जब राजा पुरंजय यज्ञ के बीच से उठकर चल दिए
एक बार राजा पुरंजय ने राजसूर्य यज्ञ का आयोजन किया।
इसमें दूर-दूर से ॠषि-मुनि बकुलाए गए। यज्ञ प्रजा की सुख-शांति के लिए किया जा रहा
था। राजा पुरंजय अत्यंत प्रजावत्सल थे। उनके राज्य में जो भी कार्य किए जाते,
वे प्रजा के हितों केा ध्यान में रखकर ही किए जाते थे। सभी आमंत्रित ॠषि-मुनियों
का राजा ने यथोचित सत्कार किया। तत्पश्चात यज्ञ आरंभ हो गया। राजा पुरंजय
सपरिवार बैठे थे और यज्ञ भलीभांति संपन्न हो रहा था।
अब यज्ञ की पूर्णाहुति का समय
आया, तभी एक व्यक्ति घबराया हुआ वहां आ पहुंचा औश्र राजा से रोते हुए
बोला-महाराज। अभी-अभी डाकुओं के दल ने मेरा सब कुछ लूट लिया है। मेरे पास एक कौङी
तक नहीं बची। अभी वे अधिक दूर नहीं गए होगें। मैं मदद के लिए बहुत चिल्लाया, रोया,
गिङगिङाया किंतु हथियारबंद डाकुओं का सामना करने की हिम्मत गांव में किसी भी व्यक्ति
की नहीं हुई। सब चुपचाप तमाशा देखते रहे। इसीलिए मैं आपके पास आया हूं, राजा तत्काल
उठ खङे हुए। मुनिगण बोले-राजन्। यज्ञ की पूर्णाहुति दिए बगैर आप कदापि न उठें।
इससे देवता कुपित होकर अनिष्ट कर सकते हें और आपको यज्ञ का ल भी नहीं मिलेगा। तब
राजा ने कहा-आप मुझे क्षमा करें। राजा का पहला कर्तव्य प्रजा का संकट दूर करना
है। यज्ञ तो मैं भविष्य में भी कर सकता हूं। किंतु इस समय इस व्यक्ति का संकट
दूर करना ही मेरे लिए सबसे बङा यज्ञ है। यह कहकर राजा अपने सैनिकों को लेकर निकल
पङे।
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