौतुहल की विजय हुई। मैंने कुछ बङप्पन का भाव दिखाते हुए
टेढी गर्दन करके कहा, “तुम्हारी
कुछ मदद कर सकता हूँ? तुम्हारी कोई विनती है?” उसने स्थिर भाव से मेरे मुख की तरफ निहारा
और क्षण-भर बाद संक्षेप में जवाब दिया, “मैं
बद्राओन के नवाब गुलाम कादिर खां की बेटी हूँ। ”बद्राओन किस देश मे है तथा नवाब गुलाम
कादिर खां कौन हैं और उनकी बेटी किस दु:ख से संन्यासिनी के वेश मे दार्जिलिंग की
कैलकटा रोड के किनारे बैठी रो रही थी? मैं इसका कोई सिर-पैर नहीं जानता था, न यकीन
ही करता था, किंतु सोचा कि रस भंग नहीं करूँगा, कहानी खूब जम रही है।
तत्क्षण अपना चेहरा
अधिकतर गम्भीर बनाकर लम्बा सलाम करते हुए बोला, “बीवी साहिबा, माफ करे मैं आपको पहचान न
सका।”
न पहचान पाने के
अनेक युक्तिसंगत कारण थे, उनमें सर्वप्रथम कारण था, उनको पहले कभी देखा ही न था,
जिसपर कुहरा ऐसा था कि हाथ कि हाथ को हाथ नहीं सूझता था।
बीबी साहिबा ने भी
मेरे जुर्म पर ध्यान न दिया और संतुष्ट स्वर में दाहिने हाथ के संकेत से एक अलग
शिलाखंड का निर्देश करते हुए मुझे आज्ञा दी, “बैठिए।”
देखा, रमणी में हुक्म
देने की क्षमता है। मैंने उससे उस भीगे शैवाल से ढके कठोर असमतल शिलाखंड के नीचे
आसन ग्रहण करने की सम्मति पाकर एक अप्रत्याशित सम्मान हासिल किया। बद्राओन के
गुलाम कादिर खां की बेटी नूरून्निसा या नूर-उलू मुल्क ने मुझे दार्जिलिंग के
कैलकटा मार्ग के किनारे अपने पास अनतिउच्च पंकिल आसन पर बैठने का हक दिया। होटल
से मैकिंटोश पहनकर बाहर निकलते वक्त सुमहत सम्भावना की मुझे स्वप्न में भी आशा
न थी।
हिमालय के वृक्ष पर
शिला-तले एकांत में राहगीर नर-नारी की रहस्यालाप कहानी सुनने में सहसा सद्य
प्रणीत कदुष्ण काव्य–कथा की तरह लगती है, पाठकों के दिल मे दूरागत निर्जन
गिरिकंदरा की निर्झर प्रतापध्वनि तथा कालिदास रचित मेघदूत, कुमार सम्भव के
विचित्र संगीत की मर्मर ध्वनि जाग्रत हो जाती है, तथापि यह बात सबकों मंजूर करनी
पङेगी कि बूअ तथा मैकिंटोश पहने कैलकटा मार्ग के किनारे कर्दमासन पर एक
दीनवेशधारिणी हिन्दुस्तानी (अबंगाली) रमणी के साथ एक स्थान पर बैठकर पूर आत्म-गौरव
का अक्षुण्णा भाव से अनुभव कर सकें, ऐस आधुनिक बंगाली बहुत कम होंगे। लेकिन उस
दिन दसों दिशाएँ सघन कुहरे से ढकी हुई थीं, इसलिए दुनियां की आँखों से शर्माने की
कोई बात न थी। अनंत मेघराज्य में सिर्फ बद्राओन के नवाब गुलाम कादिर खां की बेटी
और मैं-एक नवविकसित बंगाली साहब-दोनों जने पत्थरों पर प्रलय के आखिर में बचे दो
विश्वखंडों के समान थे, इस विसदृश सम्मेलन का गूढ परिहास सिर्फ हमारे भाग्य को
ज्ञात था, और किसी को नहीं ।
मैंने कहा, “बीबी साहिबा तुम्हारी
यह स्थिति किसने की?”
बद्राओन कुमारी ने
अपना सिर ठोक लिया। बोली, “यह
सब कौन कराता है इस वजह से मैं क्या जानूं! इतने बङे प्रस्तरमय कठिन हिमालय को
साधारण भार के बादलों में किसने छिपा दिया है!”
मैंने किसी तरह का
दार्शनिक तर्क उठाए बिना ही सब स्वीकार कर लिया। बोला, “सो तो है, अदृश्य के राज को कौन जाने! हम
तो कीअ-मात्र हैं।” मैं
तर्क करता, बीबी साहिबा को इतनी सरलता से छुट्टी न दे देता, लेकिन मेरी भाषा में
सामर्थ्य न थी। दरबान और खानसामाओं के सम्पर्क से हिन्दी का जो अभ्यास हुआ था
उससे कैलकटा रोड के तट पर बैइकर बद्राओन अथवा अन्य किसी जगह की किसी नवाबपुत्री
के साथ अदृष्टवाद या स्वाधीन इच्छावाद के विषय में स्पष्ट रूप से आलोचना करना
मेरे लिए नामुमकिन ही होता।
बीबी साहिबा बोली, “मेरे जीवन की अदभूत
कहानी आज ही खत्म हुई है, यदि फरमाइस करें तो सुनाऊँ।”
मैंने अधीर होकर
कहा, “हैरानी है! फरमाइश
कैसी? अगर अनुग्रह करें तो सुनकर श्रवण सार्थ होंगे।”
कोई यह न सोचे,
मैंने बिल्कुल ये ही बातें इसी प्रकार हिन्दुस्तानी भाषा में कही थीं। कहने की
इच्छा तो थी, किन्तु सामर्थ्य न थी। बीबी साहिबा जब बात कर रही थीं तब मुझे
प्रतीत हो रहा था मानो शिशिर-स्नात स्वर्णशीर्ष स्निग्ध श्यामल शस्य-क्षेत्र
के ऊपर प्रभाव की मंद मुधुर हवा लहरा रही हो, उनके शब्द-शब्द में कैसी सहज
नम्रता, कैसी सुन्दरता, वाक्यों का कैसा अविच्छिन प्रवाह था! और मैं अत्यंत
संक्षेप में टूटे-फूटे तरीके से बर्बर की तरह सीधा-सादा उत्तर दे रहा था। भाषा की
वैसी सुसम्पूर्ण अविच्छिन्न सहज शिष्टता मैंने कभी जानी ही न थी। बीबी साहिबा
से बार्तालाप करते वक्त ही मैंने पहली बार कदम-कदम पर अपने आचरण की दीनात महसूस
की।
वे बोलीं, “मेरे पितृ-कुल में
दिल्ली के सम्राट-वंश का खून प्रवाहित था, उसी कुल-गौरव की हिफाजत के विचार से
मेरे लिए उपयुक्त पात्र मिलना दु:साध्य हो गया था। लखनऊ के नवाब के साथ मेरी
शादी का प्रस्ताव आया था, पिता इधर-उधर कर रहे थे, तभी दांत से कारतूस काटने की
बात पर सिपाहियों के साथ सरकार बहादुर की लङाई शुरू हो गई, तोपों के धुएँ से हिन्दुस्तान
में अंधकार छा गया।”
औरत के कंठ से
विशेषकर संभ्रांत महिला के मुख से हिन्दुस्तानी कभी नहीं सुनी थी, सुनकर स्पष्ट
जान गया कि यह भाषा अमीरों की भाषा है-यह जिन दिनों की भाषा थी वे दिन आज तो नहीं
रहे, आज रेलवे टेलीग्राफ कामों की भीङ तथा आभिजात्य के लोप के कारण सभी मानो तुच्छ,
विकलांग और श्रीहीन हो गया है। नवाबजादी की बोली सुनते ही उस अंग्रेज-रचित आधुनिक
शैलनगरी दार्जिलिंग के सघन कुंझटिका-जाल में मेरे दिल के नेत्रों के सामने
मुगल-सम्राटों की मानसपुरी मानो जादू के बल से साकार हो उठी-श्वेत पत्थरों के
बने बङे-बङे अभ्रभेदी प्रासादों की श्रेणी, मार्ग में लम्बी पूंछ वाले घोङों की
पीठ पर सजी मसनदें, हाथियों की पीठ पर सोने की झालर से सजे हुए हौदे, परवासियों के
सिरों पर अनेक रंगों की उष्णीय, ऊन के, रेशम के, मलमल के, ढीले-ढीले
कुर्ते-पायजामे, कमरबंदों में लटकी तलवारें,
जरीदार जूतों की मुङी हुई नोंकें, पर्याप्त
अवकाश, लम्बी पोशाक और ज्यादातर शिष्टाचार।
नवाबजादी बोली, “हमारा किला यमुना के
किनारे था। हमारी फौज का सेनापति एक हिन्दू ब्राह्माण था, जिसका नाम था
केशरलाल।।”
रमणी ने इस केशरलाल
शब्द पर अपने नारी-कंठ का पूरा संगीत मानो एक ही पल में पूरा-का-पुरा उङेल दिया
हो। में जमीन पर छङी टेककर हिल-डुलकर उकडूं होकर बैठ गया।
“केशरलाल कट्टर हिन्दू था। मैं रोजाना
प्रात:काल उठकर अंत:पुर गाँव के गवाक्ष से देखती, केशरलाल यमुना के जल में आवक्ष
निमग्न होकर प्रदक्षिणा करते हुए हाथ जोङे ऊर्ध्वमुख होकर उगते सूरज को अंजलि
प्रदान करता। फिर गीले वस्त्र पहने घाट पर बैठकर एकाग्रचित से जप खत्म कर स्पष्ट
कंठ से भैरव-राग में भजन गाता घर लौटता।”
