तीसरे दिन जब वह सिंहासन
पर बैठने को हुआ तो चंद्रकला नाम की तीसरी पुतली ने उसे रोककर कहा, ‘हे राजन्! यह
क्या करते हो?
पहले विक्रमादित्य जैसे
काम करों, तब सिंहासन पर बैठना!’
राजा ने पूछा, ‘विक्रमादित्य
ने कैसे काम किए थे?’
पुतली बोली, ‘लो, सुनो।’
तीसरी पुतली चन्द्रकला ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है-
एक बार पुरूषार्थ और
भाग्य में इस बात पर ठन गई कि कौन बङा है? पुरूषार्थ कहता कि बगैर मेहनत के कुछ
भी संभव नहीं है जबकि भाग्य का मानना था कि जिसको जो भी मिलता है भाग्य से मिलता
है। परिश्रम की कोई भूमिका नहीं होती है। उनके विवाद ने ऐसा उग्र रूप ग्रहण कर
लिया कि दोनों को देवराज इन्द्र के पास जाना पङा।
झगङा बहुत ही पेचीदा था
इसलिए इन्द्र भी चकरा गए। पुरूषार्थ को वे नहीं मानते जिन्हें विक्रमादित्य की
याद आई। उन्हें लगा सारे विश्व में इस झगङे का समाधान सिर्फ वही कर सकते हैं।
उन्होंने पुरूषार्थ और
भाग्य को विक्रमादित्य के पास जाने के लिए कहा। पुरूषार्थ और भाग्य मानव वेष
में विक्रमादित्य के पास चल पङे। विक्रमादित्य को भी झगङे का तुरंत कोई समाधान
नहीं सूझा। उन्होंने दोनों से छ: महीने बाद आने को कहा।
जब वे चले गए
विक्रमादित्य ने काफी सोचा। समाधान के लिए वे सामान्य जनता के बीच वेष बदलकर
घूमने लगे। काफी घूमने के बाद भी जब कोई संतोषजनक हल नहीं खोज पाए तो दूसरे राज्यों
में भी घूमने का निर्णय किया।
काफी भटकने के बाद भी जब
कोई समाधान नहीं निकला तो उन्होंने एक व्यापारी के यहां नौकरी कर ली। व्यापारी
ने उन्हें नौकरी उनके यह करने पर दी कि जो काम दूसरे नहीं कर सकते हैं वे कर
देंगे।
कुछ दिनों बाद वह व्यापारी
जहाज पर अपना माल लादकर दूसरे देशों में व्यापार करने के लिए समुद्री रास्ते से
चल पङा। अन्य नौकरों के अलावा उसके साथ विक्रमादित्य भी थे। जहाज कुछ ही दूर गया
होगा कि भयानक तूफान आ गया। जहाज पर सवार लोगों में भय और हताशा की लहर दौङ गई।
किसी तरह जहाज एक टापू के पास आया और वहां लंगर डाल दिया गया। जब तूफान समाप्त
हुआ तो लंगर उठाया जाने लगा। मगर लंगर किसी के उठाए न उठा।
अब व्यापारी को याद आया
कि विक्रमादित्य ने यह कहकर नौकरी ली थी कि जो कोई न कर सकेगा वे कर देंगे। उसने
विक्रमादित्य से लंगर उठाने को कहा। लंगर उनसे आसानी से उठ गया। लंगर उठते ही
जहाज तेज गति से बढ गया लेकिन टापू पर विक्रमादित्य छूट गया।
उनकी समझ में नहीं आया
क्या किया जाए। द्वीप पर घूमने-फिरने चल पङे। नगर के द्वार पर एक पट्टिका टंगी
थी, जिस पर लिखा कि वहां की राजकुमारी का विवाह पराक्रमी विक्रमादित्य से ही
होगा। वे चलते-चलते महल तक पहुंचे।
राजकुमारी उनका परिचय
पाकर खुश हुई और दोनों का विवाह हो गया। कुछ समय बाद वे कुछ सेवकों के साथ ले अपने
राज्य की ओर चल पङे। रास्ते में विश्राम के लिए जहां डेरा डाला वहीं एक संन्यासी
से उनकी भेंट हुई। संन्यासी ने उन्हें एक माला और एक छङी दी।
उस माला की दो विशेषताएं
थीं- उसे पहनने वाला अदृश्य होकर सब कुछ देख सकता था तथा गले मे माला रहने पर
उसका हर कार्य सिद्ध हो जाता। छङी से उसका मालिक सोने के पूर्व कोई भी आभूषण मांग
सकता था।
संन्यासी को धन्यवाद
देकर विक्रमादित्य अपने राज्य लौटे। एक उद्यान में ठहकर संग आए सेवकों को वापस
भेज दिया तथा अपनी पत्नी को संदेश भिजवाया कि शीघ्र ही वे उसे अपने राज्य बुलवा
लेंगे।
उद्यान में ही उनकी भेंट
एक ब्राह्मण और एक भाट से हुई। वे दोनों काफी समय से उस उद्यान की देखभाल कर रहे
थे। उन्हें आशा थी की कि उनके राजा कभी उनकी सुध लेंगे तथा उनकी विपन्नता को दूर
करेंगे। विक्रमादित्य पसीज गए। उन्होंने संन्यासी वाली माला भाट को तथा छङी
ब्राह्मण को दे दी। ऐसी अमूल्य चीजें पाकर दोनों धन्य हुए और विक्रम का गुणगान
करते हुए चले गए।
विक्रम राज दरबार में
पहुंचकर अपने कार्य में संलग्न हो गए। छ: मास की अवधि पूरी हुई, तो पुरूषार्थ तथा
भाग्य अपने फैसले के लिए उनके पास आए।
विक्रमादित्य ने फैसला
दिया कि भाग्य और पुरूषार्थ एक-दूसरे के पूरक हैं। उन्हें छङी और माला का उदाहरण
याद आया। जो छङी और माला उन्हें भाग्य से संन्यासी से प्राप्त् हुई थीं। उन्हें
ब्राह्मण और भाट ने पुरूषार्थ से प्राप्त किया। पुरूषार्थ् और भाग्य पूरी तरह
संतुष्ट होकर वहां से चले गए।
कहानी सुनाकर पुतली
बोली- बोलो राजा, क्या आप में है ऐसा न्यायप्रिय फैसला देने का ह्रदय और सामर्थ्य
?
तीसरी पुतली चंद्रकला कहानी
Reviewed by Kahaniduniya.com
on
अक्टूबर 28, 2019
Rating:

कोई टिप्पणी नहीं: