द्रौपदी स्‍वयंवर


स्‍वयंवर सभा में अनेक देशों के राजा-महाराजा एवं राजकुमार पधारे हुये थे। एक ओर श्री कृष्‍ण अपने बङे भाई बलराम तथा गणमान्‍य यदुवंशियों के साथ विराजमान थे। वहाँ वे ब्राह्मणों की पंक्ति में जा कर बैठ गये। कुछ ही दरे मे राजकुमारी द्रौपदी हाथ में वरमाला लिये अपने भाई धृष्‍टद्युम्‍न ने सभा को सम्‍बोधित करते हुए कहा, हे विभिन्‍न देश से पधारे राजा-महाराजाओं एवं अन्‍य गणमान्‍य जनों इस मण्‍डप में बने स्‍तम्‍भ के ऊपर बने हुये उस घ्‍ज्ञूमते हुये यंत्र पर ध्‍यान दीजिये। उस यन्‍त्र में एक मछली लटकी हुई है तथा यंत्र के साथ घूम रही है। आपको स्‍तम्‍भ के नीचे रखे हुये तैलपात्र में मछली के प्रतिबिम्‍ब को देखते हुए बाण चला कर मछली के आँख को निशाना बनाना है। मछली की आँख में सफल निशाना लगाने वाले से मेरी बहन द्रौपदी का विवाह होगा। एक के बाद एक सभी राजा-महाराजा एवं राजकुमारों ने मछली पर निशाना साधने का प्रयास किया किन्‍तु सफ्‍लता हाथ न लगी और वे कान्तिहीन होकर अपने स्‍थान में लौट आये। इन असफल लोगों में जरासंघ, शल्‍य, शिशुपाल तथा दुर्योधन, दुशासन आदि कौरव भी सम्मिलित थे। कौरवों के असफल होने पर दुर्योधन के परम मित्र कर्ण ने मछली को निशाना बनाने के लिये धनुष उठाया किन्‍तु उन्‍हें देख कर द्रौपदी बोल उठीं, यह सूतपुत्र है इसलिये मैं इसका वरण नहीं कर सकती। द्रौपदी के वचनों को सुन कर कर्ण ने लज्जित होकर धनुष बाण रख दिया। उसके पश्‍चात् ब्राह्मणों की पंक्ति से उठ कर अर्जुन ने निशाना लगाने के लिए धनुष उठा लिया। एक ब्राह्मण को राजकुमारी के स्‍वयंवर के लिये उद्यत देख वहाँ उपस्थित जनों को अत्‍यन्‍त आश्‍चर्य हुआ किन्‍तु ब्राह्मणों के क्षत्रिय से अधिक श्रेष्‍ठ होने के कारण से उन्‍हें कोई रोक न सका। अर्जुन ने तैलपात्र में मछली के प्रतिबिम्‍ब को देखते हुये एक ही बाण से मछली की आँख को भेद दिया। द्रौपदी ने आगे बढकर अर्जुन के गले में वरमाला डाल दिया। एक ब्राह्मण के गले में द्रौपदी को वरमाला डालते देख समस्‍त क्षत्रिय राजा-महाराजा एवं राजकुमारों ने क्रोधित हो कर अर्जुन पर आक्रमण कर दिया। अर्जुन की सहायता के लिये शेष पाण्‍डव भी आ गये और पाण्‍डवों तथा क्षत्रिय राजाओं में घमासान युद्ध होने लगा। श्री कृष्‍ण ने अर्जुन को पहले ही पहचान लिया था, इसलिये उन्‍होंने बीच बचाव करके युद्ध को शान्‍त करा दिया। दुर्योधन ने भी अनुमान लगा लिया कि निशाना लगाने वाला अर्जुन ही रहा होगा और उसका साथ देने वाले पाण्‍डव रहे होंगे।