“मैं मुसलमान बच्ची थी, मगर कभी भी सवधर्म
की चर्चा नहीं सुनी थी तथा धर्मानुसार उपासना-विधि भी नहीं जानती थी। उन दिलों
विलास, मद्यपान और स्वेच्छाचार की वजह से हमारे पुरूषों का धर्म-बंधन शिथिल हो
गया था तथा अंत:पुर के प्रमोद-भवनों में भी धर्म सजीव नहीं था।”
कभी भी विधाता ने
मुझे स्वाभाविक रूप से धर्म-पिपासा प्रदान की थी। या कोई और गूढ कारण था अथवा
नहीं, मैं नहीं कह सकती, लेकिन प्रतिदिन प्रशांत प्रभात में नवोन्मेषित अरूणालोक
में निस्तरंग नील यमुना के निर्जन श्वेत सोपान के किनारे पर केशरलाल की
पूजार्चना के दृश्य से मेरा सद्यसुप्तात्थित अंत:करण एक अव्यक्त भक्ति-माधुर्य
से परिप्लावित हो जाता।
नियत संयत शुद्धाचार
वाले ब्राह्मण केशरलाल की गोरे रंग की, जीवंत सुंदर शरीर धूमरित ज्योति-शिखा के
समान महसूस होती; ब्राह्मण का पुण्य माहात्मय इस मुसलमान बच्ची के मूढ ह्रदय को
अपूर्व श्रद्धाभाव से नम्र कर देता।”
“मेरी एक हिन्दू सेविका थी, वह रोजाना
प्रणाम करके केशरलाल की चरणों की धूलि ले आती। देखकर मुझे मजा भी आता, ईर्ष्या भी
होती। क्रियाकर्म और पर्वो के मौके पर यह बांदी बीच-बीच में ब्राह्मण भोजन कराकर
दक्षिणा दिया करती। मैं अपनी तरफ से उसे आर्थिक सहायता देकर कहती, तू केशरलाल को
नहीं न्यौतेगी?” वह
जबान काटकर कहती, “केशरलाल
किसी का अन्न अथवा दान ग्रहण नही करते।”
इस तरह प्रत्यक्ष
या परोक्ष किसी भी रूप में केशरलाल को भक्ति-भाव न दिखा सकने की वजह से मेरा चित्त
जैसे क्षुब्ध क्षुधातुर बना रहता।
“हमारे पहले पुरूषों में किसी ने बलपूर्वक
एक ब्राह्मण कन्या से विवाह किया था, मैं अंत:पुर के कोने में बैठकर अपनी धमनियों
कें उसी के पुण्यरक्त के प्रवाह का तजुर्बा करती और उसी रक्त-सूत्र द्वारा
केशरलाल के साथ एक ऐक्य ताल्लुक की कल्पना करके थोङी-बहुत तृप्ति अनुभव करती।”
अपनी हिन्दू सेविका
से मैं हिन्दू-धर्म के समस्त आचार-व्यवहार, देवी-देवताओं की पूरी आश्चर्यजनक
कथाएँ, रामायण-महाभारत का समस्त अपूर्व इतिहास विस्तार से सुनती; सुनकर उस
अंत:पुर के एक भाग में बैठे-बैठे हिन्दू संसार का एक अतुलनीय नजारा मेरे मन में
उदघटित हो जाता। मूर्ति-प्रतिमाएँ, शंखघंटा-ध्वनि, स्वर्ण-शिखर-मंडित देवालय,
धूप का धुंआं, अगुरूचंदन-मिश्रित पुष्पराशि की महक, योगी-संन्यासियों की अलौकिक
क्षमता, ब्राह्मणों का अलौकिक माहात्म्य, लोगों के छद्य-वेश मे देवताओं की अनोखी
लीला, सब मिलकर मेरे लिए एक अत्यंत प्राचीन, अधिक विस्तृत, अति सुदूर अप्राकृत
मायालोक का सृजन कर देते, मेरा चित्त मानों कोटर-वंचित क्षुद्र पक्षी की तरह संध्या
के समय किसी विशाल प्राचीन प्रासाद के कक्ष-कक्ष में उङता डोलता। हिन्दू संसार
मेरे बालिका के ह्रदय के लिए एक परम रमणीय परीदेश का राज्य था।
तभी कम्पनी बहादुर
के साथ सिपाहियों की लङाई आरम्भ हो गई। हमारे बद्राओन के छोटे-से किले में भी
विप्लव की तरंग-सी जाग उठी।
केशरलाल ने कहा, “अब गायों के भक्षक
गोरे लोगों को आर्यावर्त से दूर भगाकर एक बार फिर हिन्दुस्तान में राजपद के लिए
हिन्दू-मुसलमानों में जुए की बाजी लगानी पङगी।”
मेरे पिता गुलाम
कादिर खां बङे ही सयाने थे। उन्होंने अंग्रेज जाति को किसी एक खास सम्बन्ध सूचक
सम्बोधन से अभिहित करके पूछा, वे नामुमकिन को मुमकिन कर सकते हैं, हिन्दुस्तान
के लोग उनसे पार नही पा सकेंगे। मैं अनिश्चित प्रत्याशा में अपना यह छोटा-सा किला
खोना नही चाहता, मैं कम्पनी बहादुर से कभी नहीं लडूंगा।”
जिस वक्त हिंदुस्तान
के सभी हिन्दू-मुसलमानों का खून खोल उठा था, उस वक्त अपने पिता की वणिक् की-सी
