पूरी हुई प्रोफैसर की अंतिम इच्छा
महामना मदनमोहन मालवीय द्वारा स्थापित सैंट्रल कॉलेज
बनारस में प्रो. रिचर्डसन
नामक एक अंग्रेज प्रधानाचार्य थे। बनारस आने से पूर्व वे अपने देश के ब्रिस्टिल
कॉलेज में रसायनशास्त्र के प्राध्यापक थे। रिचर्डसन अत्यंत सात्विक प्रकृति के
थे और कोई भी बुरी आदत उनके स्वभाव में नहीं थी। अध्यापकों से लेकर छात्रों तक
सभी नका हार्दिक सम्मान करते थे। उनका ज्ञान और आचरण दोनों ही उच्चकोटि के थे।
बनारस में रहते हए उन पर भारतीय चिंतन और दर्शन का गहरा प्रभाव पङा।
ज्रून 1912 में अपनी मृत्यु से पूर्व उन्होंने अंतिम
इच्छा व्यक्त की कि उनके पार्थिव शरीर का अग्नि संस्कार राजघाट पुल पर वैदिक
विधि से किया जाए, किंतु जब अग्नि संस्कार का समय आया तो कोइ्र ब्राह्राण अंग्रेज
होने के कारण इसके लिए तैयार नहीं हुआ। सभी चिंता में पङ गए कि क्या करें? तब उदभट
विद्वान डॉ. भगवानदास ने भगवान राम के
हाथों गिद्वराज जटायु के दाह संस्कार का उदाहरण देते हुए कहा कि जटायु का अग्नि
संस्कार उसके सभी कर्मो को जानने वाले भगवान राम ने स्वयं वेदमत्रों से किया था।
यह तो फिर भी मनुष्य हैं। इनका अग्नि संस्कार न करके हम अपनी कृतघ्नता का ही
परिचय देंगे। भगवानदास के तर्क के सम्मख ब्राहमण भी नतमस्तक हो गए और रिचर्डसन
के पार्थिव शरीर का वैदिक विधि से दाह संस्कार संपन्न किया।
कथा का गूढार्थ यह है कि व्यक्ति को कभी भी उसके धर्म
या जाति से नहीं आंका जाना चाहिए। मूल्यांकन का सही पैमाना उसके कर्म व आचरण होते
हैं। यदि सदमार्गगामी है तो उसका यथोचित सम्मान किया जाए।
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