उस दिन रविवार था। दीनबंधु एंड्रयूज से
मिलने एक ईसाई सज्जन सवेरे ही आ पहुंचे। दीनबंधु ने उनका यथोचित सत्कार कियां
बातचीत होने लगी। अनेक मुद्दों पर चर्चाओं का दौर चलने लगा। थोङी देर बाद दीनबंधु
ने घङी में समय देखा और बोल-ओह दस बज गए। क्षमा कीजिएगा, मुझे चर्च जाना है। मैं
फिर किसी दिन आपसे बात करता हूं।
यह सुनकर वे सज्जन तत्काल बोल पङे-चर्च
तो मुझे भी जाना हैं। चलिए मैं भी चलता हूं। दोनों का साथ भी हो जाएगा और बातें
भी। दीनबंधु ने कहा-किंतु मैं उस चर्च में नही जा रहा हूं, जहां आपको जाना हैं उन
सज्जन ने आश्चर्य से पूछा-तो फिर कहां जाएंगे? दीनबंधु मुस्कुराए और उन सज्जन
को साथ लेकर एक गरीब बस्ती में पहुंचे। वहां एक टूटी-फूटी झोंपङी थी जिसके भीतर
चारपाई पर एक बच्चा लेटा था, जिसकी सेवा एक वृद्ध कर रहा था। दीनबंधु ने झोंपङी
में प्रवेश कर वृद्ध को पंखा देते हुए कहा-बाबा अब आप जाइए। जब वृद्ध चला गया तो
उन सज्जन ने दीनबंधु से कहा-यह बालक अनाथ है और ज्वरग्रस्त भी। यह वृद्ध ही
इसकी देख-रेख करता है किंतु यह समय इसका ड्यूटी पर जाने का है। दोपहर तक लौट आएगा।
तब तक मैं ही सेवा करता हूं। यही मेरी पूजा है और यह झोंपङी ही मेरे लिए चर्च हैं।
वे सज्जन दीनबंधु के प्रति श्रद्धा से भर गए।
वस्तुत: दीन-दुखियों की सेवा ही सच्ची ईश पूजा
हैं। यदि हम पूजास्थल न भी जाएं और किसी जरूरतमंद की मदद कर दें तो यही सही
मानवों में धार्मिकता है क्योंकि सभी धर्म एक स्वर से असहायों की सहायता करना
सबसे बङा मानव धर्म बताते हैं।
उत्तम विचार – दूसरों की गलती सहन करना
एक बात है, परंतु उन्हें माफ कर देना और भी महान बात है।
गरीब की झोंपङी में ही बसा था दीनबंधु का चर्च
Reviewed by Kahaniduniya.com
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सितंबर 21, 2019
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