धन की भेंट


गुस्‍से मे आकर वृन्‍दावन कुण्‍डू अपने पिता के पास आकर रहने लगा, इसी वक्‍त मैं आपसे विदा होना चाहता हूँ।
उसके पिता जगन्‍नाथ कुण्‍डू ने कुस्‍से और नफरतभरी दृष्टि से देखते हु कहा, अभागे! कृतघ्‍न! मैंने जितना भी रूपया तेरे पालन-पोषण पर व्‍यय किया है, उसे चुका कर ही ऐसी धमकी देना।
जिस तरह का खान-पान जगन्‍नाथ के घर चला करता था, ऐसे खाने पर कुछ ज्‍यादा धन खर्च न होता था। भारत के प्राचीन ॠषि मितव्‍ययता के लिए ऐसी ही चीजों का प्रबन्‍ध कर लिया करते थे। जगन्‍नाथ के बर्ताव से प्रतीत होता था कि वह इस विषय में उन ॠषियों ही के आदर्शो पर चलना पसन्‍द करता था अपनी औलाद को। यद्यपि वह पूर्ण रूप से इस आदर्श को निभाने में असमर्थ था। इसकी वजह कुछ यह समझी जा सकती है कि जिस समाज में उसका रहन-सहन था वह अपने प्राचीन आदर्शो को शरीर के साथ मिलाये रखने के बारे में प्रकृत्ति की उत्तेजना तीव्र और युक्तिसंगत थी।
जब तक वृन्‍दावन अविवाहित था, उनका निर्वाह जैसे-तैसे चलता रहा, लेकिन विवाह के बाद उसने सीमा से बाहर इस उत्तम और सुन्‍दर आदर्श को, जो उसके महामना बाप ने बनाकर रखा था, छोङना आरम्‍भ कर दिया। ऐसा मालूम होता था कि सांसारिक सुख-ऐश्‍वर्य के सम्‍बन्‍ध में उसके ख्‍याल आध्‍यात्मिकता से शारीरिकता की ओर बदल रहे हैं और खाने-पीने की न्‍यूनता से उसे भूख पसन्‍द न करके संसार के साधारण आदमियों के आचरण का अनुकरण करना आरम्‍भ कर दिया।
जब से वृन्‍दावन ने अपने पिता के बनाये हुए आदर्श को त्‍याग, तभी से पिता और पुत्र में झगङा हो गया। इस कलह से चरम सीमा का रूप उस वक्‍त धारण किया, जब वृन्‍दावन की पत्‍नी ज्‍यादा बीमार हुई और उसकी चिकित्‍सा  के लिए एक कविराज बुलाया गया। यहाँ तक का व्‍यवहार भी क्षमा करने के लायक था, किन्‍तु जब वैद्यराज ने रोगी के लिए अधिक मूल्‍य की दवाई का फैसला किया, तो जगन्‍नाथ ने समझ लिया कि वैद्यराज अयोग्‍य है, वैँद्यक के नियमों से बिल्‍कुल अन्‍जान। बस उसने उसी वक्‍त उनको मकान से बाहर निकलवा दिया। वृन्‍दावन ने पहले तो पिता से काफी अनुनय-विनय की  दवाई जारी रहे-फिर झगङा भी किया, मगर पिता के कान पर जूं तक न रेंगी। अन्‍त में जब पत्‍नी स्‍वर्ग सिधार गई, तो वृन्‍दावन का गुस्‍सा ज्‍यादा बढ गया और उसने अपने बाप को उसका प्राणघातक ठहराया।
जगन्‍नाथ ने स्‍वभावानुसार उसको समझाने का काफी प्रया‍स किया और कहा-तुम कैसी नासमझी की बातें करते हो? क्‍या लोग विभिन्‍न प्रकार की दवाई खाकर नहीं मरते, यदि मूल्‍यवान औषधियाँ ही आदमी को जीवित रख सकतीं तो बङे-बङे राजा-महाराजा क्‍यों मरते? इससे पहले तुम्‍हारी माँ और दादी मर चुकी हैं, बहू मर गई तो क्‍या हुआ? वक्‍त आने पर प्रत्‍येक आदमी को इस दुनिया से जाना पङता है।
व़ृन्‍दावन यदि इस तरह दु:खी और सचेत होकर वास्तविक परिणाम पर पहुँचने में योग्‍य न होता तो सम्‍भव था कि वह इन बातों से कुछ सांत्‍वना हासिल कर लेता। इससे पहले मरने के वक्‍त उसकी माँ और उसकी दादी ने दवाई न पी थी और औषधि सेवन न करने की यह रीति काफी पहले से इस खानदान में चली आई है। नई पौध का चरित्र इतना बिगङ चुका है कि वह पुराने तरीके पर मरना भी पसन्‍द नहीं करती।
