शहीद लाहिङी ने फांसी के दिन भी कि व्‍यायाम     

अमर शहीद राजेंद्रनाथ्‍ा लाहिङी को गोंडा जिले में 17 दिसंबर 1927 को 
फांसी दी जानी थी। उनके मन में इस फैसले को सुनने के बाद भी न कोई दुख था और न चिंता थी। शेष बचे दिन राजेंद्रनाथ ने बङी प्रसन्‍नता व उत्‍साह से बिल्‍कुल सहजता के साथ बिताए। जब फांसी का दिन आया तो जेलर उन्‍हें लेने आया। उसके साथ मजिस्‍ट्रेट भी थे। राजेंद्र बादू ने नित्‍य की भांति स्‍नान किया और फिर गीता पाठ और व्‍यायाम किया। तत्‍पश्‍चात् वस्‍त्र धारण किए और मजिस्‍ट्रेट के साथ राजेंद्रनाथ फांसी स्‍थल की ओर बढने लगे। मजिस्‍ट्रेट यह सब देखकर अवाक थे। उन्‍होंने कहा-महाशय लाहिङी, आपको यदि आपत्ति न हो तो एक बात पूछूं? मैं 45 मिनट से आप जो कुछ कर रहे थे देख रहा था। आपने स्‍नान व गीता पाठ किया। वह तो ठीक था 

क्‍योंकि आप अगली घटना को सहन करने की प्रेरणा ग्रहण करना चसाहते होंगे, लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आया कि आपने व्‍यायाम क्‍यों किया? लाहिङी ने अत्‍यंत शांत व दृढ स्‍वर में कहा-आप जानते हें कि मैं हिन्‍दु हूं और इस नाते मेरा यह दृढ विश्‍वास हे कि मैं मरने नहीं जा रहा हूं। जिसके लिए अगले जीवन में बलिष्‍ठ शरीर चाहिए। इसलिए मैंने आज भी व्‍यायाम किया। देशक्ति का ऐसा जज्‍बा देखकर मजिस्‍ट्रेट निरूत्‍तर हो गया।

यह प्रसंग देश के लिए आत्‍म बलिदान करने के लिए वांछित उत्‍साह और वीरता को दर्शाता है। यदि मन में राष्‍ट्र के लिए कुछ करने का जज्‍बा हो तो वह शत-प्रतिशत हो, आधे-अधूरे भाव से करने का पुण्‍य समाप्‍त हो जाता है और असफलता हाथ लगती है।


उत्‍तम विचार-अंधा वह नहीं जिसकी आंखें नहीं हैं, अंधा वह है जो अपने दोषों को छिपाता है। 
Reviewed by Kahaniduniya.com on सितंबर 09, 2019 Rating: 5

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