कीचक वध


पाण्‍डवों को मत्‍स्‍य नरेश विराट की राजधानी में निवास करते हुये दस माह व्‍यतीत हो गये। सहसा एक दिन राजा विराट का साला कीचक अपनी बहन सुदेष्‍णा से भेंट करने आया। जब उसकी दृष्टि सैरन्‍ध्री (द्रौपदी) पर पङी तो वह काम-पीङित हो उठा तथा सैरन्‍ध्री से एकान्‍त में मिलने के अवसर की ताक में रहने लगा। द्रौपदी भी उसकी कामुक दृष्टि को भाँप गई। द्रौपदी ने महाराज विराट एवं महारानी सुदेष्‍णा से कहा भी कि कीचक मुझ पर कुदष्टि रखता है, मेरे पाँच गन्‍धर्व पति हैं, एक न एक दिन वे कीचक का वध कर देंगे। किन्‍तु उन दोनों ने द्रौपदी की बात की कोई परवाह न की। लाचार होकर एक दिन द्रौपदी ने भीमसेन को कीचक की कुदृष्टि तथा कुविचार के विषय में बता दिया। द्रौपदी के वचन सुनकर भीमसेन बोले, हे द्रौपदी तुम उस दुष्‍ट कीचक को अर्द्धरात्रि में नृत्‍यशाला मिलने का संदेश दे दो। नृत्‍यशाला में तुम्‍होर सथान पर मैं जाकर उसका वध कर दूँगा। सैरन्‍ध्री ने बल्‍लभ (भीमसेन) की योजना के अनुसार कीचक को रात्रि में नृत्‍यशाला में मिलने का संकेत दे दिया। द्रौपदी के इस संकेत से प्रसन्‍न कीचक तब रात्रि को नृत्‍यशाला में पहुँचा तो वहाँ पर भीमसेन द्रौपदी की एक साङी से अपना शरीर और मुँह ढँक कर वहाँ लेटे हुये थे। उन्‍हें सैरन्‍ध्री समझकर कमोत्तेजित कीचक बोला, हे प्रियतमे मेरा सर्वस्‍व तुम पर न्‍यौछावर है। अब तुम उठो और मेरे साथ्‍ज्ञ रमण करो। कीचक के वचन सुनते ही भीमसेन उछल कर उठ खङे हुये और बोले, रे पापी तू सैरन्‍ध्री नहीं अपनी मृत्‍यु के समक्ष खङा है। ले अब परस्‍त्री पर कुदृष्टि डालने का फल चख। इतना कहकर भीमसेन ने कीचक को लात और घूँसों से मारना आरम्‍भ कर दिया। जिस प्रकार प्रचण्‍ड आँधी वृक्षों को झकझोर डालती है उसी प्रकार भीमसेन कीचक को धक्‍के मार-मार कर सारी नृत्‍यशाला में घुमाने लगे। अनेक बार उसे घुमा-घुमा कर पृथ्‍वी पर पटकने के बाद अपनी भुजाओं से उसके गरदन को मरोङकर उसे पशु की मौत मार डाला। उसकी उस दुर्गति को देखकर  द्रौपदी को अत्‍यन्‍त सन्‍तोष प्राप्‍त हुआ। फिर बल्‍लभ और सैरन्‍ध्री चुपचाप अपने-अपने स्‍थानों में जाकर सौ गये। प्रातकाल जब कीचक के वध का समाचार सबको मिला तो महारानी सुदेष्‍णा, राजा विराज, कीचक के अन्‍य भाई आदि विलाप करने लगे।



जब कीचक के शव को अन्‍त्‍येष्टि के लिये ले जाया जाने लगा तो द्रौपदी ने राजा विराट से कहा, इसे मुझ पर कुदष्टि रखने का फल मिल गया, अवश्‍य ही मेरे गन्‍धर्व पतियों ने इसकी यह दुर्दशा की है। द्रौपदी के वचन सुनकर कीचक के भाइयों ने क्रोधित होकर कहा, हमारे अत्‍यन्‍त बलवान भाई की मृत्‍यु इसी सैरन्‍ध्री के कारण हुई है अत इसे भी कीचक की चिता के साथ जला देना चाहिये। इतना कहकर उन्‍होंने द्रौपदी केा जबरदस्‍ती कीचक की अर्थी के साथ बाँध के और श्‍मशान की ओर ले जाने लगे। कंक, बल्‍लभ, वृहन्‍नला, तन्तिपाल ग्रान्थिक के रूप में वहाँ उपस्थित पाण्‍डवों से द्रौपदी की यह दुर्दशा देखी नहीं जा रही थी किन्‍तु अज्ञातवास के कारण वे स्‍वयं को प्रकट भी नही ंकर सकते थे। इसयिे भीमसेन चुपके से परकोटे को लाँघकर श्‍मशान की और दौङ पङे और रास्‍ते में कीचङ तथा मिट्टी का सारे अंगों पर लेप कर लिया। फिर एक विशाल वृक्ष को उखाङकर कीचक के भाइयों पर टूट पङे। उनमे ंसे कितनों को ही भीमसेन ने मार डाला, जो शेष बचे वे अपना प्राण बचाकर भाग निकले। इसके बाद भीमसेन ने द्रौपदी को सान्‍त्‍वना देकर महल में भेज दिया और स्‍वयं नहा-धोकर दूसरे रास्‍ते से अपने स्‍थान में लौट आये। कीचक तथा उसके भाइयों का वध होते देखकर महाराज विराट सहित सभी लोग द्रौपदी से भ्‍यभीत रहने लगे। कीचक के वध की सूचना आँधी की तरह फैल गई। वास्‍तव में कीचक बङा पराक्रमी था और उससे त्रिगर्त के राजा सुशर्मा तथा हस्तिनापुर के कौरव आदि डरते थे।

महल में केवल राजकुमार उत्तर ही थे। प्रजा को रक्षा के लिये गुहार लगाते देख कर सौरन्‍ध्री (द्रौपदी) से रहा न गया और उन्‍होंने राजकुमार उत्तर को कौरवों से युद्ध करने के लिये न जाते हुये देखकर खूब फटकारा। सैरन्‍ध्री की फटकार सुनकर राजकुमार उत्तर ने शेखी बघारते हुये कहा, मैं युद्ध में जाकर कौरवों को अवश्‍य हरा देता किन्‍तु असमर्थ हूँ, क्‍योंकि मेरे पास कोई सारथी नहीं है। उसकी बात सुनकर सैरन्‍ध्री ने कहा, राजकुमार वृहन्‍नला बहुत निपुण सारथी है और वह कुन्‍तीपुत्र अर्जुन का सारथी रह चुकी है। तुम उसे अपना सारथी बना कर युद्ध के लिये जाओं। अन्‍तत राजुकुमार उत्तर वृहन्‍नला को सारथी बनाकर युद्ध के लिये निकला। उस दिन पाण्‍डवों के अज्ञातवास का समय समाप्‍त हो चुका था तथा उनके प्रकट होने के समय आ चुका था उर्वशी के शापवश मिली अर्जुन की नपुंसकता भी खत्‍म हो चुकी थी। अत मार्ग में अर्जुन ने उस श्‍मशान के पास, जहाँ पाण्‍डवों ने अपने अस्‍त्र-शस्‍त्र छुपाये थे। रथ रोका ओर चुपके से पहुँचा तो कौरवो की विशाल सेना और भीष्‍म, द्रोण, कर्ण, अश्‍वत्‍थामा, दुर्योधन आदि पराक्रमी योद्धाओं ने को देखकर राजकुमार उत्तर अत्‍यन्‍त घबरा गया और बोला, वृहन्‍नला तुम रथ वापस ले चलो। मैं इन योद्धाओं से मुकाबला नहीं कर सकता। बृहन्‍नला ने कहा, हे राजकुमार किसी भी क्षत्रियपुत्र के लिये युद्ध में पीठ दिखाने से तो अच्‍छा है कि वह युद्ध में वीरगति प्राप्‍त कर ले। उठाओं और अपने अस्‍त्र-शस्‍त्र और करो युद्ध। किन्‍तु राजकुमार उत्तर पर वृहन्‍नला के वचनों का कोई प्रभाव नहीं पङा। और वह रथ से कुदकर भागने लगा। इस पर अर्जुन (वृहन्‍नला) ने लपक कर उसे पकङ लिया और कहा, राजकुमार