जिस युग की चर्चा हम कर रहे हैं, उन दिनों अंग्रेज भारत में नये-नये आये थे, लेकिन उस वक्‍त भी इस देश के बङे-बूढे अपनी-अपनी औलाद की आदत की खिलाफतपन के तरीके पर आश्‍चर्य और विकलता प्रकट किया करते और आखिर में जब उनकी एक न चलती तो अपने मुख में लगे हुए हुक्‍कों से सांत्‍वना प्राप्‍त करने की कोशिश करते।
वास्‍तविकता यह है कि जिस वक्‍त मामला चरम-सीमा पर पहुँच गया तो वृन्‍दावन से न रहा गया और उसने गुस्से और विकलता के साथ अपने पिता से कहा-मैं जाता हूँ।
पिता ने उसे दृढ देखकर उसी वक्‍त आज्ञा दे दी।
उन्‍होंने घोषणा करते समय कह दिया-चाहे देवता मेरे ढंग को गौ-हत्‍या के समान क्‍यों न समझें, मैं सौगन्‍ध खाकर कहता हूँ कि तुम्‍हें अपनी धन-दौलत में से एक कोङी भी नहीं दूंगा।
अगर मैं तुम्‍हारी एक पाई तक को भी हाथ लगाऊँ तो उस व्‍यक्ति से भी नीचे होऊँगा जो अपनी माँ को बुरे भाव से देखता है।वृन्‍दावन के मुँह से आक्रोश निकल आया।

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गाँव के रहने वालों ने अपने जैसे विचारों के लम्‍बे-चौङे वाद-विवाद के पश्‍चात् उस छोटे-से परिवर्तन भरे झगङे को संतोषपूर्वक देखा। जगन्‍नाथ ने चूँकि अपने पुत्र को अपनी सम्‍पत्ति से वंचित कर दिया था। अत: प्रत्‍येक व्‍यक्ति उसे सांत्‍वना देने का प्रयास कर रहा थां वे इस बारे में सहमत थे कि केवल पत्‍नी की खातिर पिता के साथ झगङा करने का नजारा इस नये युग में ही देखा जा सकता है। इसके सम्‍बन्‍ध में वे स्‍वयं जो कारण बताते थे, वे भी काफी असंगत थे। उनका कहना था कि यदि किसी की पत्‍नी मर जाये तो बङी आसानी से दूसरी प्राप्‍त कर सकता है, पिता मर जाये तो संसार भर की धन-दौलत के बदले में भी उसे हासिल नहीं किया जा सकता।
इस बात में सन्‍देह नहीं कि उनका उपदेश हर तरह से ठीक था, किन्‍तु हमें सन्‍देह है कि दूसरा पिता हासिल करने की पीङा उस पथ-भ्रष्‍ट बेटे को कहाँ तक प्रभावित कर सकती थी। इसके विरूद्ध हमारा विचार यह है कि ऐसा मौका आता तो वह उसे ईश्‍वरीय अनुकम्‍पा में सम्मिलित समझता।
वृन्‍दावन के अलग होने का दु:ख उसके पिता जगन्‍नाथ को तनिक भी अहसास न हुआ। इसके कुछ खास कारण थे। एक तो यह कि उसके चले जाने से घर का खर्च कम हो गया, दूसरे दिल से एक भारी फिक्र दूर हो गई, हर समय उसे इस बात का भय रहता था कि मेरा पुत्र मुझे जहर देकर न मार दें। जब कभी वह अपना थोङा-सा भोजन करने बैठता तो यही विचार उसे व्‍याकुल कर देता कि उसमें जहर न मिला हुआ हो। यही चिंता किसी हद तक वृन्‍दावन की पत्‍नी का स्‍वर्गवास हो जाने पर दूर हो गई थी, किन्‍तु अब वह बिल्‍कुल ही न रही।
जिस तरह घने अंधियारे बादलों में चमकीली बिजली और भयंकर तूफानी समुद्र में कीमती रत्‍न विद्यमान रहते हैं, उसी प्रकार बूढे जगन्‍नाथ के कठोर ह्रदय में भी एक कमजोरी शेष थी। वृन्‍दावन जाते समय अपने साथ चार वर्षीय पुत्र गोकुलचन्‍द को भी ले गया था। चूंकि उसकी खुराक और कपङों का खर्च बहुत कम था इसलिए जगन्‍नाथ को उससे बहुत प्‍यार था। जाते समय जब वृन्‍दावन उसे अपने साथ ले गया तो सबसे पहले दु:ख और पछतावें की अपेक्षा उसने अपने मन मे हिसाब लगाना आरम्‍भ कर दिया कि इन दोनों के चले जाने से खर्च में कितनी कमी हो जाएगी। इस बचत की वार्षिक रकम कहाँ तक पहुँचेगी और इस बचत को अगर किसी रकम का सूद समझा जाए तो उसका मूलधन कितना हो सकेगा?
