संस्कृत के महाकवि माघ पर सरस्वती और
लक्ष्मी दोनों की एक समान कृपा थी।
शिशुपाल वध जैसी उत्कृष्ट रचना के रचयिता माघ धनी होने के साथ उदार मन भी थे। जो
उनके द्वार आता वह खाली नहीं जाता था। दान देते-देते माघ का सारा धन समाप्त हो
गया और वे अति निर्धन हो गए। एक दिन वे इसी स्थिति में अपने घर पर बैठे हुए अपने
एक काव्य का नवसर्ग लिख रहे थे, तभी एक निर्धन ब्राहमण उनके पास आया और
बोला-कविराज आपका नाम सुनकर मैं अवंतिका से चलकर आपके पास आया हूं। अत्यंत निर्धन
हूं और कन्या का विवाह भी करीब है। आप मेरी कुछ आर्थिक मदद कीजिए। माघ बोले-बंधु,
इस समय तो मैं स्वयं ही भूखा व साधनहीन हूं। तुम्हें कुछ देने की स्थिति में नहीं
हूं। ब्राहमण निराश होकर लौटने लगा तो माघ से रहा नहीं गया। उन्होंने उसे थोङा
रूकने को कहा और स्वयं भीतर सो रही पत्नी के पास पहुंचे। पत्नी के हाथ में
अंतिम चिह्र के रूप में सोने के कंगन बचे थे। माघ ने एक हाथ का कंगन निकाल लिया कि
तभी पत्नी ने जागकर पूछा कौन? माघ ने लज्जित होकर कहा-एक चोर। पत्नी बोली-पराई
वस्तु लेने वाला चोर होता है लेकिन आपने तो अपनी वस्तु ली है। ब्राहमण की दयनीय
दशा जानकर पत्नी ने दूसरा कंगन भी दे दिया। माघ ने दोनों कंगन ब्राहमण को दिए।
ब्राहमण असीम आशीर्वाद देता हुआ चला गया।
वस्तुत: उदारता से बढकर कोई गुण नहीं। वह मनुष्य
श्रेष्ठ है जो समय-समय पर दान देता रहता हैं। दान के लिए साधन से अधिक भावना महत्वपूर्ण
होती हैं। दानशील मनुष्य देवत्व को प्राप्त कर लेता है।
जब महाकवि माघ ने निर्धन को दिए कंगन
Reviewed by Kahaniduniya.com
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सितंबर 22, 2019
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