महर्षि रमण के आश्रम के समीप गांव में एक
अध्यापक रहते थे। प्रतिदिन के पारिवारिक कलह से वे बहुत व्यथित हो गए। उन्होंने
परिवार में संतुलन बनाने के काफी प्रयास किए किंतु सफल नहीं हुए। रोज-रोज की
अशांति से मुक्ति पाने के लिए एक दिन उन्होंने आत्महत्या की सोची, लेकिन यह
निर्णय इतना आसान नहीं था। चूंकि वे परिवार के मुखिया थे, इसलिए परिवार के भविष्य
के बारे में भी उन्हें सोचना था। वे मार्गदर्शन के लिए महर्षि रमण के आश्रम में
पहुंचे। महर्षि को प्रमाण कर उन्होंने अपने आने का कारण बताया।
महर्षि रमण उस समय आश्रमवासियों के भोजन
के लिए पत्तलें बना रहे थे। अध्यापक महोदय को महर्षि की पत्तल बनाने में तल्लीनता
व परिश्रम को देखकर ऐसा लगा कि उन्हें निर्णय लेने में समय लगेगा। उन्होंने साहस
करके पूछ ही लिया-भगवान्। आप इन पत्तलों को इतने परिश्रम से बना रहे हैं, किंतु
भोजनोपरांत यह कूङे में फेंक दी जाएंगी। महर्षि बोले-आप ठीक कहते हैं, किंतु किसी
वस्तु को उपोग के बाद फेंकना बुरा नहीं है। बुरा तब होगा, जब उपयोग किए बिना ही
अच्छी अवस्था में उसे फेंक दें। महर्षि की बात से अध्यापक की समस्या का समाधान
हो गया। उन्होंने आत्महत्या का विचार त्याग दिया। अब वे जीने के उत्साह से
सराबोर हो गए। सार यह है कि विपरीत परिस्थितियों में जीवन को समाप्त करना उचित
नहीं है, बल्कि उनके समक्ष दृढता से खङे होकर उन पर विजय प्राप्त करने में ही सफलता
के बीज निहित होते हैं।
पराजित होना आसान है, जीतना कठिन है।
लेकिन कठिन कार्य ही हमें शीर्ष पर पहुंचाता है।
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उत्तम -विचार – दूसरों की कमी
बताने से पूर्व अपनी कमी स्वीकारने का साहस होना चाहिए।
जब अध्यापक ने त्यागा आत्महत्या का विचार
Reviewed by Kahaniduniya.com
on
सितंबर 11, 2019
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