जब तक गोकुलचन्‍द भवन में था वह अपनी चंचलता से जगन्‍नाथ का ध्‍यान अपनी ओर आकर्षित रखना था लेकिन उसके चले जाने पर कुछ दिनों में ही बूढे को ऐसा अनुभव होने लगा कि घर कि घर काटने को दौङता है। इससे पहले जिस वक्‍त जगन्‍नाथ पूजा-पाठ में तल्‍लीन होता तो गोकुलचन्‍द उसे छेङा करता। भोजन करते वक्‍त उसके आगे से रोटी या चावल उठाकर भाग जाता और खुद खा लेता और जब वह आय-व्‍यय लिखने बैठता तो उसकी दवात लेकर दौङ जाता, लेकिन अब उसके चले जाने पर ये सब बातें भी दूर हो गई। जीवन का रोजाना का कार्यक्रम उसे भार अनुभव होने लगा। उसे ऐसा प्रतीत होता था कि इस प्रकार का विश्राम भविष्‍य के जगत में ही सहन किया जा सकता है। जब कभी वह गोकुल की चंचलता को स्‍मरण करता तो रजाइयों में उसके हाथों के छेदों या दरी पर कलम-दवात से उसके बनाए हुए भद्दे चित्रों को देखता तो उसका ह्रदय मारे दु:ख के व्‍याकुल हो जाता। जगन्‍नाथ को अपने सोने के कमरे में एक कोने के भीतर पङी हुई पुरानी धोती थी जिसे गोकुल ने दो वर्ष के थोङे वक्‍त में फाङ दिया था, तो जगन्‍नाथ ने उसे झिङका और बुरा भला कहा था। लेकिन अब उसने इन टुकङों को उठाकर बङी सावधानी से अपने संदुक में रख लिया और उसकी शपथ खा ली कि अगर गोकुल उसके जीते-जी फिर कभी वापस आ गया तो चाहे वह हर वर्ष एक धोती फाङे, वह उससे कभी नाराज न होगा।
परन्‍तु गोकुल को न वापस था, न आया। निर्धन जगन्‍नाथ दिन-प्रतिदिन बूढा होता जा रहा था और उसको खाली घर अधिक-से-अधिक भयभीत लगने लगा था। आखिर में हालत यहाँ तक पहुँची कि वह सन्‍तोष से घर में बैठ भी न पाता। मध्‍याह्र वक्‍त जब गाँव के सब लोग अपने-अपने घरों में सोए होते तो जगन्‍नाथ नारियल हाथ में लिये गलियों में घूमता दूर जा खङा होता और इस तरह पद्य-पंक्ति गाने लगता जिसमें एक स्‍थानीय कवि ने वृद्ध जगन्‍नाथ की मितव्ययी आदत की तारीफ की थी। कोई व्‍यक्ति डर के मारे उसका वास्‍तविक नाम इस भय से जबान पर नहीं लाता कि कहीं उसे उस रोज अन्‍न-जल प्राप्‍त न हों अत: लोगों ने उसके अनेक तरह के नाम रख रखे थे। वृद्ध उसे जगन्‍नाथ कहा करते थे, परन्‍तु मालूम नहीं छोटे लङके उसे चिङियल क्‍यों कहते थे? मुमकिन है इसका कारण यह हो कि उसकी त्‍वचा खुश्‍क और शरीर रक्‍तहीन दिखाई देता था। इन्‍हीं वजहों से वह प्रेत आत्‍माओं के जैसा समझा जाने लगा।
भाग – 2
एक बार दोपहर जब जगन्‍नाथ स्‍वभावानुसार गाँव की गलियों में आम के छतनारे वृक्षों के नीचे अपना नारियल हाथ में लिये फिर रहा था। उसने देखा कि लङका जो देखने में अजनबी प्रतीत होता था, गाँव के लङकों का सरदार बना हुआ है और उन्‍हें नई शरारत समझा रहा है। उसके महान चरित्र तथा उसकी कुशाग्र बुद्धि से प्रभावित होकर सब लङकों ने इस बात का नियम कर लिया था कि हर काम में उसकी आज्ञानुसार  आचरण करेंगें दूसरे लङकों की भाँति वह बूढे जगन्‍नाथ को अपनी ओर  आता देखकर डर से भागा नहीं, बल्कि उसके करीब जाकर चादर झाङने लगा। उसी वक्‍त चादर में से एक जीवित छिपकली निकलकर बूढे के जिस्‍म पर गिरी और उसकी पीठ की ओर से नीचे उतरकर जंगल की ओर भाग गई। डर से बूढे के हाथ-पांव काँपने लगे। यह देखकर सब लङके बहुत खुश हुए और प्रसन्‍नता से उच्‍च स्‍वर में बेहूदा नारे लगाने लगे। बूढा जगन्‍नाथ बङबङाता और गालियाँ देता हुआ बहुत दूर निकल गया, मगर वह अंगोछा जो प्राय: उसके कंधों पर पङा रहता था, उचानक तुप्‍त हो गया और दूसरे ही पल उस अन्‍जान लङके के सिर पर बंधी हुई पगङी के रूप में दिखाई देने लगा।
