बीसवीं पुतली ज्ञानवती की कहानी भाग – 21


बीसवीं पुतली ज्ञानवती ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है-

राजा विक्रमादित्‍य सच्‍चे ज्ञान के बहुत बङे परखी थे तथा ज्ञानियों की बहुत कद्र करते थे। उन्‍होंने अपने दरबार में चुन-चुन कर विद्वानों, पंडितों, लेखकों और कलाकारों केा जगह दे रखी थी तथा उनके अनुभव  और ज्ञान का भरपूर सम्‍मान करते थे।

एक दिन वे वन में किसी कारण विचरण कर रहे थे तो उनके कानों में दो आदमियों की बातचीत का कुछ अंश पङा।

उनकी समझ में आ गया कि उनमें से एक ज्‍योतिषी है तथा उन्‍होंने चंदन का टीका लगाया और अंतर्ध्‍यान हो गए। ज्‍योतिषी अपने दोस्‍त को बोला, ‘मैंने ज्‍योतिष का पूरा ज्ञान अर्जित कर लिया है और अब मैं तुम्‍हारे भूत, वर्तमान और भविष्‍य के बारमे में सब कुछ स्‍प्‍ष्‍ट बता सकता हूं।



दूसरा बोला, ‘इन बिखरी हुइर् हड्डियों को देख रहे हैं। मैं इन हड्डियों को देखते हुए बता सकता हूं। कि ये हड्डियां किस जानवर की हैं तथा जानवर के साथ क्‍या-क्‍या बीता?’ लेकिन उसके दोस्‍त ने फिर भी उसकी बातों में अपनी रूचि नहीं जताई। तभी ज्‍योतिषी की नजर जमीन पर पङे पदचिन्‍हों पर गई। उसने कहा, ‘ये पदचिन्‍ह किसी राजा के हैं और सत्‍यता की जांच तुम खुद कर सकते हो। ज्‍योतिष के अनुसार राजा के पांवों में ही प्राकृतिक रूप से कमल का चिन्‍ह होता है जो यहां स्‍पष्‍ट नजर आ रहा है। उसके दोस्‍त ने सोचा कि सत्‍यता की जांच कर ही ली जाए, अन्‍यथा यह ज्‍योतिषी बोलता ही रहेगा। पदचिन्‍हों का अनुसरण करते-करते वे जंगल में अन्‍दर आते गए।
जहां पदचिन्‍ह समाप्‍त होते थे वहां कुल्‍हाङी लिए एक लकङहारा खङा था तथा कुल्‍हाङी पर प्राकृतिक रूप से कमल के चिन्‍ह थे।

ज्‍योतिषी ने जब उससे उसका असली परिचय पूछा तो वह लकङहारा बोला कि उसका जन्‍म ही एक लकङहारे के घर हुआ है तथा वह कई पुश्‍तों से यही काम कर रहा है। ज्‍योतिषी सोच रहा था कि वह राजकुल का हे तथा किसी परिस्थितिवश लकङहारे का काम कर रहा है।

अब उसका विश्‍वास अपने ज्‍योतिष ज्ञान से उठने लगा। उसका दोस्‍त उसका उपहास करने लगा तो वह चिढकर बोला, ‘चलो चलकर राजा विक्रमादित्‍य के पांव देखते हैं। अगर उनके पांवों पर कमल चिन्‍ह नही ंहुआ तो मैं समूंचे ज्‍योतिष शास्‍त्र को झुठा समझूंगा और मान लूंगा कि मेरा ज्‍योतिष अध्‍ययन बेकार चला गया।’

वे लकङहारे को छोङ उज्‍जैन नगरी को चल पङे। काफी चलने के बाद राजमहल पहुंचे। राजमहल पहुंचकर उन्‍होंने विक्रमादित्‍य से मिलने की इच्‍छा जताई। जब विक्रम सामने आए तो उन्‍होंने उनसे अपना पैर दिखाने की प्रार्थना की।

विक्रम का पैर देखकर ज्‍योतिष सन्‍न रह गया। उनके पांव भी साधारण मनुष्‍यों के पांव जैसे थे। उन पर वैसी ही आङी-तिरछी रेखाएं थीं। कोई कमल चिन्‍ह नहीं था। ज्‍योतिषी को अपने ज्‍योतिष ज्ञान पर नहीं, बल्कि पूरे ज्‍योतिष शास्‍त्र पर संदेह होने लगा।
वह राजा से बोला, ‘ज्‍योतिष शास्‍त्र कहता है कि कमल चिन्‍ह जिसके पांवों में मौजूद हों वह व्‍यक्ति राजा होगा ही, मगर यह सरासर असत्‍य है।

जिसके पांवों पर मैंने ये चिन्‍ह देखे वह पुश्‍तैनी लकङहारा हैं। दूर-दूर तक उसका सम्‍बन्‍ध किसी राजघराने से नहीं है। पेट भरने के लिए जी-तोङ मेहनत करता है तथा हर सुख-सुविधाएं से वंचित है। दूसरी और आप जैसा चक्रवर्ती सम्राट है, जिसके भाग्‍य में भोग करने वाली हर चीज है। जिसकी कीर्ति दूर-दरू तक फैली हुई है। आपको राजाओं का राजा कहा जाता है। मगर आपके पांवों में ऐसा कोई चिन्‍ह मौजूद नहीं है।’

राजा को हंसी आ गई और उन्‍होंने पूछा, ‘क्‍या आपका विश्‍वास अपने ज्ञान तथा विद्या पर से उठ गया?’

ज्‍योतिष ने जवाब दिया, ‘बिलकुल। मुझे अब रत्तीभर भी विश्‍वास नहीं रहा।’ उसने राजा से नम्रतापर्वूक विदा लेते हुए अपने मित्र से चलने का इशारा किया। जब वह चलने को हुआ तो राजा ने उसे रूकने को कहा।

दोनों ठिठककर रूक गए। विक्रम ने एक चाकू मंगवाया तथा पैरों के तलवों को खुरचने लगे। खुरचने पर तलवों की चमङी उतर गई और अन्‍दर से कमल के चिन्‍ह स्‍पष्‍ट हो गए।

ज्‍योतिषको हतप्रभ देख विक्रम ने कहा, ‘हे ज्‍योतिषी महाराज, आपके ज्ञान मे कोई कमी नहीं है, लेकिन आपका ज्ञान तब तक अधूरा रहेगा, जब तक आप अपने ज्ञान की डींगे हांकेगे और जब-तब उसकी जांच करते रहेंगे।

मैंने आपकी बातें सुन लीं थीं और मैं ही जंगल में लकङहारे के वेश में आपसे मिला था। मैंने आपकी विद्वता की जांच के लिए अपने पांवों पर खाल चढा ली थी, ताकि कमल की आकृति ढंक जाए। आपने जब कमल की आकृति ढंक जाए। आपने जब कमल की आकृति नहीं देखी तो आपका विश्‍वास ही अपनी विद्या से उठ गया। यह अच्‍छी बात नहीं हैं।’
बीसवीं पुतली ज्ञानवती की कहानी भाग – 21 बीसवीं पुतली ज्ञानवती की कहानी भाग – 21 Reviewed by Kahaniduniya.com on नवंबर 03, 2019 Rating: 5

कोई टिप्पणी नहीं:

nicodemos के थीम चित्र. Blogger द्वारा संचालित.