स्‍वामी विवेकानंद



स्‍वामी विवेकानंद जन्‍मनाम नरेंद्र नाथ दत्त भारतीय हिंदु सन्‍यासी और 19वीं शताब्‍दी के संत रामकृष्‍ण के मुख्‍य शिष्‍य थे।
भारत का आध्‍यात्मिकतासे परिपूर्ण दर्शन विदेशो में स्‍वामी विवेकानंद की वक्‍तृता के कारण ही पहुँचा।

भारत में हिंदु धर्म को बढाने में उनकी मुख्‍य भूमिका रही और भारत को औपनिवेशक बनाने में उनका मुख्‍य सहयोग रहा।
विवेकानंद ने रामकृष्‍ण मठ और रामकृष्‍ण मिशन की स्‍थापना की, जो आज भी भारत में सफलता पूर्वक चल रहा है। उन्‍हें प्रमुख रूप से रउनके भाषणकी शुरूवात मेरे अमेरिकी भाइयो और बहनों के साथ करने के लिए जाना जाता है।

जो शिकागो विश्‍व धर्म सम्‍मेलन में उन्‍होंने हिंदु धर्म की पहचान कराते हुए कहाँ था। उनका जन्‍म कलकत्ता के बंगाली कायस्‍थ परिवार में हुआ था। स्‍वामीजी का ध्‍यान बचपन से ही आध्‍यात्मिकता की और था।

उनके गुरू रामकृष्‍ण का उनपर सबसे ज्‍यादा प्रभाव पङा, जिनसे उन्‍होंने जीवन जीने का सही उद्देश्‍य जाना, स्‍वयम की आत्‍मा को जाना और भगवान की सही परिभाषा को जानकर उनकी सेवा की और सतत अपने दिमाग को को भगवान के ध्‍यान में लगाये रखा।

रामकृष्‍ण की मृत्‍यु के पश्‍चात् विवेकानंद ने विस्‍तृत रूप से भारतीय उपमहाद्वीप की यात्रा की और ब्रिटिश कालीन भारत में लोगो की परिस्थितियों को जाना, उसे समझा।

बाद में उन्‍होंने यूनाइटेड स्‍टेट की यात्रा की जहाँ उन्‍होंने 1893 में विश्‍व धर्म सम्‍मेलन में भारतीयों के हिंदु धर्म का प्रतिनिधित्‍व किया। विवेकानंद ने यूरोप, इंग्‍लैंड और यूनाइटेड स्‍टेट में हिंदु शास्‍त्र की 100 से भी अधिक सामाजिक और वैयक्तिक क्‍लासेस ली और भाषण भी दिए।

भारत में विवेकानंद एक देशभक्‍त संत के नाम से जाने जाते है और उनका जन्‍मदिन राष्ट्रीय युवा दिन के रूप में मनाया जाता है।

स्‍वामी विवेकानंद

प्रारंभिक जीवन, जन्‍म और बचपन


स्‍वामी विवेकानंद का जन्‍म नरेन्‍द्रनाथ दत्ता (नरेंद्र, नरेन) के नाम से 12 जनवरी 1863 को मकर संक्रांति के समय उनके पैतृक घर कलकत्ता के गौरमोहन मुखर्जी स्‍ट्रीट में हुआ, जो ब्रिटिशकालीन भारत की राजधानी थी।

उनका परिवार एक पारंपरिक कायस्‍थ परिवार था, विवेकानंद के 9 भाई-बहिन थे। उनके पिता, विश्‍वनाथ दत्ता, कलकत्ता हाई कोर्ट के वकील थे।

दुर्गाचरण दत्ता जो नरेन्‍द्र के दादा थे, वे संस्‍कृत और पारसी के विद्वान थे जिन्‍होंने 25 साल की उम्र में अपना परिवार और घर छोङकर एक सन्‍यासी का जीवन स्‍वीकार कर लिया था। उनकी माता, भुवनेश्‍वरी देवी एक देवभक्‍त गृहिणी थी।