लङके की तरफ से इस प्रकार की चेष्‍टा देखकर जगन्‍नाथ पहले तो कुछ चिंतित हुआ, फिर वह गाँव की रोजाना की कठोरता को इस तरह पराजित होते देखकर खुश भी हुआ। काफी दिनों से लङके उसकी छाया ही देखकर दूर भाग जाया करते थे और उसे उनसे बोलने तथा वार्तालाप करने का मौका भी न मिलता था। अपरिचित लङके इस शरारत के बाद दूर भाग गया था, किन्‍तु बहुत-से वचन और सांत्‍वना देने के बाद। वह उस बूढे के समीप आया। फिर दोनों में निम्‍न बातें होने लगीं-
पुत्र, तुम्‍हारा नाम क्‍या है?
नितईपाल।
घर कहाँ है आपका?
मैं नहीं बताऊँगा।
क्‍यों नहीं बताओगे?
क्‍योंकि मैं घर से भागकर यहाँ आया हूँ।
भागे किसलिए थे?
मेरा बाप मुझे स्‍कूल जाने को कहता था।
जगन्‍नाथ के दिल में विचार आया, ऐसे होनहार लङके को स्‍कूल भेजना कैसी व्‍यर्थ की बात है? वह कैसा लङके के भविष्‍य के परिणाम की तरफ से आंखें बन्‍द रखने वाला बाप होगा जो इसे स्‍कूल भेजना चाहता है।
थोङी देर पश्‍चात् वह कहने लगा-अच्‍छा, तुम मेरे घर रहना पसन्‍द करोगे?
लङके ने जवाब दिया-क्‍यों नहीं
उसी दिन से वह लङका उसके घर में रहने लगा। उसे घर में प्रवेश करते हुए इतना डर न लगा, जितना अंधेरे में किसी पेङ के नीचे जाने से हो सकता है। इतना ही नहीं, बल्कि उसने अपने कपङे और भोजन के विषय में ऐसे निर्भयतापूर्ण ढंग से प्रश्‍न करने शुरू किये जैसे वह उस घर में सालों से परिवार का अंग रहा हो। यदि कोई वस्‍तु उसकी मनपसन्‍द न होती तो वह जगन्‍नाथ से झगङा शुरू कर देता। जगन्‍नाथ अपने बेटे को तो डरा-धमका भी लेता, मगर उसे बस में लाना आसान न था। उसे उसकी प्रत्‍येक बात माननी पङती।

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गाँव के लोग हैरत में थे कि जगन्‍नाथ ने नितईपाल को क्‍यों इस प्रकार सिर पर चढा रखा हैं। यह सर्वविदित था कि बूढा अब कुछ दिन नहीं तो कुछ सप्‍ताह का मेहमान है और वे इस बात को सोचकर काफी दु:खित होते थे कि उसके स्‍वर्ग सिधारने पर उसकी सम्‍पत्ति का अधिकारी यही लङका होगा। वे सब इस बात पर लङके से लगने लगे थे। उन्‍होंने यह भी निश्चित कर लिया था कि उसे अवश्‍य हानि पहुँचाने की कोशिश करेंगे, परन्‍तु जगन्‍नाथ उसकी इस तरह की निगरानी रखता, जैसे वह उसकी रीढ की हड्डी हो।
कभी-कभी लङका धमकी देकर कहता-मैं घर चला जाऊँगा।ऐसे अवसर पर बूढा लोभ-लालच का जाल बिछाकर कहता-मैं अपनी पूरी दौलत तुमको ही दे दूंगा।लङका हर प्रकार से कम उम्र का था, तब भी इस वचन के महत्‍व को बाखूबी समझता था।