इस सतर्कता के प्रति हम सभी के ह्रदय में धिक्कार का भाव आ गया। मेरी बेगम माताएँ
तक हिल गई।
तभी फौज लिए सशस्त्र
केशरलाल आकर मेरे पिता से कहे लगे, “नवाब
साहब, अगर आप हमारे पक्ष में योग नहीं देंगे तो जब तक लङाई चलेगी तब तक मैं आपको
बंदी बनाकर आपके किले का अधिपत्य-भार प्राप्त करूँगा।”
पिता बोले, “इस हंगामे की कोई
जरूरत नहीं, मैं तुम्हारे पक्ष में रहूँगा।”
केशरलाल ने कहा, “इस खजाने से कुछ धन
निकालना है।”
पिता ने कुछ नहीं
कहा, “जब जितना चाहिए मैं दे
दूंगा।”
शोटी से लेकर पेरों
की अंगुलियों तक मेरे अंग-अंग में जितने गहने थे मैंने छिपकर अब वस्त्र में
बाँधकर अपनी हिन्दू दासी द्वारा केशरलाल के पास भेज दिए। उन्होंने मंजूर कर लिए।
आनंद से आभूषण-विहीन मेरा अंग-अंग पुलकित-रोमाँचित हो उठा।
केशरलाल जंगखाई
बंदूकों की नलियों तथा पुरानी तलवारों को माँज-घिसकर स्वच्छ करने लगे, तभी अचानक
एक दिन तीसरे पहर जिले के कमिश्नर साहब ने लालकुर्ती गोरों के साथ आसमान में धूल
उङाते हमारे किले में घुसकर प्रवेश किया।
मेरे पिता गुलाम
कादिर खां ने खामोशी से उनको विद्रोह का समाचार दे दिया था। बद्राओन की फौज के ऊपर
केशरलाल का ऐसा अलौकिक आधिपत्य था कि उसकी अनुमति से वे टूटी बंदूकें और मोथरी
तलवारें लेकर मरने के लिए उपस्थित हो गए।
विश्वासघाती पिता
का घर मुझे नरक के समान महसूस हुआ। क्षोभ, लज्जा, दु:ख नफरत से छाती फटने लगी, तो
भी आँखों से एक बूँद पानी न निकला। मैं अपने भीरू भाई की पोशाक पहनकर छद्यवेश में
अंत:पुर के बाहर निकल गई, किसी को देखने की मौहलत नहीं थी।
उस वक्त गोला ओर
बारूद का धुंआ, सैनिकों का आर्त्तनाद एवं बंदूकों को स्वर थमा चुका था और मृत्यु
की भीषण शांति ने जल-स्थल और आसमान को आच्छन्न कर लिया था। यमुना के जल को लाल
रक्त से रंगकर सूर्य छिप गया था, संध्याकाल में शुक्ल पक्ष का पूर्णप्राय
चंद्रमा चमक रहा था।
मृत्यु के विकट
नजारे से रण-क्षेत्र पटा पङा था-और कोई समय होता तो करूणा से मेरा वक्ष-स्थल व्यथित
हो उठता, मगर उस दिन स्वप्नाभिभूत की तरह मैं केशरलाल को खोजती चक्कर काट रही
थी, बस उस लक्ष्य के अलावा और सब मुझे अवास्तव प्रतीत हो रहा था।
“ढूढते-ढूंढते आधी रात को उज्जवल चंद्रलोक
में देखा, रणक्षेत्र से थोङी दूर पर यमुना के तट पर आम्र-वन की छाया में केशरलाल
और उनके भक्त भृत्य देवकीनंदन की मृत देह पङी हुई है। मैं समझ गई कि भयानक आहत
हालत में या तो स्वामी ने सेवक को अथवा सेवक ने स्वामी को रणक्षेत्र से इस निरापद
जगह में ले आकर शांतिपूर्वक मृत्यु के हाथों आत्म-समर्पण किया होगा।
सर्वप्रथम तो मैंने
अपनी बहुत दिनों की भूखी भक्ति-भावना को चरितार्थ किया। केशरलाल के चरणों पर लेटकर
अपना आजानुदीर्घ केश-जाल खोलकर बारम्बार उनके चरणों की धूल पोंछी, अपने उत्तप्त
ललाट से उनके हिमशीतल चरणकमल लगाए, उनके चरणों का चुम्बन करते ही मेरी काफी दिनों
की रूकी हुई अश्रु-राशि फूट पङी।
तभी केशरलाल की देह
हिली, और अचानक उनके मुँह से वेदना का अस्फुट आर्त्त स्वर सूनकर मैं उनके चरणतल
छोङकर चौंक पङी, मैंने सुना, उन्होंने आँखें बंद किए शुष्क कंठ से एक बार फिर
कहा, “पानी।”
मैं तत्क्षण
दौङी-दौङी गई और अपने तन के वस्त्र को यमुना के जल में भिगो लाई। वस्त्र निचोङकर
केशरलाल के खुल ओष्ठाधरों में पानी डालने लगी तभी बाईं आँख को फोङता उनके माथे
में जहाँ भयंकर जख्म लगा था, उस पर अपने वस्त्र का गीला छोर फाङकर बाँध दिया।
इसी प्रकार कई बार
यमुना का जल लाकर उनके मुख, नेत्रों को सींचने के पश्चात् धीरे-धीरे उनमें चेतना
का संचार हुआ। मैंने पूछा, “और
पानी डालूं?”