भयभीत होने की आवश्‍यकता नहीं है। मेरे होते हुये तुम्‍हारा कोई भी कुछ नहीं बिगाङ सकता। आज मैं तुम्‍हारे समक्ष स्‍वयं को प्रकट कर रहा हूँ, मैं पाण्‍डुपुत्र अर्जुन हूँ, और कंक युधिष्ठिर, बल्‍लभ, भीमसेन, तन्तिपाल नकुल तथा ग्रान्थिक सहदेव हैं। अब मैं इनसे युद्ध करूँगा, तुम अब इस रथ की बागडोर संभालो। यह वचन सुनकर राजकुमार उत्तर ने गग्‍दद् होकर अर्जुन के पैश्र पकङ लिया। के देवदत्त शंख की ध्‍वनि रणभूमि में गूँज उठी। उस विशिष्‍ट ध्‍वनि को सुनकर दुर्योधन भीष्‍म से बोला, पितामह यह तो अर्जुन दे देवदत्त शंख्‍ की ध्‍वनि है, अभी तो पाण्‍डवों का अज्ञातवास समाप्‍त नहीं हुआ है। अर्जुन ने स्‍वयं को प्रगट कर दिया इसलिये अब पाण्‍डवों को पुन: बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास भोगना होगा।
दुर्योधन के वचन सुनकर भीष्‍म पितामह ने कहा, दुर्योधन कदाचित तुम्‍हं ज्ञात नहीं है कि पाण्‍डव काल गति जानने वाले हैं, बिना अवधि पूरी किये अर्जुन कभी सामने नहीं आ सकता। मैंने भी गणना कर लिया है कि पाण्‍डवों के अज्ञातवास की अवधि पूर्ण हो चुकी है। दुर्योधन एक दीर्घ निश्‍वास छोङते हुए बोला, अब जब अर्जुन का आना निश्चित हो चुका है तो पितामह हमें शीघ्र ही व्‍यूह रचना कर लेना चाहिये। इस पर भीष्‍म ने कहा, वत्‍स तुम एक तिहाई सेसना लेकर गौओं के साथ विदा हो जाओं। शेष सेना को साथ लेकर हम लोग यहाँ पर अर्जुन से युद्ध करेंगे। भीष्‍म पितामह के परामर्श के अनुसार दुर्योधन गौओं को लेकर एक तिहाई सेना के साथ हस्तिनापुर की ओर ल पङा। यह देखकर कि दुर्योधन रणभूमि से लौटकर जा रहा है अर्जुन ने अपना रथ दुर्योधन के पिछे दौङा दिया और भागते हुये दुर्योधन को मार्ग में ही घेरकर अपने असंख्‍य बाणों से उसे व्‍याकुल कर दिया। अर्जुन के बाणों से दुर्योधन के सैनिकों के पैर उखङ गये और वे पीठ दिखाकर भाग गये। सारी गौँएँ भी सम्‍भाती हुईं विराट नगर की और भाग निकली। दुर्योधन को अर्जु के बाणों से घिरा देखकर कर्ण, द्रोण, भीष्‍म आदि सभी वीर उसकी रक्षा के लिये दौङ पङे। कर्ण को सामने देखकर अर्जुन के क्रोध का पारावार न रहा। उन्‍होंने कर्ण पर इतने बाण बरसाये कि उसके रथ, घोङे सारथी सभी नष्‍ट हो गये। और कर्ण मैदान छोङ कर भाग गया। कर्ण के चले जाने पर भीष्‍म और द्रोण एक साथ अर्जुन पर बाण छोङने लगे किन्‍तु अर्जुन अपने बाणों से बीच में ही उनके बाणों के टुकङे-टुकङे कर देते थे। अन्‍तत: अर्जुन के बाणों से व्‍याकुल होकर सारे कौरव मैदान छोङकर भाग गये। कौरवों के इस प्रकार भाग जाने पर अर्जुन भी विजयशंख बजाते हुये विराट नगर लौट आये। 
कीचक वध कीचक वध Reviewed by Kahaniduniya.com on नवंबर 12, 2019 Rating: 5

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