गाँव वालों से और कुछ न हो सका तो उन्‍होंने उस लङके के बाप के विषय में जाँच आरम्‍भ की। उनको यह सोचकर बहुत पीङा होती थी कि उसके माता-पिता उसकी याद में दु:खी होंगे। लङका बङा ही चंचल है, जो इन्‍हें इस तरह छोङकर भाग आया। वे इसे हजार-हजार गालियाँ देते होंगे। किन्‍तु ये सब बातें वे जिस आवेश में करते थे इससे साफ मालूम होता था कि वे न्‍याय नहीं जलन से काम ले रहे हैं।
बूढे को एक दिन किसी बटोही की जवानी ज्ञात हुआ कि दामोदरपाल अपने पुत्र की खोज में पास के गाँवों और कस्‍वों में फिर रहा है और कुछ ही वक्‍त में वह इस गाँव में आने वाला है। नितई ने जब यह बात सुनी तो सहज भाव से उसके दिल के प्रेम में आवेश आया। वह उद्विग्‍नात की स्थिति में धन-दौलत छोङकर अपने माता-पिता के पास जाने को तैयार हो गया। जगन्‍नाथ उसे रोकने के लिये सम्‍भव ढंग से कोशिश करता था। इसलिए उसने कहा-तुम अपने पिता के पास जाओगे तो वह तुम्‍हें पिटेगा, मैं तुम्‍हें एक ऐसी जगह पर छिपा दूंगा कि किसी को भी तुम्‍हारा पता न मिल सके, यहाँ तक की गाँव वाले भी मालूम न कर सकेंगे।
इस बात से लङके के दिल में आश्‍चर्य उत्‍पन्‍न हुआ और वह कहने लगा-बाबा! मुझे कहाँ छिपाओगे? भला वह जगह तो मुझे भी दिखा दो।
जगन्‍नाथ ने जवाब दिया-यदि वह स्‍थान मैं इस समय दिखा दूं तो लोगों को खबर हो जाएगी, रात हो जाने दो।सभी बच्‍चों में आश्‍चर्यजनक जगह की उत्‍कष्‍ट लालसा होती हे, नितई भी उसी तरह यह बात सुनकर खुश हुआ। उसने अपने दिल में विचारा कि जब मेरे पिता मेरी खोज करने के पश्‍चात् वापस चले जायेंगे तो मैं दौङ लगाकर लङकों के साथ उस स्‍थान पर आँखमिचौनी खेला करूँगा और कोई पता न कर सकेगा कि मैं कहाँ छिपा हूँ। वास्‍तव में उस वक्‍त बङा आनन्‍द आयेगा। पिताजी पूरा गाँव छान मारेंगे और मुझे कहीं न पा सकेंगे, बङी दिल्‍लगी होगी।
दोपहर बाद के समय जगन्‍नाथ ल्रङके को कुछ समय के लिए मकान में बन्‍द करके कहीं चला। उसके वापस आने पर नितई ने उससे इतने सवाल किए कि वह परेशान हो गया।
अन्‍त में जब रात हुई तो नितई कहने लगा-बाबा, अब तो वह स्‍थान मुझे दिखा दो।
जगन्‍नाथ ने जवाब दिया-अभी रात नहीं हुई।
इसके कुदवक्‍त बाद लङके ने फिर कहा-बाबा, अब रात बहुत हो गई है, अब तो चलो।
जगन्‍नाथ ने अहिस्‍ता से कहा-अभी गाँव के लोग सोए नहीं हैं।
फिर नितई एक क्षण के लिए रूका और बोला-बाबा! इस वक्‍त तो सब लोग सो गये हैं, आओं अब चले।
रात बहुत जा चुकी थी। निर्धन लङका इतनी देर तक कभी न जागा था, इसलिए उसको जागे रहने में बङी मुश्किल पङ रही थी। आखिर आधी रात के समय जगन्‍नाथ लङके की बांह पकङकर खाली गाँव की अंधेरी गलियों से मार्ग टटोलता बाहर निकला। सब दिशाएँ सुनी थीं, चारों ओर सुनापन था, कभी-कभी कोई कुत्ता भौंकने लगता तो और कुत्ते भी उसके साथ मिलकर भोंकना शुरू कर देते। इसके अलावा कहीं-कहीं उसके पैरों की आहट से कोई पक्षी पेङ की टहनी से पंख फङफङाता हुआ उङ जाता। नितई भय से काँप रहा था लेकिन जगन्‍नाथ ने उसका हाथ मजबूती से पकङा हुआ था।
कई खेतों में से होकर आखिर में ये लोग जंगल में घुस गए। यहाँ एक पुराना मन्दिर बना हुआ था। जिसमें कभी भी देवता की प्रतिमा दिखाई न पङती थी। नितई ने उसे देखकर मायूसी भरे स्‍वर में कहा-बस यही जगह थी?