केशरलाल बोले, “तुम कौन हो?” मैं अब और न रह सकी,
बोली, “आपकी अधीना भक्त
दासी। मैं नवाब गुलाम कादिर खां की बेटी हूँ।” मैंने सोचा था,
आसन्न मृत्यु के
वक्त केशरलाल अपने भक्त का अंतिम परिचय साथ लेते जायें, इस सुख से मुझे कोई
वंचित नहीं कर सकता।
मेरा परिचय पाते ही
केशरलाल शेर के समान गरजकर बोले, “बेईमान
की पुत्री विधर्मी! मृत्यु की घङी में यौवन के हाथ का जल देकर तूने मेरा धर्म
भ्रष्ट कर डाला!” इतना
कहकर उन्होंने बङे जोर से मेरे गाल पर दाहिने हाथ से थप्पङ मारा; मैं
मूर्च्छित-सी हो गई, मेरे नेत्रों के सामने अंधेरा छा गया।
उस वक्त मैं षोडशी
थी, उस दिन पहली बार अंत:पुर से बाहर निकली थी, अभी बाहर के आसमान की लुब्ध, तप्त
सूर्य-किरणों ने मेरे सुकुमार कपोलों की रक्तवर्ण लावण्यविभा का अपहरण नही किया
था, उस बर्हिजगत् में पैर रखते ही संसार से, अपने जगत् के देवता से यह पहला सम्बोधन
प्राप्त हुआ।” मैं
सिगरेट बुझाए मोह-मुग्ध चित्र-लिखित की तरह बैठा था। कहानी सुन रहा था, अथवा शब्द
सुन रहा था। या संगीत सुन रहा था, पता नही मेरे सुख से कोई बात न निकली। अब मैं और
न रह सका, सहसा बोल पङा, “जानवर!” नवाबजादी बोली, “जानवर कौन? जानवर क्या
मृत्यु की यंत्रणा के वक्त होठों तक आए जल-बिंन्दु का परित्याग करता है?”
मैंने अप्रतिभ होकर
कहा, “ठीक है। वह देवता
था।”
नवाबजादी बोली, “कैसा देवता? क्या
देवता एकाग्रचित्त भक्त की सेवा का प्रत्याख्यान कर सकता है?”
मैं बोला, “यह भी उचित है।” कहकर खामोश हो गया।
नवाबजादी बोली, “पहले तो मुझे बङा
बुरा लगा। लगा कि सारा संसार अचानक चूर-चूर होकर मेरे सिर पर टूट पङा हो। क्षण-भर
पश्चात् संभलकर उस कठोर, कठिन, निष्ठुर, पवित्र ब्राह्मण के चरणों में दूर से
नमस्कार किया-मन-ही-मन कहा, हे ब्राह्मण! तुम दीनों की सेवा, दूसरो का अनाज, धनी का
दान, युवती का यौवन, रमणी का प्रेम कुछ भी ग्रहण नही करते, तुम आजाद, एकाकी,
निर्लिप्त, सुदूर हो, तुम्हारे लिए आत्म-समर्पण करने का भी मुझे हक नहीं है।”
नवाब-दुहिता को जमीन
पर मस्तक टेककर प्रणाम करते देखकर केशरलाल ने क्या सोचा, नहीं कह सकती, लेकिन
उसके चेहरे से विस्मय या किसी अन्य भाव-परिवर्तन का परिचय नहीं मिला। शांत भाव
में एक बार मेरे मुँह की तरफ देखा, उसके पश्चात् धीरे-धीरे उठा। मैंने चौंककर
सहारा देने के लिए जैसे ही अपना हाथ बढाया, उसने बिना बोले उसका प्रत्याख्यान
किया और बङे दु:ख से यमुना घाट जा पहुँचा। व़हाँ पार आने-जाने वाली एक नाव बंधी
थी। उस नाव पर चढकर केशरलाल ने बंधन खोल दिया, देखते-देखते नौका बीच धारा में जाकर
धीरे-धीरे गायब हो गई-मेरी ख्वाहिश हुई कि समस्त ह्रदय-भार, समस्त यौवनभार,
समस्त अनादृत भक्तिभार लेकर उस अदृश्य नौका की तरह हाथ जोङकर उस निस्तब्ध आधी
रात्रि में, उस चंद्रालोक-पुलकित निस्तरंग यमुना में अकाल-वृंतच्युत पुष्पमंजरी
के समान इस बेकार जीवन को विसर्जित कर दूं। लेकिन नहीं कर सकी। आकाश में चंद्र,
यमुनापार की घनकृष्ण जंगल की रेखा, कालिंदी की गाङी नीली निष्कंप जलराशि, दूर
आम्रवन के ऊपर चमकता हमारे जयोत्स्नाचिक्कण किले का शिखर भाग, सबने नि:शब्द
गम्भीर एक तान से मृत्यु का गाना गाया,
उस अर्धरात्रि में ग्रहचंद्रताराखचित निस्तब्ध तीनों भुवनों ने मुझसे एक
स्वर में मरने के लिए कहा। सिर्फ वीचिभंगविहीन प्रशांत यमुना के वक्ष पर उतराती
