एक गुरू और उनका एक शिष्य हर दिन बहुत
सुंदर खिलौने बनाते और शाम को बाजार में जाकर उन्हें बेच आते। गुरू द्वारा बनाए
खिलौनों की अपेक्षा शिष्य के खिलौने अधिक दाम में बिकते थे। इसके बावजूद गुरू
शिष्य से निरंतर कहते-बेटा। काम में और सफाई लाओ अधिक मेहनत करो और एकाग्रचित
बनो। शिष्य सोचता कि मैं गुरू स्त्रे अच्छे खिलौने बनाता हूं, जो अधिक दाम पर बिकते
हैं। शायद इसलिए वे मेरे प्रति ईर्ष्या
रखने लगे हैं। एक दिन वह गुरू स्त्रे बोला-गुरूजी। मैं आपका सम्मान करता
हूं। किंतु मैं आपसे योग्य हूं और इसका सबूत हैं मेरे बनाए खिलौने, जो आपके खिलौनों
से अधिक कीमत पर बिकते हैं। फिर भी आप मुझे नित्य काम में सफाई लाने की शिक्षा क्यों
देते हैं?
गुरू ने बिना किसी उत्तेजना के शिष्य के
प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा-बेटा। आज से 18 वर्ष पूर्व मुझसे भी ऐसी ही भूल
हुई थी। तब मेरे गुरू के खिलौने भी मुझसे कम दाम में बिकते थे। वे भी मुझसे अपने
काम और कला में निरंतर निखार लाने के लिए कहते थे। मैं उन पर बिगङ गया था और फिर
अपनी कला का विकास नहीं कर पाया। मैं नहीं चाहता कि तुम्हारे साथ भी वही हो। यह
सुनते ही शिष्य केा अपनी गलती का अहसास हुआ और वह जी-जान से अपने हुनर को संवारने
में लग गया। हमारी आद् परम्परा कहती है’ विद्या ददाति विनयम, विनयादयाति
पात्रताम।‘
अर्थात विद्या स्त्रे विनम्रता प्राप्त
होती है। विनम्रता से पात्रता अर्थात योग्यता आती है और योग्यता से ही तो प्रगति
के बेहतर अवसर प्राप्त होते हैं, जो सुख का आधार बनते है।

शिष्य का अहंकार और गुरू की अनमोल सीख
Reviewed by Kahaniduniya.com
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सितंबर 12, 2019
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