यह जगह उसकी सभी कल्‍पनाओं से भिन्‍न थी, क्‍योंकि उसमें कोई आश्‍चर्य की बात न थी। जब से वह घर से भागा था। अनेक बार ऐसे खंडहर मंदिरों मे रातें गुजार चुका था। इतना होने पर भी आंखमिचौनी खेलने के लिए यह जगह सुन्‍दर थी; अर्थात् ऐसा कि उसके साथ खेलने वाले लङके यहाँ उसकी तलाश न कर सकते थे।
जगन्‍नाथ ने फर्श के मध्‍य से एक पत्‍थर की शिला उठाई। उसके नीचे आश्‍चर्यचकित लङके को एक तहखाना दिखाई दिया, जिसमें एक धीमा-सा दीया जल रहा था। भय और हैरानी से दोनों बातें उसके दिल पर जमी हुई थीं। अन्‍दर एक बांस की सीढी खङी थी। जगन्‍नाथ नीचे उतरा तथा नितई भी उसके पीछे-पीछे हो लिया।
नीचे उतरकर लङके ने इधर-उधर देखा तो चारों तरफ पीतल के टोकने पङे हुए दिखाई दिए। उसके बीच में एक आसन बिछा हुआ था और सम्‍मुख थोङा सिंदूर, घिसा हुआ चन्‍दन, कुछ जंगली फूल तथ पूजा की बची सामग्री रखी हुई थी। लङके ने अपनी जिज्ञासा-पूर्ति के लिए उन टोकनों में से कुछ के भीतर हाथ डाला और जब बाहर हाथ निकालकर देखा तो प्रतीत हुआ कि उनमें रूपये और सोने की मोहरें भरी हुई हैं। इतने में बूढे जगन्‍नाथ ने नितई से कहा-नितई! मैंने तुमसे कहा था न कि मैं अपनी सारी दौलत तुम्‍हें दे दूंगा, मेरे पास कोई ज्‍यादा धन नहीं है, किन्‍तु जो कुछ भी है वह इन पीतल के टोकनों में भरी है तथा यह बस मैं आज तुम्‍हारे हवाले करना चाहता हूँ।
नितई खुशी की अधिकता के मारे उछल पङा और बोला-सच! क्‍या तुम इनमें से एक रूपया भी अपने पास न रखोगे?
बूढे ने उत्तर दिया-यदि मैं इसमें से कुछ लूं तो भगवान करे मेरा वह हाथ कोढी हो जाए-लेकिन यह धन मैं तुम्‍हें एक शर्त पर देता हूँ। यदि कभी मेरा पोता गोकुलचंद या उसका भी पोता अथवा परपोता या उसकी औलाद में से कोई व्‍यक्ति भी इस रास्‍ते से होकर जाये तो तुम्‍हारे लिए आवश्‍यक होगा कि यह सारी सम्‍पति उसको सौंप दों।
लङके ने थोङा ध्‍यान से सोचा और दृढ इरादे के साथ सोचा कि बूढा पागल हो गया है। फिर बोला-बहुत अच्‍छा, ऐसा ही करूँगा।
जगन्‍नाथ ने कहा-बस, तो इस जगह पर बैठ जाओ।
क्‍यों?
तुम्‍हारी पूजा की जाएगी।
लङके ने चकित होकर पूछा-यही रीति है क्‍या?
बूढे ने जवाब दिया –हाँ, यह रीति है।
लङका उछलकर फौरन आसन पर बैठ गया। बूढे जगन्‍नाथ ने उसके माथे पर चन्‍दन लगाया, भौंहों के मध्‍य सिन्‍दूर की बिन्‍दी लगा दी, जंगली पुष्‍पों का हार उसके गले में डाला तथा कुछ मन्‍त्र उच्‍चारण करने लगा।
बेचारा नितई देवता की तरह आसन पर बैठा-बैठा बोर हो गया, क्‍योंकि उसकी पलकें नींद से भारी हो रही थीं। अन्‍त में उसने घबराकर कहा-बाबा!
लेकिन जगन्‍नाथ उत्तर दिए बिना ही मंत्रों का उच्‍चारण करता रहा।
आखिर में उसके मंत्रों का सिलसिला समाप्‍त हआ और जगन्‍नाथ ने बङी मुश्किल से एक टोकने को खींचकर लङके के सामने रखा और ये शब्‍द विवशता से उसके मुँह से कहलवाये-मैं ईमानदारी से प्रतिज्ञा करता हूँ कि इस पूरी धन-सम्‍पत्ति को गोकुलचन्‍द कुण्‍डू के बेटे, पोते, परपोते या उसकी औलाद के किसी आदमी को जो इसका हकीकतन और लायक उत्तराधिकारी होगा, दे दूंगा।
अनेक बार अल्‍फाजों के कहने में भोले लङके की चेतना जाती रही और कण्‍ठ सूखने लगा।
जैसे-तैसे यह रस्‍म समाप्‍त हुई, गुफा की हवा दीपक के धुएँ और उन दोनों के सांस के कारण बुरी प्रतीत होने लगी। नितई को अपना कण्‍ठ मिट्टी तरह सूखा और हाथ-पांव जलते हुए महसूस हो रहे थे। बेचारे का दम घूटा जा रहा था। धीरे-धीरे दीपक का प्रकाश धीमा होता जा रहा था। यहाँ तक की दीपक आखिरी झोंका खाकर बुझ गया। इसके बाद अंधेरा फैल गया। नितई को ऐसा लगा कि बूढा जल्‍दी-जल्‍दी सीढी से ऊपर चढ रहा है। उसने घबराकर कहा-बाबा, तुम कहाँ जा रहे हो?
जगन्‍नाथ ने लगातार ऊपर की तरफ चढते हुए जवाब दिया-मैं अब जाता हूँ, तुम यहाँ रहो, यहाँ तुम्‍हें कोई ढूंढ न सकेगा। वृन्‍दावन के पुत्र और जगन्‍नाथ के पोते गोकुलचन्‍द का नाम याद रखना।
इसके पश्‍चात् उसने ऊपर जाकर सीढी खींच ली। लङके ने अवरूद्ध और दयनीय स्‍वर में कहा-मैं अब अपने बाप के पास जाना चाहता हूँ, यहाँ मुझे डर लगता है।
जगन्‍नाथ ने उसकी परवाह न करते हुए गुफा के मुख्‍य द्वार पर पत्‍थर की शिला रख दी। इसके बाद दोनों जंघाओं को मोङकर झुका और अपने कान पत्‍थर के पास लगाकर सुनने लगा। अन्‍दर से आवाज आई, ‘बाबा जी!’ फिर किसी भारी वस्‍तु के फर्श पर गिरने की आवाज सुनाई दी और इसके पश्‍चात् गहरी खामोशी छा गई।
बूढे जगन्‍नाथ ने इस तरह अपना धन उसको सौंपकर जल्‍दी–जल्‍दी पत्‍थर के ऊपर मिट्टी डालनी शुरू कर दी। उस पर उसने टूटी-फूटी ईंटे और चूना रख दिया और फिर मिट्टी बिछाकर उसमें जंगली घास तथा बूटियों की जङें खङी कर दीं।
रात सम्‍भवत: खत्‍म हो चुकी थी,
मगर वह उस जगह से हटकर घर न जा सका, रह-रहकर अपना कान पृथ्‍वी पर लगाता और आवाज सुनने की चेष्‍टा करता। ऐसा मालूम होता था कि अब भी उस गुफा के अन्‍दर या पृथ्‍वी की असीम गहराइायों में से एक वेदनायुक्‍त क्रन्‍दन सुनाई दे रहा है। उसे ऐसा प्रतीत होता था कि रात में आसमान पर केवल वही एक आवाज छाई हुई है और जगत के सब व्‍यक्ति उस आवाज से जागकर बिस्‍तरों में बैठे उसे सुनने की कोशिश कर रहे हैं।
पागल बूढा जोश मे आकर और अधिक मिट्टी डाले जाता था। वह चाहता था कि उस आवाज को दबा दे, लेकिन इस पर भी रह-रहकर वह आवाज उसके कानों में आ रही थी-बाबाजी! हाय बाबाजी!
