पाण्डवों का राज्य लौटाने का आग्रह और
दोनों पक्षो की कृष्ण से सहायता की माँग राजा सुशर्मा तथा कौरवों को रणभूमि से
भगा देने के बाद पाण्डवों ने स्वयं को सार्वजनिक रूप से प्रकट कर दिया। उनका
असली परिचय पाकर राजा विराट को अत्यन्त प्रसन्नता हुई और उन्होंने अपनी पुत्री
उत्तरा का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के साथ बङे ही धूमधाम के साथ कर दिया।
इस विवाह में श्री कृष्ण तथा बलराम के साथ ही अनेक बङे-बङे राजा-महाराजा भी
सम्मिलित हुये। अभिमन्यु के विवाह के पश्चात् पाण्डवों ने अपना राज्य वापस
लौटाने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण को अपना दूत बना कर हस्तिनापुर भेजा। धृतराष्ट्र
के राज सभा में यथोचित सत्कार और आसन पाने बाद श्रीकृष्ण बोले, “हे राजन् पाण्डवों ने यहाँ उपस्थित सभी
गुरूजनों को प्रणाम भेजते हुये कहलाया है कि हमने पूर्व किये करार के अनुसार बारह
वर्ष का वनवास तथा एक वर्ष का अज्ञातवास पूरा कर लिया है। अब आप हमें दिये वचन के
अनुसार हमारा आधा राज्य लौटा दीजिये।” श्री कृष्ण के वचनों को सुन कर वहाँ
उपस्थित भीष्म, विदुर, द्रोण और गुरूजनों तथा परशुराम, कर्ण आदि महर्षिगणों ने
धृतराष्ट्र को समझाया कि वे धर्म तथा न्याय के मार्ग में चलते हुये पाण्डवों को
उनका राज्य तत्काल लौटा दें। किन्तु उनकी इस समझाइश को सुनकर दुर्योधन ने अत्यन्त
क्रोधित होकर कहा, “ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते इस राज्य
पर मेरे पिता धृतराष्ट्र का अधिकार था किन्तु उनके अन्धत्व का लाभ उठा कर चाचा
पाण्डु ने राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया। मैं महाराज धृतराष्ट्र का ज्येष्ठ
पुत्र हूँ अत: इस राज्य पर मेरा और केवल मेरा अधिकार है। मैं पाण्डवों को राज्य
तो क्या, सुई की नोक के बराबर भी भूमि देने के लिये तैयार नहीं हूँ।
यदि उन्हें अपना राज्य वापस चाहिये तो वे हमसे
युद्ध करके उसे प्राप्त कर लें। उपस्थित समस्त जनों के बारम्बार समझाने के बाद
भी दुर्योधन अपनी बात पर अडिग रहा और श्री कृष्ण वापस पाण्डवों के पास चले आये
और दोनों पक्षों में युद्ध की तैयारी होने लगी। पाण्डवों को राज्य न देने के
अपने निश्चय पर दुर्योधन के अङ जाने के कारण दोनों पक्ष में मध्य युद्व निश्चित
हो गया तथा दोनों ही पक्ष अपने लिये सहायता जुटाने में लग गये। एक दिन दुर्योधन
श्री कृष्ण से भावी युद्ध के लिये सहायता प्राप्त करने हेतु द्वारिकापुरी जा
पहुँचा। जब वह पहुँचा उस समय श्री कृष्ण निद्रा मग्न थे अतएवं वह उनके सिरहाने
जा बैठा। इसके कुछ ही देर पश्चात् पाण्डुपुत्र अर्जुन भी इसी कार्य से उनके पास पहुँचे
और उन्हें सोया देखकर उनके पैताने बैठ गये। जब श्री कृष्ण की निद्रा टूटी तो
पहले उनकी दृष्टि अर्जुन पर पङी। अर्जुन ने कुशल क्षेम पूछने के भगवान कृष्ण ने
उनके आगमन का कारण पूछा। अर्जुन ने कहा, “भगवन् मैं भावी युद्ध के लिये
आपसे सहायता लेने आया हूँ,” अर्जुन के इतना कहते ही
सिराहने बैठा हुआ दुर्योधन बोल उठा, “हे कृष्ण मैं भी आपसे सहायता
के लिये आया हूँ। चूँकि मैं अर्जुन से पहले आया हूँ इसलिये सहायता माँगने का पहला
अधिकार मेरा है।” दुर्योधन के वचन सुनकर भगवान
कृष्ण ने घूमकर दुर्योधन को देखा और कहा, “हे दुर्योधन मेरी दृष्टि अर्जुन
पर पहले पङी है, और तुम कहते हो कि तुम पहले आये हो। अत: मुझे तुम दोनों की ही
सहायता करनी पङेगी। मैं तुम दोनों में से एक को अपनी पूरी सेना दे दूँगा और दूसरे
के साथ मैं स्वयं रहूँगा। किन्तु मैं न तो युद्ध करूँगा और न नही शस्त्र धारण
करूँगा। अब तुम लोग निश्चय कर लो कि किसे क्या चाहिये।” अर्जुन
ने श्री कृष्ण को अपने साथ रखने की इच्छा प्रकट की जिससे दुर्योधन प्रसन्न हो
गया क्योंकि वह तो श्री कृष्ण की विशाल सेना लेने के लिये ही आया था। इस प्रकार
श्री कृष्ण ने भावी युद्ध के लिये दुर्योधन को अपनी सेना दे दी और स्वयं पाण्डवों
के साथ हो गये। दुर्योधन के जाने के बाद श्री कृष्ण ने अर्जुन से पूछा, “हे नाथ
पार्थ मेरे युद्ध नहीं का निश्चय के बाद भी तुमने क्या सोचकर मुझे माँगा?” अर्जुन
ने उत्तर दिया, “भगवान मेरा विश्वास है कि जहाँ
आप हैं वही विजय है। और फिर मेरी इच्छा है कि आप मेरा सारथी बने।” अर्जुन की बात सुनकर भगवान श्री
कृष्ण ने उनका सारथी बनना स्वीकार कर लिया।
पाण्डवों का राज्य
Reviewed by Kahaniduniya.com
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नवंबर 13, 2019
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