स्‍वामीजी के माता-पिता के अच्‍छे संस्‍कारो और अच्‍छी परवरिश के कारण स्‍वामीजी के जीवन को एक अच्‍छा आकार और एक उच्‍चकोटि की सोच मिली।

युवा दिनों से ही उनमे आध्‍यात्मिकता के क्षेत्र में रूचि थी, वे हमेशा भगवान की तस्‍वीरों जैसे शिव, राम और सीता के सामने ध्‍यान लगाकर साधना करते थे।

साधुओ और सन्‍यासियों की बाते उन्‍हें हमेशा प्रेरित करती रही। नरेंद्र बचपन से ही बहुत शरारती और कुशल बालक थे, उनके माता पिता को कई बार उन्‍हें सँभालने और समझाने में परेशानी होती थी। उनकी माता हमेशा कहती थी की, मैंने शिवजी से एक पुत्र की प्रार्थना की थी, और उन्‍होंने तो मुझे एक शैतान ही दे दिया।

स्‍वामी विवेकानंद शिक्षा


1871 में, 8 साल की आयु में स्‍वामी विवेकानंद को ईश्‍वर चन्‍द्र विद्यासागर मेट्रोपोलिटन इंस्टि्टयूट में डाला गया, 1877 में जब उनका परिवार रायपुर स्‍थापित हुआ तब तक नरेंद्र ने उस स्‍कूल से शिक्षा ग्रहण की।

1879 में, उनके परिवार के कलकत्ता वापिस आ जाने के बाद प्रेसीडेंसी कॉलेज की एंट्रेस परीक्षा में फर्स्‍ट डिवीजन लाने वाले वे पहले विद्यार्थी बने। वे विभिन्‍न विषयों जैसे दर्शन शास्‍त्र, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्‍य के उत्‍सुक पाठक थे।

हिंदु धर्मग्रंथो में भी उनकी बहुत रूचि थी जैसे वेद, उपनिषद, भगवत गीता, रामायण, महाभारत और पुराण।

नरेंद्र भारतीय पांरपरिक संगीत में निपुण थे, और हमेशा शारीरिक योग, खेल और सभी गतिविधियों में सहभागी होते थे। नरेंद्र ने पश्चिमी तर्क, पश्चिमी जीवन और यूरोपियन इतिहास की भी पढाई जनरल असेंबली इंस्टि्टयूट से कर रखी थी।

1881 में, उन्‍होंने ललित कला की परीक्षा पास की, और 1884 में कला स्‍नातक की डिग्री पूरी की।

नरेंद्र ने डेविड हयूम, इम्‍मानुअल कांट, जोहान गॉटलीब फिच, बारूच स्पिनोजा, जॉर्ज डब्‍लयू एफ.एफ. हेगेल, आर्थर शॉपनहेउर, अगस्‍टे कॉम्‍टे, जॉन स्‍टुअर्ट मिल और चार्ल्‍स डार्विन के कामो का भी अभ्‍यास कर रखा था।

वे हर्बर्ट स्‍पेन्‍सर के विकास सिद्धांत से मन्‍त्र मुग्‍ध हो गये थे और उन्‍ही के समान वे बनना चाहते थे, उन्‍होंने स्‍पेन्‍सर की शिक्षा किताब (1861) को बंगाली में भी परिभाषित किया।

जब वे पश्चिमी दर्शन शास्त्रियों का अभ्‍यास कर रहे थे तब उन्‍होंने संस्‍कृत ग्रंथो और बंगाली साहित्‍यों को भी पढा। विलियम हस्ति (जनरल असेंबली संस्‍था के अध्‍यक्ष) ने ये लिखा की, नरेंद्र सच में बहुत होशियार है, मैंने कई यात्राये की बहुत दूर तक गया लेकिन मैं और जर्मन विश्‍वविद्यालय के दर्शन शास्‍त्र के विद्यार्थी भी कभी नरेंद्र के दिमाग और कुशलता के आगे नहीं जा सके

