मोहर के रूप में बच्ची को उसके धैर्य का फल मिला
ईराक की एक लोकथा है-बगदाद के एक बङे क्षेत्र में उन
दिनों अकाल पङा था। चारों और हाहाकार मचा था। लोग भुखे मर रहे थे और पशु-पक्षी भी
दम तोङ रहे थे। ऐसी भीषण स्थिति में एक दिन उस क्षेत्र के एक धनी पुरूष ने दयालुता
दिखाते हुए सभी छोटे बच्चों को प्रतिदिन एक रोटी देने की घोषणा की। दूसरे दिन
सुबह से ही एक बगीचे में सभी बच्चे एकत्रित हो गए। वह धनी स्वयं अपने हाथों से
बच्चों को रोटी बांटने लगा। रोटियां छोटी-बङी थीं। सभी बच्चे एक-दूसरे को धक्का
देकर बङी रोटी पाने का प्रयास कर रहे थे। केवल एक छोटी लङकी एक ओर चुपचाप खङी थी।
वह सबसे अंत में आगे बढी। टोकरी में सबसे छोटी अंतिम रोटी बची थी। उसने उसे प्रसन्नता
से ले लिया और घर चली गई। दूसरेदिन फिर रोटियां बंटीं। उस लडकी को आज भी सबसे छोटी
रोटी मिली। जिसका उसे कोई दुख नहीं था। लङकी ने जब घर लौटकर रोटी तोङी तो उसमें से
सोने की एक मोहर निकली। उसकी मां ने धनिक को मोहर लौटा आने के लिए कहा। वह तत्काल
दौङकर धनिक के पास गई और बोली मेरी रोटी में यह मोहर निकली है। आटे में गिर गई
होगी, देने आई हूं। धनिक ने कहा-नहीं बेटी, यह तुम्हारे संतोष का पुरस्कार है।
लङकी सिर हिलाकर बोली-किंतु मेरे संतोष का फल तो मुझे तभी मिल गया था। मुझे धक्के
नहीं खाने पङे। धनी ने प्रसन्न होकर उस लङकी को अपनी धर्मपत्नी बना लिया और उसकी
माता के लिए मासिक वेतन निश्चित कर दिया।
सार यह है कि जीवन के सभी संदर्भो में अनावश्यक
शीघ्रता न करते हुए यदि संतोष का भाव रखा जाए तो उसके दूरगामी परिणाम बेहतर होते
हैं।
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