वारणावत के लाक्षागृह से पाण्‍डवों के बच निकलने पर उसे अत्‍यन्‍त आश्‍चर्य होने लगा। पाण्‍व द्रौपदी को साथ लेकर वहाँ पहुँचे जहाँ व़े अपनी माता कुन्‍ती के साथ निवास कर रहे थे। द्वार से ही अर्जुन ने पुकार कर अपनी माता से कहा माते आज हम लोग आपके लिये एक अद्धुत भिक्षा ले कर आये हैं। उस पर कुन्‍ती ने भीतर से ही कहा, पुत्रों तुम लोग आपस में मिल-बाँट उसका उपभोग कर लो। बाद में यह ज्ञात होने पर कि भिक्षा वधू के रूप में हैं, कुन्‍ती को अत्‍यन्‍त पश्‍चाताप हुआ किन्‍तु माता के वचनों को सत्‍य्‍ सिद्ध करने के लिये कुन्‍ती ने पाँचों पाण्‍डवों को पति के रूप में स्‍वीकार कर लिया। पाण्‍डवों के द्रौपदी को साथ लेकर अपने निवास पर पहुँचने के कुछ काल पश्‍चात् उनके पीछे-पीछे कृष्‍ण भी वहाँ पर आ पहुँचे। कृष्‍ण ने अपनी बुआ कुन्‍ती के चरणस्‍पर्श कर के आशीर्वाद प्राप्‍त किया और सभी पाण्‍डवों से गले मिले। औपचारिकताएँ पूर्ण होने के पश्‍चात् युधिष्ठिर ने कृष्‍ण से पूछा, हे द्वारिकाधीश आपने हमारे इस अज्ञातवास में हमें पहचान कैसे लिया? कृष्‍ण ने उत्तर दिया, भीम और अर्जुन के पराक्रम को देखने के पश्‍चात् भला मैं आप लोगों को कैसे न पहचानता। सभी से भेंट मुलाकात करके कृष्‍ण वहाँ से अपनी नगरी द्वारिकाधीश चले गये। फिर पाँचों भाइयों ने भिक्षावृति से भोजन सामग्री एकत्रित किया और उसे लाकर माता कुन्‍ती के सामने रख दिया। कुन्‍ती ने द्रौपदी से कहा, देवी इस भिक्षा से पहले देवताओं के अंश निकालो। फिर ब्राह्मणों को भिक्षा दो। तत्‍पश्‍चात् आश्रितों का अंश अलग करो। उसके बाद जो शेष बचे उसका आधा भाग भीम को और शेष आधा भाग हम सभी को भोजन के लिये परोसो। पतिव्रता द्रौपदी ने कुन्‍ती के आदेश का पालन किया। भोजन के पश्‍चात् कुशासन पर मृगचर्म बिछा कर वे सो गये। द्रौपदी माता के पैरों की ओर सोई। द्रौपदी के स्‍वंयवर के समय दुर्योधन के साथ ही साथ द्रुपद, धृष्‍तद्युम्‍न एवं अनेक अन्‍य लोगों को संदेह हो गया था कि वे ब्राह्मण पाण्‍डव ही हैं। उनकी परीक्षा करने के लिये द्रुपद ने धृष्‍टद्युम्‍न को भेज कर उन्‍हें अपने राजप्रासाद में बुलवा लिया। राजप्रासाद में द्रुपद एवं धृष्‍टद्युम्‍न ने पहले राजकोष को दिखाया किन्‍तु पाण्‍डवों ने वहाँ रखे रत्‍नाभूषणों तथा रत्‍न-माणिक्‍य आदि में किसी प्रकार की रूचि नही ंदिखाई। किन्‍तु जब वे शस्‍त्रागार में गये तो वहाँ रखे अस्‍त्र-शस्‍त्रों उन सभी ने बहुत अधिक रूचि प्रदर्शित किया और अपनी पसंद के शस्‍त्रों को अपने पास रख लिया। उनके क्रिया-कलाप से द्रुपद को विश्‍वास हो गया कि ये ब्राह्मण के रूप में योद्धा ही हैं।