कुछ लोग नरेंद्र को श्रुतिधरा (भयंकर स्‍मरण शक्ति वाला व्‍यक्ति) कहकर बुलाते थे।

रामकृष्‍ण के साथ

1881 में नरेंद्र पहली बार रामकृष्‍ण से मिले, जिन्‍होंने नरेंद्र के पिता की मृत्‍यु पश्‍चात मुख्‍य रूप से नरेंद्र पर आध्‍यात्मिक प्रकाश डाला।

जब विलियम हस्ति जनरल असेंबली संस्‍था में विलियम वर्ड्सवर्थ की कविता पर्यटन पर भाषण दे रहे थे, तब नरेंद्र ने अपने आप को रामकृष्‍ण से परिचित करवाया था। जब वे कविता के एक शब्‍द “Trance” का मतलब समझा रहे थे, तब उन्‍होंने अपने विद्यार्थियों से कहा की वे इसका मतलब जानने के लिए दक्षिणेश्‍वर में स्थित रामकृष्‍ण से मिले।

उनकी बस बात ने कई विद्यार्थियों को रामकृष्‍ण से मिलने प्रेरित किया, जिसमे नरेंद्र भी शामिल थे।

वे व्‍यक्तिगत रूप से नवम्‍बर 1881 में मिले, लेकिन नरेंद्र उसे अपनी रामकृष्‍ण के साथ पहली मुलाकात नहीं मानते, और ना ही कभी किसी ने उस मुलाकात को नरेंद्र और रामकृष्‍ण की पहली मुलाकात के रूप में देखा। उस समय नरेंद्र अपनी आने वाली F.A. (ललित कला) परीक्षा की तैयारी कर रहे थे।

जब रामकृष्‍ण को सुरेन्‍द्र नाथ मित्र के घर अपना भाषण देने जाना था, तब उन्‍होंने नरेंद्र को अपने साथ ही रखा।

परांजपे के अनुसार, उस मुलाकात में रामकृष्‍ण ने युवा नरेंद्र को कुछ गाने के लिए कहा था। और उनके गाने की कला से मोहित होकर उन्‍होंने नरेंद्र को अपने साथ दक्षिणेश्‍वर चलने को कहा।

1881 के अंत और 1882 में प्रारंभ में, नरेंद्र अपने दो मित्रों के साथ दक्षिणेश्‍वर गये और वह वहाँ रामकृष्‍ण से मिले। उनकी यह मुलाकात उनके जीवन का सबसे बङा टर्निग-पॉइंट बना।

उन्‍होंने जल्‍द ही रामकृष्‍ण को अपने गुरू के रूप में स्‍वीकार नही किया, और ना ही उनके विचारो के विरूद्ध कभी गये। वे तो बस उनके चरित्र से प्रभावित थे इसीलिए जल्‍दी से दक्षिणेश्‍वर चले गये। उन्‍होंने जल्‍द ही रामकृष्‍ण के परम आनंद और स्‍वप्र को कल्‍पनाशक्ति की मनगढत बातो और मतिभ्रम के रूप में देखा। ब्रह्म समाज के सदस्‍य के रूप में, वू मूर्ति पूजा, बहुदेववाद और रामकृष्‍ण की काली देवी के पूजा के विरूद्ध थे।

उन्‍होंने अद्वैत वेदांत के पूर्णतया समान समझना को ईश्‍वर निंदा और पागलपंती समझते हुए अस्‍वीकार किया और उनका उपहास भी उङाया। नरेंद्र ने रामकृष्‍ण की परीक्षा भी ली, जिन्‍होंने (रामकृष्‍ण) उस विवाद को धैर्यपूर्वक सहते हुए कहा, सभी दृष्टिकोणों से सत्‍य्‍ जानने का प्रयास करें

नरेन्‍द्र के पिता की 1884 में अचानक मृत्‍यु हो गयी और परिवार दिवालियाा बन गया था, साहूकार दिए हुए कर्जे को वापिस करने की मांग कर रहे थे, और उनके रिश्‍तेदारों ने भी उनके पूर्वजो के घर से उनके अधिकारों को हटा दिया था।

