पंचतन्त्र की कहानियॉ
1. शास्त्र अर्थात जान ही मानव के वास्तविक नेत्र होते हैं क्योंकि
ज्ञान के द्वारा ही हमारे समस्त संशयों एवं भ्रमों का छेदन किया जा सकता है’ सत्य
एवं तथ्य का परिचय भी ज्ञान के माध्यम से सम्भव हुआ करता हे तथा अपनी क्रियायों
के भावी परिणाम का अनुमान भी हम केवल अपने ज्ञान के द्वारा ही लगा सकते हैं,
2. यौवन का झूठ घमण्ड, धन-सम्पति का अहंकार, प्रभुत्व अर्थात़
सब को अपने आधीन रखने की महत्वाकांक्षा तथा अविवेकिता यानि कि सही और गलत के बीच
अंतर को न पहचानना-इन चारों में से एक का भी यदि हम शिकार बन गये तो जीवन व्यर्थ्
होने की पूरी-पूरी सम्भावना होती है, और फिर जहॉं ये चारों ही एक साथ हों तो फिर
तो कहना ही क्या,
राजा ने जैसे ही ये श्लोक सुने, तो उसे अपने नित्य कुमार्ग पर
चलने वाले और कभी भी शास्त्रों को न पढने वाले पुत्रों का ध्यान हो आया, अब तो
वह अत्यधिक विचलित हो कर सोचने लगा-
विद्वान कहते है कि इस संसार में उसी का जन्म लेना सफल होता है जो
अपने सुकर्मो के द्वारा अपने वंश को उन्नति के माग पर ले जाता है अन्यथा तो इस
परिवर्तनशील संसार में लोग बार-बार जन्म लेकर म़त्यु का शिकार बनते ही रहते हैं,
दूसरे सौ मूर्ख पुत्रों से एक गुणी पुत्र श्रेष्ठ होता है क्योंकि वह अपने कुल
का उद्वारक बनता है, ठीक वैसे ही कि जैसे एक अकेला चन्द्रमा रात्रि के अन्धकार
को दूर करता है जबकि यह काम आकाश में स्थ्ति अनगिनत तारे भी नहीं कर पाते,
अब राजा सुदर्शन केवल इसी चिंता में घुलने लगा कि कैस वह अपने
पुत्रों को गुणवान् बनाये क्योंकि –
वे माता-पिता जो अपने बच्चों को शिक्षा के सुअवसर उपलब्ध नहीं
करवाते, वे अपने ही बच्चों के शत्रु हुआ करते हैं क्योंकि बङे होने पर ऐसे बच्चों
को समाज में कोई भी प्रतिष्ठा नहीं मिलती जैसे हंसों की सभा में बगुलों को सम्मान
कहॉ, दूसरे, चाहे कोई व्यक्ति कितना भी रूपवान् क्यों न हो, उसका कुल कितना भी
उॅचा क्यों न हो यदि वह ज्ञानशून्य है तो समाज में आदर का पात्र नहीं बन सकता
जैसे कि बिना सुगंधी वाले टेसू के पुष्प देवालय की प्रतिमा का श्र्रंगार नहीं बन
सकते,
चिंतित एवं दुःखी मन होने के बावजूद भी राजा ने एक द़्रढ निश्चय
कर ही लिया कि अब भाग्य के सहारे बैठना ठीक न होगा, बस केवल पुरूषार्थ ही करना
होगा, उसने बिना समय गंवाए पंडितों की एक सभा बुलवाई और उस सभा में आये पंडितों को
अत्यंत सम्मानपूर्वक सम्बोधति करते हुए कहा- ‘’क्या आप में से कोई ऐसा
धैर्यशाली विद्वान है जो मेरे कुमार्गगामी एवं शास्त्र से विमुख पुत्रों को
नीतिशास्त्र के द्वारा सन्मार्ग पर ला कर, उनका जन्म सफल बना सके,’’
मित्रों, विद्वानों की उस सभा में से विष्णु शर्मा नाम का एक
महापंडित जो समस्त नीतिशास्त्र का तत्वज्ञ था, गुरू ब्रहस्पति की भांति उठ
ख्रङा हुआ और कहने लगा-‘’ राजन् आपके ये राजपुत्र आपके महान् कुल में जन्में हैं,
मैं मात्र छह महिनों में इन्हें नीतिशास्त्र पढाकर इनका जीवन बदल सकता हॅू, यह
सूनकर अत्यधिक प्रसन्न हुआ राजा बोला-‘’ एक कीङा भी जब पुष्पों के साथ सज्जनों
के मस्तक की शोभा बन सकता है और महान् व्यक्तियों के द्वारा प्रतिष्ठित एक पत्थर
भी ईश्वर की प्रतिमा का स्वरूप ले सकता है, तो नि-संदेह आप भी यह कठिन कार्य
अवश्य कर सकते हैं,’’

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