ईश्वरचंद्र विद्यासागर परोपकारी व्यक्ति
थे। दूसरों की सहायता करना वे अपना परम धर्म मानते थे। एक दिन उन्हें पता चला कि
गांव के परोपकारी, दयालु और संकट के समय असहायों की सहायता करने वाले जयराज की
मृत्यु हो गई है और उसकी पत्नी के पास दाह संस्कार तक के लिए पैसे नहीं है। विद्यासागर
व्यक्तिगत रूप से जयराज को नहीं जानते थे किंतु उन्हें उसकी पत्नी की मदद करने
की प्रबल इच्छा हुई। विद्यासागर ने उपाय सोचना शुरू किया। बहुत विचारने के बाद
उन्हें एक मार्ग सूझ गया। वे सीधे जयराज के घर पहुंचें। जयराज की मृत देह के पास
रोती-बिलखती उसकी पत्नी को सांत्वना देते हुए वे बोले-भाभी जयराज से मैंने कुछ
दिन पूर्व कर्ज लिया था। मैं उसमें से कुछ रूपए चुकाने आ रहा था कि मार्ग में यह
दुखद समाचार प्राप्त हुआ। कृपा करके ये रूपए रख लीजिए, शेष भी जल्दी चुका दूंगा।
जयराज की पत्नी ने सधन्यवाद रूपए ले लिए। जयराज का अंतिम संस्कार भलीभांति हो
गया। भविष्य में जयराज के परिवार को विद्यासागर रूपए भेजते रहें कुछ वर्षो बाद
जयराज की पत्नी को असलियत का पता चला तो वह अपने पुत्रों के साथ विद्यासागर के
पास आई और उनके पैरों में गिरकर रोते हुए कहने लगी-आपने हमारी सहायता के लिए झूठ
बोला, हम इस ॠण को कैसे चुका पाएंगे। तब विद्यासागर बोले-अच्छे काम के लिए झूठ
बोलने में कैसा पाप?
सार यह है कि सत्कर्म के लिए बोला गया
असत्य पाप की श्रेणी में नहीं बल्कि पुण्य में गिना जाता है। वस्तुत: जिस असत्य की पृष्ठभूमि में लोकहित हो,
वह प्रणम्य और प्रशंसनीय होता है।
महिला की मदद के लिए विद्यासागर ने बोला झूठ
Reviewed by Kahaniduniya.com
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सितंबर 22, 2019
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