नरेंद्र अपने परिवार के लिए कुछ अच्‍छा करना चाहते थे, वे अपने महाविद्यालय के सबसे गरीब विद्यार्थी बन चुके थे। असफलता पूर्वक वे कोई काम ढूंढने में लग गये और भगवान के अस्तित्‍वका प्रश्‍न उनके सामने निर्मित हुआ, जहा रामकृष्‍ण के पास उन्‍हें तसल्‍ली मिली और उन्‍होंने दक्षिणेश्‍वर जाना बढा दिया।

एक दिन नरेंद्र ने रामकृष्‍ण से उनके परिवार के आर्थिक भलाई के लिए काली माता से प्रार्थना करने को कहा। और रामकृष्‍ण की सलाह से वे तिन बार मंदिर गये, लेकिन वे हर बार उन्‍हें जिसकी जरूरत है वो मांगने में असफल हुए और उन्‍होंने खुद को सच्‍चाई के मार्ग पर ले जाने और लोगों की भलाई करने की प्रार्थना की।

उस समय पहली बार नरेंद्र ने भगवान की अनुभूति की थी और उसी समय से नरेंद्र ने रामकृष्‍ण को अपना  गुरू मान लिया था।

1885 में, रामकृष्‍ण को गले का कैंसर हुआ, और इस वजह से उन्‍हें कलकत्ता जाना पङा और बाद में कोस्सिपोरे गार्डन जाना पङा।

नरेंद्र और उनके अन्‍य साथियों ने रामकृष्‍ण के अंतिम दिनों में उनकी सेवा की, और साथ ही नरेंद्र की आध्‍यात्मिक शिक्षा भी शुरू थी।

कोस्सिपोरे में नरेंद्र ने निर्विकल्‍प समाधी का अनुभव लिया। नरेंद्र और उनके अन्‍य शिष्‍यों ने रामकृष्‍ण से भगवा पोशाक लिया, तपस्‍वी के समान उनकी आज्ञा का पालन करते रहे।

रामकृष्‍ण ने अपने अंतिम दिनों में उन्‍हें सिखाया कि मनुष्‍य की सेवा करना ही भगवान की सबसे बङी पूजा है।
रामकृष्‍ण ने नरेंद्र को अपने मठवासियों का ध्‍यान रखने को कहा कि वे नरेंद्र को एक गुरू की तरह देखना चाहते है। और रामकृष्‍ण 16 अगस्‍त 1886 को कोस्सिपोरे में सुबह के समय भगवान को प्राप्‍त हुए।
मृत्‍यु

4 जुलाई 1902 (उनकी मृत्‍यु का दिन) को विवेकानंद सुबह जल्‍दी उठे, और बेलूर मठ के पूजा घर में पूजा करने गये और बाद में 3 घंटो तक योग भी किया।

उन्‍होंने छात्रों को शुक्‍ल-यजुर-वेद, संस्‍कृत और योग साधना के विषय में पढाया, बाद में अपने सहशिष्‍यों के साथ चर्चा की और रामकृष्‍ण मठ में वैदिक महाविद्यालय बनाने पर विचार विमर्श किये।

सांय 07:00 बजे को विवेकानंद अपने रूप में गये, और अपने शिष्‍य को शांति भंग करने के लिए मना किया, और रात्रि 09:00 बजे को योगा करते समय उनकी मृत्‍यु हो गयी।

उनके शिष्‍यों के अनुसार, उनकी मृत्‍यु का कारण उनके दिमाग में रक्‍तवाहिनी में दरार आने के कारण उन्‍हें महासमाधि प्राप्‍त होना है। उनके शिष्‍यों के अनुसार उनकी महासमाधि का कारण ब्रह्मरंधरा (योगा का एक प्रकार) था।

उन्‍होंने अपनी भविष्‍यवाणी को सही साबित किया की वे 40 साल से ज्‍यादा नही जियेंगे।
बेलूर की नदी में उनके शव को चन्‍दन की लकङियों से अग्नि दी गयी। 
स्‍वामी विवेकानंद स्‍वामी विवेकानंद Reviewed by Kahaniduniya.com on अक्टूबर 18, 2019 Rating: 5

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