हुई एक अदृश्य जीर्ण नाव मुझे उस ज्योत्सना रजनी के सौम्य-सुंदर शांत-शीतल
अनंत भुवनमोहन मृत्यु के फैले हुए आलिंगन-बंधन से छुङाकर जीवन के पथ पर खींच ले
चली। मैं मोहस्वप्नाभिभूत के समान यमुना नदी के किनारे-किनारे कभी कांस-वन में,
कभी-मरू-बालूका पर, कभी असमतल विदीर्ण किनारे पर, कभी सघन गुल्म के दुर्गम वन-खंड
में भटकती हुई चलने लगी।”
यहाँ वक्ता खामोश
हो गया। मैंने भी कोई बात नहीं की।
कुछ देर पश्चात्
नवाब-दुहिता ने कहा, “इसके
बाद की घटनावली काफी जटिल है। मैं नहीं जानती कैसे उसका विश्लेषण करके स्पष्ट
रूप से कहूँ। एक गहन अरण्य में होकर यात्रा की, ठीक किस मार्ग से होकर कब गई उसे
क्या फिर ढूंढ निकाल सकती हूँ? कहाँ से शुरू करूँ, कहाँ खत्म करूँ, क्या छोडूं,
क्या रखूं, सम्पूर्ण कहानी को किस प्रकार ऐसा स्पष्ट प्रत्यक्षवत् बनाऊँ
जिसमें कुछ भी असाध्य, नामुमकिन अस्वाभाविक महसूस न हो।
लेकिन जीवन के इन
थोङे-से दिनों में यह समझ गई हूँ कि असाध्य नामुमकिन कुछ भी नहीं है। नवाब के
अंत:पुर की बालिका के लिए बाहर का जगत नितांत दुर्गम कहा जा सकता है किन्तु यह
कल्पना-मात्र है। एक बार बाहर निकल जाने पर चलने के लिए रास्ता मिल ही जाता है।
वह मार्ग नवाबी मार्ग भले ही न हो, किन्तु मार्ग है, उस मार्ग पर मनुष्य चिरकाल
से चलता आ रहा है-वह असमतल विचित्र सीमाहीन है, वह शाखा-प्रशाखाओं में विभक्त है,
सुख-दु:ख, बाधा-विघ्नों की वजह से वह जटिल है, लेकिन वह मार्ग जरूर है।
इस सामान्य जन-जीवन
के मार्ग पर एकाकिनी नवाब-दुहिता का लम्बा भ्रमण-वृतांत सुख-श्राव्य नहीं हो
सकता, हो तो भी वह पूरा वृत्तांत सुनाने का मुझमें उत्साह नहीं है। एक अल्फाज
में, दु:ख, कष्ट, विपद्, अवमानना बहुत भुगतनी पङी तो भी जीवन असह्म नहीं होता।
आतिशबाजी के समान जितनी जली उतनी ही उद्दाम गति हासिल की। जितने समय वेग से चली
उतने वक्त जल नही थी ऐसा बोध
नहीं हुआ, आज सहसा उस परम पीङा, उस चरम सुख की ज्योतिशिखा बुझने पर इस पथ की धूल
के ऊपर जङ पदार्थ की गिर पङी हूँ- आज मेरी यात्रा खत्म हो गई है, यहीं मेरी कहानी
भी खत्म हो गई है।”
यह कहकर नवाबपुत्री
रूक गई। मैंने मन-ही-मन गर्दन हिलाई, यहाँ तो किसी भी तरह खत्म नहीं हो सकती। कुछ
देर चुप रहकर टूटी-फूटी हिन्दी में बोला, “बे-अदबी
माफ कीजिएगा, आखिरी बात को थोङा और खुलासा कहें तो नौकर के मन की व्याकुलता
बहुत-कुछ कम हो जाएगी।”
नवाबजादी हँसी। मैं
समझा मेरी टूटी-फूटी हिन्दी का असर हुआ है। अगर मैं ठेठ हिन्दी में बात कर पाता
तो मेरे प्रति उसका संकोच न मिटता, लेकिन मैं उनकी मातृभाषा बहुत ही कम जानता था।
वही हम दोनों के मध्य बङा व्यवधान था। वही एक पर्दा था।
उन्होंने फिर शुरू
किया, “केशरलाल का समाचार
मैं प्राय: पाती, किंतु किसी भी तरह उनसे मिलना न हो सका। तांत्या टोपे के दल में
मिलकर उस विप्लाच्छन्न आसमान में वे कभी पूर्व में, कभी पश्चिम में, कभी ईशान
कोण में, कभी नैर्ॠत्य में वज्रपात के समान क्षण में टूटते, क्षण में लुप्त हो
जाते थे।
मैं उन दिनों योगिनी
बनकर काशी के शिवानंद स्वामी को पिता के बराबर मानकर उनके समीप संस्कृत-शास्त्र
का अध्ययन कर रही थी। भारतवर्ष का पूरा समाचार उनके चरणों मे आता रहता, मैं
भक्तिपूर्वक शास्त्राभ्यास करती और हार्दिक बेचैनी के साथ युद्ध के समाचारों का
संग्रह करती।
धीरे-धीरे ब्रिटिश
राज्य ने हिन्दुस्तान की विद्रोह-बह्रि को पांवों से कुचलकर बुझा दिया। तभी