द्रुपद ने युधिष्ठिर से पूछा, हे आर्य आपके पराक्रम को देख कर मुझे विश्‍वास हो गया है‍ कि आप लोग ब्राह्मण नहीं है। कृपा करके आप अपना सही परिचय दीजिये। उनके वचनों को सुन कर युधिष्ठिर ने कहा, राजन् आपका कथन अक्षर सत्‍य्‍ हे। हम पाण्‍डु-पुत्र पाण्‍डव हैं। मैं युधिष्ठिर हूँ और ये मेरे भाई भीमसेन, अर्जुन, नकुल एवं सहदेव हैं। हमारी माता कुन्‍ती आपकी पुत्री द्रौपदी के साथ आपक ेमहल में हैं। युधिष्ठिर की बात सुन कर द्रुपद अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न हुये और बोले, आज भगवान ने मेरी सुन ली। मैं चाहता था कि मेरी पुत्री का विवाह पाण्‍डु के पराक्रमी पुत्र अर्जुन के साथ ही हो। मैं आज ही अर्जुन और द्रौपदी के विधिवत विवाह का प्रबन्‍ध करात हूँ। इस पर युधिष्ठिर ने कहा राजन् द्रौपदी का विवाह तो हम पाँचों भाईयों के साथ होना है। यह सुन कर द्रुपद आश्‍चर्यचकित हो गये और बोले, यह कैसे सम्‍भव है? एक पुरूष की अनेक पत्नियाँ अवश्‍य हो सकती हैं, किन्‍तु एक स्‍त्री के पाँच पति हों ऐसा तो न कभी देखा गया है और न सुना ही गया है। युधिष्ठिर ने कहा, राजन् न तो मैं कभी मिथ्‍या भाष्‍ण करता हूँ और न ही कोई कार्य धर्म या शास्‍त्र के विरूद्ध करता हूँ। हमारी माता ने हम सभी भाइयों को द्रौपदी का उपभोग करने का आदेश दिया है और मैं माता की आज्ञा की अवहेलना कदापि नहीं कर सकता। इसी समय वहाँ पर वेदव्‍यास जी पधारे और उन्‍होंने द्रुपद को द्रौपदी के पूर्व जन्‍म में तपस्‍या से प्रसन्‍न हो कर शंकर भगवान के द्वारा पाँच पराक्रमी पति प्राप्‍त करने के वर देने की बात बताई। वेदव्‍यास जी के वचनों को सुन कर द्रुपद का सन्‍देह समाप्‍त हो गया और उन्‍होंने अपनी पुत्री द्रौपदी का पाणिग्रहण संस्‍कार पाँचों पाण्‍डवों के साथ बङे धुमधाम के साथ कर दियां। इस विवाह में विशेष बात यह हुई कि देवर्षि नारद ने स्‍वयं पधार कर द्रौपदी को प्रतिदिन कन्‍यारूप हो जाने का आशीर्वाद दिया। पाण्‍डवों के जीवित होने तथा द्रौपदी के साथ विवाह होने की बात तेजी से सभी और फैल गई। हस्तिनापुर में इस समाचार के मिलने पर दुर्योधन और उसके सहयोगियों के दु:ख का पारावार न रहा। वे पाण्‍डवों को उनका राज्‍य लौटाना नहीं चाहते थे किन्‍तु, भीष्‍म, विदुर, द्रोण आदि के द्वारा धृतराष्‍ट्र को समझाने तथा दवाब डालने के कारण उन्‍हें पाण्‍डवों को राज्‍य का आधा हिस्‍सा देने के लिये विवश होना पङ गया। विदुर पाण्‍डवों को बुला लाये, धृतराष्‍ट्र द्रोणचार्य, कृपाचार्य, विकर्ण, चित्रसेन आदि सभी ने उकनी आगवानी की और राज्‍य का खाण्‍डव वन नामक हिस्‍सा उन्‍हें दे दिया गया। पाण्‍डवों ने उस खाण्‍डव वन में एक नगरी की स्‍थापना करके उसका नाम इन्‍द्रप्रस्‍थ रखा तथा इन्‍द्रप्रस्‍थ को राजधानी बना कर राज्‍य करने लगे। युधिष्ठिर की लोकप्रियता के कारण कौरवों के राज्‍य के अधिकांश प्रजाजन पाण्‍डवों के राज्‍य में आकर बस गये। 
द्रौपदी स्‍वयंवर द्रौपदी स्‍वयंवर Reviewed by Kahaniduniya.com on नवंबर 07, 2019 Rating: 5

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