उसने पूरी शक्ति से धरती पर पांव मारकर चिल्‍लाते हुए कहा-खामोश रहो, लोग तुम्‍हारी आवाज सुन लेंगे।
फिर भी उसे प्रतीत हुआ कि ‘हाय बाबाजी! हाय बापू!’ की आवाजें रह-रह कर सुनाई दे रही थीं।
इतने में सूरज निकल आया और जगन्‍नाथ कुण्‍डू मन्दिर को छोङकर खेतों की ओर आ गया।
वहाँ भी किसी ने उसके पीछे से आवाज दी-बापू!घबराहट की हालत में जगन्‍नाथ ने पीछे फिरकर देखा तो उसका बेटा वृन्‍दावन था।
वृन्‍दावन कहने लगा-मुझे प्रतीत हुआ है कि मेरा बेटा आपके घर में छिपा हुआ है, उसे मुझे दे दो।
यह सुनकर बूढे के नेत्र चौङे हो गए, मुँह खुला-का-खुला रह गया और उसने मुङकर पूछा-क्‍या कहा? तुम्‍हारा पुत्र?
वृन्‍दावन ने कहा-हाँ,मेरा पुत्र गोकुल, अब उसका नाम नितईपाल है और मैंने अपना नाम बदलकर दामोदरपाल प्रसिद्ध कर रखा था, क्‍योंकि तुम्‍हारी मनहूसी और कंजूसी की बात चारों तरफ ज्‍यादा फैल चुकी थी कि मजबूर होकर मुझे अपना वास्‍तविक नाम बदलना पङा। वरना यह मुमकिन न था कि लोग हमारा नाम लेने से भी सकुचाते।
बूढे ने धीरे से अपने दोनों हाथ सिर के ऊपर उठाए। उसकी उंगलियाँ इस प्रकार काँपने लगीं, मानो वायु में किसी अदृश्‍य चीज के पकङने का प्रयास कर ऱ्ही हों। फिर वह अचेत होकर पृथ्‍वी पर गिर पङा। जब उसे चेत हुआ तो वह अपने बेटे की बांह पकङकर उसे लगभग घसीटता हुआ पुराने मन्दिर के निकट ले गया और पूछने लगा-तुम्‍हें इसके भीतर से रोने की आवाज सुनाई देती है क्‍या?
वृन्‍दावन ने जवाब दिया-नहीं।
बूढे ने कहा-ध्‍यान से सूनो, कोई आवाज भीतर से ‘बाबाजी! बाबाजी!’ कहती सुनाई नहीं देती क्‍या?
वृन्‍दावन ने फिर कान लगाकर जवाब दिया-नहीं।
इससे बूढे जगन्‍नाथ की फिक्र किसी हद तक दूर हो गई, साथ ही उसके दिमाग ने भी उसे उत्तर दे दिया।
उस दिन के पश्‍चात् उसकी हालत यह थी कि गाँव में आवारा फिरता और लोगों से पूछा करता- तुम्‍हें किसी के रोने की आवाज तो नहीं सुनाई देती?
लोग उसके पागलपन पर हँसते थे।
इसके लगभग चार साल बाद जगन्‍नाथ मृत्‍यु–शैया पर पङा हुआ था। संसार का प्रकाश धीरे-धीरे उसकी आँखों के सामने से दूर होता जा रहा था और सांस ज्‍यादा कष्‍ट से आने लगी थी। सहसा वह विक्षिप्‍त हालत मे उठकर बैठ गया। उसने अपने दोनों हाथ ऊपर को उठा‍ लिये और हवा में इस तरह चलाने लगा जैसे किसी वस्‍तु को टटोल रहा हो और बोला-मेरी सीढी किसने उठा ली?
उस खतरनाक बन्‍दीगृह में से, जहाँ न देखने को रोशनी और न सांस लेने के लिए हवा थी, बाहर निकलने के लिए सीढी न पाकर वह फिर अपनी मृत्‍यु–शैया पर गिर पङा और जहाँ-जगत की स्‍थायी आँखमिचौनी के खेल में कोई छिपने वाला पाया नहीं गया, वह उस श्रेणी में खो गया।
                       
     

        


धन की भेंट धन की भेंट Reviewed by Kahaniduniya.com on सितंबर 26, 2019 Rating: 5

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