अचानक केशरलाल की खबर मिलना बंद हो गयीं। प्रचंड प्रलयालोक की रक्त-रश्मियों में
भारतवर्ष से सुदूर प्रांतों की जो सारी वीर-मूर्तियाँ पल-पल में दिखाई दे रही थीं,
वे सहसा अंधेरे में विलीन हो गई।
मैं अब और नहीं रह
सकी। आश्रय छोङकर भैरवी-वेश धारण करके फिर बाहर निकल पङी। उनके मार्गो, तीर्थो,
मठ-मंदिरों की यात्रा की, केशरलाल का कहीं कोई पता नही मिला। दो-एक व्यक्तियों
ने, जो उनका नाम जानते थे, कहा, “वह
कदाचित् युद्ध अथवा राजदंड द्वारा मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं।” लेकिन मेरी अन्तर्रात्मा
ने कहा, “कभी नहीं, केशरलाल
की मृत्यु नहीं हो सकती। वह ब्राह्मण, वह दु:सह अग्नि-ज्योति कदापि नहीं बुझ
सकती। मेरी आत्मानुभूति ग्रहण करने के लिए वह अभी भी उसकी दुर्गम-निर्जन
यज्ञ-वेदी पर ऊर्ध्वशिखा के रूप में जल रही थी।
इस प्रकार लिखा है
कि ज्ञान के द्वारा, तपस्या के द्वारा शूद्र ब्राह्मण हो गए हैं, मुसलमान
ब्राह्मण बन सकता है अथवा नहीं, इस बात का कोई विवरण नहीं मिलता। इसका एकमात्र
कारण है, उस समय मुसलमान थे ही नहीं। मैं जानती थी कि केशरलाल के साथ मेरे मिलने
में काफी विलंब है, क्योंकि पहले मुझे ही ब्राह्मण होना पङेगा। एक-एक करे तीस साल
बीत गए। मैं ह्रदय से, बाहर से, आचार से, बर्ताव से, तन-मन वचन से ब्राह्मण हो गई
थी, मेरी उस ब्राह्मण पितामही का रक्त निष्कलुष तेज से मेरे सर्वाग में प्रभावित
होने लग गया था, मैंने मन-ही-मन अपने उस यौवनारम्भ के प्रथम ब्राह्मण, अपनी
यौवन-समाप्ति के ब्राह्मण, त्रिभुवन के अपने एकमात्र ब्राह्मण के पैरों में
निसंकोच भाव से अपने को सम्पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित करके एक अपूर्व दाप्ति हासिल
कर ली थी।
युद्ध-विप्लव के
प्रसंग में केशरलाल के वीरत्व की अनेक वार्तालाप मैंने सुनीं, लेकिन वे मेरे
ह्रदय पर अंकित नहीं हुई। बस एक ही चित्र जो मैंने देखा था, जिसमें नि:शब्द ज्योत्सनापूर्ण
आधी रात में निस्तब्ध यमुना की बीच धार में एक छोटी-सी नाव पर होकर एकाकी
केशरलाल बहा जा रहा था, बस, वह मेरे दिल में अंकित रह गया। मैं बस अहरह देखा करती,
ब्राह्मण निर्जन स्त्रोत में पङकर रात-दिन किसी अनिर्दिष्ट रहस्य की ओर दौङ रहा
है, उसका कोई संगी नहीं, कोई सेवक नहीं, उसे किसी की जरूरत नहीं, वह निर्मल आत्म–निमग्न
पुरूष अपने-आप में सम्पूर्ण है, आसमान के ग्रह-चंद्र-तारे उसका चुपचाप निरीक्षण
करते है।
इसी बीच खबर मिली कि
केशरलाल ने राजदंड से भागकर नेपाल में आश्रय लिया है। मैं नेपाल गई। वहाँ बहुत वक्त
तक रहने के पश्चात् समाचार मिला कि बहुत समय हुआ केशरलाल नेपाल छोङकर न जाने कहाँ
चला गया?
उसके पश्चात् से
मैं पहाङों-पहाङ भ्रमण कर रही हूँ। यह हिन्दुओं का देश नहीं हैं-यहाँ भोटिया,
लेप्चा, म्लेच्छ हैं, इनके आहार-व्यवहार में आचार-विचार बिल्कुल नहीं है,
इनके देवता, इनकी पूजा-अर्चना विधि सभी अलग हैं, काफी दिनों की साधना के फलस्वरूप
मैंने जो विशुद्ध शुचिता अर्जित की थी, मुझे डर हुआ कि कहीं उसमें कलंक न लग जाए।
मैं बङे यत्न से हर तरह के मलिन संस्पर्श से अपनी रक्षा करती चलने लगी। मैं
जानती थी की मेरा नाव किनारे आ गयी थी, अपने जीवन के चमरतीर्थ के निकट।
उसके पश्चात् और क्या
कहूँ, बाकी बात तो बहुत थोङी हैं। दीया जब बुझता है तब एक लपक में ही बुझ जाता है,
उस बात की सिर्फ बढाकर कैसी व्याख्या करूँ!
