जब चूर-चूर हो गया अर्जुन का अहंकार


अर्जुन श्रीकृष्‍ण के भक्‍त थे। धीरे-धीरे उनमें यह गर्व का भाव पनपने लगा कि वे ही श्रीकृष्‍ण के सबसे बङे भक्‍त हैं। उन्‍हें लगता कि जो एकनिष्‍ठा और सम भाव उनमें है, वैसा किसी और में होना संभव नहीं है। जब श्रीकृष्‍ण को यह अहसास हुआ कि अर्जुन में अहंकार आ गया है तो उन्‍होंने उसे निर्मल करने की ठानी। एक दिन वे अर्जुन को लेकर भ्रमण हेतु निकले। चलते-चलते श्रीकृष्‍ण एक स्‍थान पर रूक गए। वहां एक ब्राहमण बैठा सूखी घास खा रहा था। सहसा अर्जुन की दृष्टि ब्राहमण की कमर में लटकती तलवार पर गई।

अर्जुन ने ब्राहमण से इसका निमित्‍त जानना चाहा। ब्राहमण ने कहा-इससे मुझे चार लोगों को समाप्‍त करना है। सर्वप्रथम उस नारद को जो जब चोहे गाते-बजाते आए और मेरे भगवान श्रीकृष्‍ण को जगा दे। दूसरा है प्रहलाद, उस धूर्त ने मेरे भगवान की मक्‍खन जैसी कोमल देह को कठोर स्‍तंभ के भीतर से निकलने पर बाध्‍य कर दिया। तीसरी वह द्रौपदी है, जिसकी इतनी हिम्‍मत कि जब मेरे भगवान भोजन करने बैठे, तभी उनको बुलाकर भोजन नहीं करने दिया। और चौथा है अर्जुन, जिसका इतना दुस्‍साहस कि त्रिलोक के स्‍वामी, जगतपालक मेरे प्रभु को अपना सारथी बना डाला। उसे तो मैं किसी हाल में नहीं छोडूंगा। ब्राहमण के भक्ति भाव की गहराई देख अर्जुन का अहंकार तिरोहित हो गया।

कथा का मर्म यह है कि अहंकार से योग्‍यता उस तरह फलदायी नहीं रह पाती, जैसी कि निरभिमान स्थिति में होती है।


उत्‍तम विचार – नम्रता वह मधुर जङ है जिससे समस्‍त सदगुणों की शाखाएं निकलती हैं। 
जब चूर-चूर हो गया अर्जुन का अहंकार                                जब चूर-चूर हो गया अर्जुन का अहंकार Reviewed by Kahaniduniya.com on सितंबर 15, 2019 Rating: 5

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