अङतीस साल के बाद
दार्जिलिंग में आकर आज प्रात:काल केशरलाल को देखा। यहाँ वक्ता को खामोश होते-देख
मैंने उत्सुकतापूर्वक प्रश्न किया, “क्या
देखा?”
नवाबजादी कहने लगी, “देखा, वृद्ध केशरलाल
भोटिया मुहलले में भोटिया स्त्री तथा उसके उत्पन्न पौत्र-पौत्री लेकर मैले वस्त्र
पहने आंगन में भुट्टों से दाने निकाल रहा है।”
कहानी खत्म हो
गर्इ, मैंने सोचा सांत्वना के कुछ शब्द कहना जरूरी था। कहा, “अङतीस वर्ष तक
लगातार जिसको प्राणों के भय से रात-दिन विजातियों के साथ रहना पङा हो वह अपने आचार
की सुरक्षा कैसे कर सकता है।”
नवाबजादी बोली, “मैं क्या यह नहीं
समझती! मगर इतने दिन में न जाने केसा मोह लिए डोल रही थी! जिस ब्राह्मणत्व ने किशोर
मन को हर लिया था, मैं क्या जानती थी कि वह सिर्फ अभ्यास या संस्कार था। मैं
समझती थी वह धर्म था, अनादि अनंत था। मगर ऐसा न होता तो सोलह साल की अवस्था में
पहलीबार पितृ-गृह से निकलकर उस ज्योत्सनापूर्ण आधी रात में अपने विकसित, पुष्पित
भक्तिवेगकंपित देह-मन प्राणों के समर्पण के बदले ब्राह्मण के दाहिने हाथ से जो
दु:साहस अपमान हासिल हुआ उसे गुरू के हाथों मिली दीक्षा के समान खामोश माथा झुकाकर
द्विगुणित भक्ति-भाव से शिरोधार्य क्यों करती। हाय ब्राह्मण! तुमने तो अपने अभ्यास
के बजाय एक और अभ्यास ग्रहण कर लिया है, मैं अपने उस यौवन, उस जीवन के बदले दूसरे
जीवन, यौवन अब कहाँ प्राप्त करूँगी?”
यह कहकर रमणी उठ खङी
हुई, बोली “प्रणाम बाबोजी!”
पल भर पश्चात्
संशोधन करके कहा, “सलाम
बाबू साहब!” इस मुसलमान अभिवादन
के जरिये उसने मानो जर्जर धराशायी भग्न ब्राह्मण से आखिरी विदाई ली। मेरे कुछ
कहने से पहले ही वह उस हिमाद्रि-शिखर की धूसर कुज्झटिका-राशि में बादल की भाँति
विलीन हो गई।
मैं पल-भर के लिए
आँख मूँदकर समस्त घटनावली को अपने मानस-पटल पर चित्रित देखने लगा। यमुना-तीर के
गवाक्ष के समीप मसनद लगे आसन पर सुखासीना षोडशी नवाब-बच्ची को देखा,
तीर्थ-मंदिरों में संध्या-आरती के वक्त तपस्विनी की भक्ति गदगद् एकाग्र मूर्ति
देखी, उसके पश्चात् इस दार्जिलिंग की कैलकटा रोड के किनारे कुहेलिकाच्छान्न भग्न-ह्रदया
भारकातर नैराश्यमूर्ति भी देखी, एक सकुकुमार रमणी शरीर में ब्राह्मण-मुसलमान रम्तों
की तरंगों के विपरीत संघर्ष से पैदा हुए विचित्र व्याकुल संगीत की ध्वनि सुंदर
उर्दू भाषा में विगलित होकर मेरे दिमाग में स्पंदित होने लगी।
आँखें खोलकर देखा, बादल अचानक फट गये थे तथा स्निग्ध
धूप से निर्मल आसमान झलमला रहा था। ठेलागाङी पर अंग्रेज रमणियाँ और घोङे की पीठ पर
अंग्रेज पुरूषगण वायु-सेवन के लिए निकल पङे थे, बीच-बीच में दो-एक बंगालियों के
गुलूबंद से लिपटे हुए मुखमंडल से मेरी तरफ विनोदपूर्ण कटाक्ष भी आ रहे थे। मैं
तेजी से उठ खङा हुआ। इस सूर्यालोकित खुले जगत् के नजारे में वह मेघाच्छन्न कहानी
अब सत्य नहीं लग रही थी। मेरा यकीन है कि मैंने पर्वत के कुहरे में अपनी सिगरेट
का धुंआ, बङी मात्रा में मिश्रित करे कल्पना-खंड की रचना की थी-वह मुसलमान
ब्राह्मणी, वह विप्रवीर, वह यमुना किनारे का किला शायद कुछ भी सच न था।
दुराशा
Reviewed by Kahaniduniya.com
on
सितंबर 27, 2019
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